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National Sports Day : झारखंड के खिलाड़ी हैं निराश, कैसे बुझेगी उनकी पदक की प्यास

National Sports Day 2022 हम खिलाड़ियों से तो पदक की आस करते हैं लेकिन जिन संसाधनों की कमी से वे जूझते हैं उसका तनिक भी हमें भान नहीं है। सीमित संसाधनों के बावजूद यह खिलाड़ी उफ्फ तक नहीं करते और समर्पण भाव से लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं....

By Jitendra SinghEdited By: Updated: Mon, 29 Aug 2022 05:25 PM (IST)
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National Sports Day : झारखंड के खिलाड़ी हैं निराश, कैसे बुझेगी उनकी पदक की प्यास
जितेंद्र सिंह, जमशेदपुर : झारखंड में खेल कभी भी प्राथमिक सूची में नहीं रहा। मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों को स्कूली पढ़ाई तक खेलों से ताल्लुक रखने की इजाजत देते हैं और कालेज में आते ही वे उन्हें करियर बनाने की दिशा की तरफ धकेल देते हैं। इस राज्य में खिलाड़ी वही होता है, जिसे जन्म लेते ही गरीबी की गोदी मिलती है। थोड़ा बड़ा होने पर अभावों को करीब से देखता है और फिर खेल का दामन इसलिए थाम लेता है, ताकि कम से कम वो आने वाली नस्ल को इस गरीबी के दलदल से बाहर निकाल सके। यह कड़वा सच है, जिसे स्वीकारना ही होगा।

बहुत कम नसीब वाले खिलाड़ी होते हैं, जिनका वास्ता ऐसी बदहाली से नहीं पड़ता। तीरंदाज दीपिका कुमारी, कोमलिका बारी से लेकर मुक्केबाज दिवाकर प्रसाद तक। सभी ने आर्थिक चुनौतियों का सामना किया। इनकी तकदीर अच्छी थी। अच्छे कोच का साथ मिला और करियर की तस्वीर बदल गई। लेकिन बहुत ऐसे खिलाड़ी हैं जो संघर्षों में ही जीवन गुजार देते हैं।

पेट पालने के लिए विश्वकप तक विजेता मुकेश ने अखबार तक बेचा

समय का पहिया कब किसके किस्मत पर कुठाराघात कर दे, कोई नहीं जानता। रोल बाल में विश्वकप विजेता टीम के सदस्य रहे मुकेश कुमार को लाकडाउन के दौरान पेट पालने के लिए अखबार तक बेचना पड़ा। फिलहाल वह टाटा मोटर्स द्वारा टेल्को के मिलेनियम पार्क में चल रहे रोल बाल ट्रेनिंग सेंटर के कोच हैं। सोनारी के रहने वाले मुकेश ने विश्वकप टीम में जगह बनाने के लिए मैदान पर खून-पसीना बहाया, लेकिन देश के लिए पदक जीतने वाला यह जांबाज उपेक्षित महसूस कर रहा है। रोलबाल को सरकारी संरक्षण नहीं मिलने के कारण आज इस खेल के खिलाड़ी बदहाल स्थिति में है।

वर्ष 2015 में पुणे में आयोजित रोलबाल विश्वकप में लाकडाउन से पूर्व वह एक स्थानीय स्कूल में रोलबॉल की ट्रेनिंग देकर जीवन चला रहे थे, लेकिन 2020 में लगे लाकडाउन के कारण सभी स्कूल बंद हो गए। मुकेश भूखमरी के कगार पर आ गए। ऐसी स्थिति में उन्हें कुछ ना सूझा। मजबूरी में अखबार तक बेचना पड़ा। 2016 में एशियन रोबलबॉल चैंपियनशिप में भारत की विजेता टीम के सदस्य मुकेश के पिता सीताराम मुखी का देहांत हो चुका है। उनकी माता बिमला देवी दूसरों के घर में बर्तन मांजकर परिवार चलाती है। वहीं बेटे मुकेश को चैंपियनशिप खिलाड़ी बनाने में बिमला देवी का भी बड़ा योगदान रहा है।

बेटे को खेल के साथ-साथ पढ़ाई का भी पूरा खर्च अपने दम पर उठाया है। इतनी उपलब्धियों के बावजूद मुकेश को अभी तक कोई सरकारी सहायता नहीं मिल पाई है। मुकेश को कभी अपना ट्रेनिंग जारी रखने के लिए लिए सोनारी के एक क्लिनिक में साफ-सफाई का भी करना पड़ रहा था। कोच चंदेश्वर साहु से रोलबॉल की बारीकियां सीखने वाले मुकेश सीनियर नेशनल, एसजीएफआइ स्कूल नेशनल के अलावा कई अन्य टूर्नामेंट में शिरकत कर चुके हैं।

