इन वाद्य यंत्रों से है जनजातीय समाज का पुराना रिश्ता, जानिए
समय के साथ-साथ आदिवासी समाज में प्रचलित कई वाद्ययंत्र तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं। जानिए कुछ ऐसे ही वाद्ययंत्रों की कहानी।
By Rakesh RanjanEdited By: Updated: Sun, 25 Nov 2018 10:57 AM (IST)
जमशेदपुर [दिलीप कुमार]। जल, जंगल, जमीन की तरह वाद्ययंत्रों से भी आदिवासी समुदाय का गहरा रिश्ता रहा है। मनोरंजन, उत्सव व सुरक्षा के लिए यह समाज कई तरह के वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल करता रहा है। इस समाज में वाद्ययंत्रों की पूजा भी होती है। लेकिन समय के साथ-साथ आदिवासी समाज में प्रचलित कई वाद्ययंत्र तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं। जानिए कुछ ऐसे ही वाद्ययंत्रों की कहानी।
बानामबानाम सारंगी जाति का लोक वाद्य यंत्र है। इसके ऊपर का भाग पतला और गोल होता है। नीचे की ओर मोटा होता जाता है। इसकी आकृति लंबे मुदगर की तरह दिखलाई पड़ती है। इस वाद्ययंत्र में घोड़े की पूंछ के बालों को तार या रस्सी के स्थान पर बांधा जाता है। बांस या लकड़ी से बने धनुष, जिस पर घोड़े की पूंछ के बालों की रस्सी बंधी होती है, से बानाम को बजाया जाता है। आदिवासी समाज में विशेष मौके पर बानाम बजाने की परंपरा रही है।
भुआंग आदिवासी समाज में त्योहारों पर विशेष रूप से बजाया जाने वाला महत्वपूर्ण वाद्य यंत्र है भुआंग। यह मुख्य तौर पर दशहरा के समय बजाया जाता है। यह धनुष की आकृति का वाद्ययंत्र है। भुआंग एकतारा जाति का वाद्य यंत्र है। बड़े लंबे कद्दू के खोल से बने भुआंग के ऊपर लकड़ी का एक कलात्मक फ्रेम लगा रहता है, जो डमरू के आकार का होता है। इसके ऊपरी भाग पर यू आकार बना रहता है, जिसके दोनों सिरे को लता की बनी रस्सी बांध दिया जाता है। इस रस्सी को धनुष की तरह खींच-खींचकर छोड़ा जाता है।
चोड़चोड़ी
चोड़चोड़ी ढोलक जाति का ड्रम की तरह दिखने वाला वाद्ययंत्र है। लकड़ी के डेढ़ या सवा फीट लंबे खोल में दोनों ओर चमड़े से मढ़ा जाता है। मढ़े चमड़े को दबाने के लिए लोहे के एक-एक चपटे ङ्क्षरग दोनों मुंह पर कसा जाता है। इसी ङ्क्षरग पर चमड़े के साथ फीता बांधने के लिए छेद बना रहता है। जिसे ढीला करने और कसने के लिए हर दो चमड़े के फीता पर लोहे का ङ्क्षरग लगा रहता है। आवश्यकता अनुसार इसे दाएं बांए खींचा जाता है। इसके सामने वाले भाग, जो पिछले मुह से थोड़ा बड़ा होता है, उसे बांस के चपटे व पतले डंडे से दोनो हाथों से बजाया जाता है। कटहल लकड़ी से बना चोड़चोड़ी अच्छा रहता है।नगाड़ा
नगाड़ा ढाक का सहयोगी और प्रथम कड़ी का वाद्ययंत्र है। आदिवासियों के अलग-अलग जातियों में भिन्न-भिन्न आकार का होता है। यह एक से छह फीट चौड़ा और चार से पांच फीट ऊंचा होता है। संताल, हो, बिरहोर आदि का नगाड़ा छोटा होता है। मुंडा, उरांव, खडिय़ा एवं सादानों का नगाड़ा बड़ा होता है। नगाड़े की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसका निर्माण लोहार, घासी और मोची मिलकर करते हैं। इसका निर्माण भैंस के चमड़े से होता है। नीचे से गोलाकार होता है, जो लोहे या लकड़ी से बना होता है। नगाड़ों की बांधी पतले चमड़े की रस्सी या तांत की रस्सी से बुना जाता है।
मांदर
झारखंड का लोकप्रिय वाद्य यंत्र मांदर है। इसे राजवाद्य कहा जाता है। अलग-अलग जाति समाज में अलग-अलग आकृति व आकार के मांदर होते हैं। पहले मिट्टी या लकड़ी से मांदर बनाए जाते थे। अब मिट्टी और लकड़ी का स्थान लोहे, अलमुनियम ने ले लिया है। ढोलक की तरह ही मांदर का एक ओर पतला और दूसरी ओर चौड़ा खोल बनाया जाता है। इसके दोनों मुंह पर बंदर का चमड़ा मढ़ा जाता है। बंदर के अभाव में बकरी के चमड़े का भी उपयोग होता है।संखवा
यह भैंस-सी आकृति वाले सिंगों को छीलकर बनाया जाता है। नुकीले ठोस भाग में छेद कर फूंक मारकर इसे बजाया जाता है। संखवा संताल समाज का छोटा नरसिंघा है। यह 15 इंच से लेकर दो फीट लंबी होती है। विशेष मौके पर बजाए जाने वाले संखवा अब कम ही देखने को मिलता है। समाज के लोग अब इसका प्रयोग करना भूलते जा रहे हैं।
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