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टाटा स्टील की अनूठी पहल: स्लैग से बनी खाद ने घटाई खेती की लागत, किसानों की उपज में 70 प्रतिशत तक हुई बढ़त

इस्पात उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभा रही टाटा स्टील ने स्लैग से उर्वरक बनाकर कृषि के क्षेत्र में अनोखा प्रयोग किया है। झारखंड के सरायकेला खरसावां जिले के आदित्यपुर में स्थापित किए गए प्लांट मे तैयार हो रहा धुर्वी गोल्ड उर्वरक किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हो रहा है।

By Jagran NewsEdited By: Mohit TripathiUpdated: Wed, 17 May 2023 07:24 PM (IST)
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टाटा स्टील ने एलडी स्लैग के निस्तारण की शानदार योजना बनाकर पेश किया धुर्वी गोल्ड नामक उर्वरक।
निर्मल प्रसाद, जमशेदपुर: इस्पात उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभा रही टाटा स्टील ने हाल ही में स्लैग से उर्वरक बनाकर कृषि के क्षेत्र में अनोखा प्रयोग किया है। झारखंड के सरायकेला खरसावां जिले के आदित्यपुर में स्थापित किए गए प्लांट मे तैयार हो रहा धुर्वी गोल्ड नामक उर्वरक का यह ब्रांड किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हो रहा है।

फसलों के उत्पादन में 25 से 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी

किसानों का कहना है कि इस खाद से न सिर्फ उनकी फसलों के उत्पादन में 25 से 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, बल्कि खेती की लागत भी कम हुई है। इतना ही नहीं कैल्सियम, सल्फर, सिलिका, आयरन, मैग्नीशियम, मोलिबेडिनियम, बोरोन, फॉस्फोरस और जिंक से युक्त होने के कारण यह फसलों के साथ मिट्टी को भी पोषण उपलब्ध करा रही है।

टाटा स्टील ढूंढ़ा स्लैग के निस्तारण का समाधान

स्टील निर्माता कंपनियां लौह अयस्क को गलाकर उससे क्रूड स्टील तैयार करती हैं लेकिन इस प्रक्रिया में कचरे के रूप में अनुपयोगी पदार्थ स्लैग बाहर निकलता है। इससे खाद बनाकर टाटा स्टील ने अब स्लैग के निस्तारण की चुनौती और समस्या का भी समाधान ढूंढ लिया है। टाटा स्टील कंपनी जमशेदपुर प्लांट से 10 मिलियन टन स्टील का उत्पादन करती है। इसमें 20 प्रतिशत एलडी स्लैग निकलता है।

उपज और आमदनी दोनों बढ़ी

कंपनी के टेक्नोलॉजी एंड न्यू मटेरियल्स विभाग ने लंबे शोध के बाद धुर्वी गोल्ड खाद को तैयार किया है। स्लैग से बनी ये खाद किसानों की पैदावार को बढ़ाने में मददगार साबित हो रही है। इस नए खाद के इस्तेमाल से टमाटर, प्याज, गन्ना, शाक-सब्जी, सरसों, धान तथा गेहूं की खेती करने वाले किसानों की उपज और आमदनी बढ़ गई है। कंपनी इस उर्वरक का पेटेंट भी करा चुकी है।

घटी डीएपी व यूरिया की खपत

अबतक किसान फसलों की पैदावार के लिए डाइ-अमोनियम फास्फेट (डीएपी) के साथ यूरिया मिलाकर अपने खेतों में डालते रहे हैं। यूरिया विदेश से आयात होता है और कई बार जरूरत के समय उपलब्ध नहीं हो पाता है। अक्सर ऊंची कीमत में इसे खरीदना किसानों की मजबूरी होती है। धुर्वी गोल्ड इन सभी समस्याओं का समाधान लेकर आया है। किसानों का कहना है कि धुर्वी गोल्ड के इस्तेमाल से डीएपी व यूरिया की खपत 50 प्रतिशत तक कम हो गई है।

तीन विश्वविद्यालयों ने टेस्टिंग के बाद दी मंजूरी

कंपनी के अनुसार देश के तीन विश्वविद्यालयों इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च एंड इंस्टीट्यूट नई दिल्ली, विधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय बंगाल और यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज ने धुर्वी गोल्ड पर तीन सालों तक शोध किया। इसमें मिट्टी की प्रकृति, इस्तेमाल के बाद हाेने वाले प्राकृतिक बदलाव, मौसम अनुरूप लगने वाले कीड़ों की स्थिति आदि की जांच के बाद वाणिज्यिक उत्पादन को हरी झंडी दी गई।

25 हजार टन वार्षिक क्षमता के साथ धुर्वी गोल्ड का हो रहा उत्पादन

वर्तमान में टाटा स्टील आदित्यपुर के हटियाडीह में 25 हजार टन वार्षिक क्षमता के साथ धुर्वी गोल्ड का उत्पादन कर रही है। कंपनी का दावा है कि प्रारंभिक चरण में आठ राज्यों के आठ हजार से अधिक किसान इसका सफल परीक्षण कर चुके हैं। इसका इस्तेमाल देश के कई राज्या में झारखंड, ओडिशा, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और कर्नाटक हो रहा है।

किसानों का कैसा रहा एक्सपीरिएंस

लोआडीह, पटमदा के किसान अशोक महतो कहते हैं कि मैं अपने 15 एकड खेत में टमाटर, फूलगोभी, बैगन, सरसो, लहसुन, शिमला मिर्च, गाजर व प्याज की खेती कर रहा हूं। धुर्वी गोल्ड के इस्तेमाल से मेरी फसलों की ऊपज 50 से 70 प्रतिशत तक बढ़ी है। इस खाद के इस्तेमाल की वजह से एक एकड़ खेत में सात क्विंटल के स्थान पर 13 क्विंटल टमाटर की पैदावार हुई है जो आकार में बड़े और लाल थे। इस वजह से ट्रांसपोटेशन में आसानी हुई।

वहीं पटमदा के दीघी पंचायत की प्रियंका महतो कहती हैं, पहले धान की अधिकतर फसल में बिचड़ा नहीं रहता था, लेकिन धुर्वी गोल्ड के इस्तेमाल से बिचड़ा अच्छा बना और पैदावार भी भरपूर हुई।

क्या है खासियत

ध्रुर्वी गोल्ड प्रोजेक्ट के पी. गणेश ने बताया कि एलडी स्लैग से बनी धुर्वी गोल्ड खाद मिट्टी की गुणवत्ता के साथ-साथ पौधों की उपज को बढ़ाती है। इसके पोषक तत्व अन्य उत्पादों की तुलना में पानी में जल्द घुलनशील नहीं होते हैं। ये धीरे-धीरे गलता है, जिससे पौधों को पर्याप्त मात्रा में माइक्रो न्यूट्रियंस मिल पाते हैं।

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