नेहा ने आर्थिक झंझावातों को ही बना लिया संबल

इस नन्हीं परी की जीवटता को सलाम कीजिए, जिसने आर्थिक झंझावातों को पार करते हुए राष्ट्रीय मुक्केबाजी की दुनिया में अलग पहचान बनाई। सीनियर नेशनल बॉक्सिंग चैंपियनशिप में धमाल मचाने वाली रिंग की रानी नेहा तंतुबाई ने 13 साल की उम्र में ही मुक्केबाजी से प्यार हो गया। बस क्या था, मुक्केबाजी रिंग को ही अपना आशियाना बना लिया। रिंग की रानी ने धमाल मचाना शुरू किया।

पढ़ाई में भी हमेशा अव्वल रहने वाली नेहा 2014-15 में जमशेदपुर में आयोजित राज्य स्तरीय मुक्केबाजी की सब जूनियर वर्ग का स्वर्ण अपने नाम किया। फिलहाल 12वीं कक्षा में अध्ययनरत नेहा ने 2017 में रोहतक में आयोजित नेशनल चैंपियनशिप में रजत पर पंच लगाया था। नेहा की जीवटता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है खेलो इंडिया खेलो में जाने के लिए नेहा ने सात किलो वजन घटाया था।

बिरसानगर जोन नबंर दस की रहने वाली नेहा के पिता धीरेन तंतुबाई बारीडीह के कपड़ा दुकान में काम करते हैं, वहीं मां प्रमिला तंतुबाई मर्सी अस्पताल में स्वीपर हैं। तीन बहनों में मंझली नेहा को शुरू से ही खेल से लगाव था। इसी लगाव को देखते हुए मामा ने उन्हें बिरसा बॉक्सिंग सेंटर भेजना शुरू किया। कोच ई लकड़ा, बेनसन स्मिथ ने छोटी सी नन्हीं परी में वह प्रतिभा देखी, जो किसी के पास नहीं थी। तब तीसरी कक्षा से मुक्केबाजी का अभ्यास कर रही है। नेहा का कहना है कि सरकार को खिलाड़ियों को समय-समय पर आर्थिक सहायता देनी चाहिए।

राशन दुकान में काम करने को मजबूर अंतरराष्ट्रीय हैंडबाल खिलाड़ी

अंतरराष्ट्रीय हैंडबाल खिलाड़ी नदीम कुरैशी की जिंदगी बदहाल खेल को आइना दिखाने के लिए काफी है। नदीम आज पेट पालने के लिए राशन की दुकान में काम करने को मजबूर हैं। कई मौकों पर झारखंड का प्रतिनिधित्व कर चुके नदीम 2018 में जोर्डन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय हैंडबाल चैंपियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व किया। इस चैंपियनशिप में भारत छठे स्थान पर रहा था। 2018 में ही बैंकाक में आयोजित आइएचएफ ट्राफी में भारत को तीसरा स्थान दिलाने में महती भूमिका निभाई। सात बार झारखंड का प्रतिनिधित्व कर चुके नदीम के पिता मो. जहीर कुरैशी का 2012 में ही इंतकाल हो गया था।

घर का जिम्मा मां रजिया खातून पर आ गया। मां ने हिम्मत नहीं हारी और दोनों भाईयों को पढ़ाया। आज नदीम को जीवन चलाने के लिए राशन दुकान में काम करना पड़ा है। झारखंड सरकार ने खिलाड़ियों को सीधी नियुक्ति का भरोसा दिया था, लेकिन यह दिवास्वप्न ही साबित हुआ। नदीम अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप के अलावा सीनियर नेशनल, ईस्ट जोन नेशनल चैंपियनशिप व स्टेट चैंपियनशिप में खेल चुके हैं. इसके साथ-साथ नदीम के भाई जावेद जाफरी भी सीनियर नेशनल चैंपियनशिप में झारखंड का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। नदीम को एक बार सरकार की ओर से मात्र 15 हजार रूपये की आर्थिक सहायता मिली इसके अलावा सरकार ने आजतक नदीम जैसे चैंपियनशिप खिलाड़ी की कोई खोज खबर नहीं ली।

आलू बेचने वाले का बेटा-बेटी मचा रहे धमाल

जब किसी लक्ष्य को पाने के लिए समर्पण व दृढ़संकल्प साथ हो तो फिर मंजिल आसान हो जाती है। मनीफीट के रहने वाले भाई-बहन नेहा व अंकुश से मिलिए। राज्य मुक्केबाजी चैंपियनशिप में स्वर्णिम मुक्का जड़ने वाली नेहा कुमारी जब रिंग पर उतरती है तो प्रतिद्वंदी के पेशानी से पसीने निकलने लगते हैं। 2021 में राष्ट्रीय स्तर पर राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले नेहा के पिता कृष्णा यादव ट्यूब गेट के पास आलू-प्याज बेचते हैं, जबकि मां सरस्वती देवी घरेलू महिला है।

आर्थिक स्थिति ऐसी कि जेआरडी टाटा स्पोर्ट्स कांप्लेक्स के मुक्केबाजी सेंटर का फीस बढ़ने के लिए पैसा नहीं होता। वह तो कोच अजीत कुमार व खेल विभाग के हेड आशीष कुमार, कोच तांती व कार्तिक को धन्य कहिए, जो समय-समय पर इन दोनों बच्चों की सहायता करते हैं। नेहा 10वीं में पढ़ाई कर रही है, वहीं अंकुश आठवीं कक्षा में है। अंकुश राष्ट्रीय चैंपियनशिप में राज्य का प्रतिनिधित्व करने की तैयारी कर रहे हैं। रामकृष्ण मिशन लेडी इंदर सिंह स्कूल में पढ़ने वाली इन दोनों खिलाड़ियों को आजतक सरकार से कोई सहयोग नहीं मिला।

केयू यूनिवर्सिटी को बॉक्सिंग में पहला पदक दिलाने वाले उज्ज्वल का भविष्य अंधकार में

यह हैं कोल्हान विश्वविद्यालय को मुक्केबाजी में पहला पदक दिलाने वाले उज्जवल शर्मा। मुक्केबाजी रिंग में खून-पसीना बहाकर पदक हासिल करने वाला यह मुक्केबाज आज कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने को मजबूर है। लाकडाउन में जब पूरी दुनिया ठप हो गई तो इन्हें भी जीवन की अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा।

फिलहाल सेना में कार्यरत भाई के सहारे ही परिवार चल रहा है। उज्ज्वल आल इंडिया बॉक्सिंग चैंपियनशिप के अलावा जूनियर नेशनल व सब जूनियर नेशनल में भी पदक अपने नाम कर चुके हैं। पांच बार से अधिक बार विभिन्न नेशनल चैंपियनशिप में झारखंड का प्रतिनिधित्व कर चुके उज्ज्वल शर्मा ने सरकारी नौकरी के लिए कई दरवाजा खटखटाए, लेकिन कहीं सफलता नहीं मिली।

कान्वाई ड्राइवर जसपाल की जिद, बेटे को बनाएंगे अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाज

जेम्को के रहने वाले किरणदीप सिंह जब मैदान पर उतरते हैं तो बड़ों-बड़ों के हौसले पस्त हो जाते हैं। टाटा मोटर्स के कान्वाई ड्राइवर जसपाल सिंह अपने बेटे को अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाज बनाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते। लेकिन आर्थिक झंझावातों की अपनी बाधाएं होती है। किरणदीप सिंह कहते हैं, एक खिलाड़ी को बेहतर प्रदर्शन करना होता है। इसके लिए 70 प्रतिशत डायट व 30 फीसद प्रैक्टिस की जरूरत होती है। अगर उचित डायट नहीं मिले तो फिर हर प्रैक्टिस बेमानी है।

2018 में नोवामुंडी में आयोजित राज्य मुक्केबाजी चैंपियनशिप में स्वर्ण पर पंच मारने वाले किरणदीप ने 2019 में रुद्रपुर में आयोजित नेशनल चैंपियनशिप तथा 2020 में कर्नाटक में अंतिम आठ में जगह बनाई थी। 19 साल के किरणदीप ने इसी वर्ष 12वीं की परीक्षा पास की है। किरणदीप का कहना है सरकारी सहायता के बगैर खिलाड़ियों को तराशा नहीं जा सकता। खिलाड़ियों को तराशने के लिए हमारे पास कोई योजना नहीं है। जब खिलाड़ी पदक लाता है तब प्रोत्साहन राशि मिलती है। लेकिन उस पदक के पीछे एक खिलाड़ी की कितनी मेहनत छिपी होती है, यह सिर्फ वही जानता है।

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