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नदियों से लोगों का तालमेल खत्म हो गया, इसलिए आ रही है बाढ़

भारत के कई राज्यों में बाढ़ एक वार्षिक कैलेंडर की तरह हो गई है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने देश में चार करोड़ हेक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र घोषित किया है। असम पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्य बाढ़ के सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से एक हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत की अधिकतर नदियां विशेषकर उत्तरप्रदेश और पंजाब में बाढ़ आ रही है।

By Jagran News Edited By: Shashank Shekhar Updated: Sat, 20 Jul 2024 07:25 PM (IST)
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दिनेश कुमार मिश्र से दैनिक जागरण की खास बातचीत। फोटो- जागरण

जमशेदपुर। भारत के कई राज्यों में बाढ़ एक वार्षिक कैलेंडर की तरह हो गई है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने देश में चार करोड़ हेक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र घोषित किया है। असम, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्य बाढ़ के सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से एक हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत की अधिकतर नदियां विशेषकर उत्तरप्रदेश और पंजाब में बाढ़ आ रही है।

राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब आकस्मिक बाढ़ के कारण पिछले कुछ दशकों में जलमग्न हो रहे हैं। कई बार तमिलनाडु में बाढ़ नवंबर से जनवरी माह के बीच लौटते मानसून से होने वाली तीव्र वर्षा द्वारा आती है। वर्तमान में असम के 33 जिलों में से 18 जिले बाढ़ की चपेट में हैं। इस बाढ़ से अब तक लगभग 37 लोगों की मौत हो चुकी है और दस लाख से अधिक लोग तथा पशु धन प्रभावित हुए है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या बाढ़ को रोकने का क्या कोई उपाय नहीं है?

ऐसे अगर बाढ़ हर साल आती रही तो आगे क्या होगा? बाढ़ पर कई किताबें लिखने वाले तथा बाढ़ की विभीषिका पर शोध करने वाले डा. दिनेश कुमार इसका बताते हैं कि हम नदियों की धारा को बांध रहे हैं, उसकी जल निकासी की व्यवस्था नहीं हो रही है। इस कारण अब ग्रामीण क्षेत्रों की बाढ़ शहरी क्षेत्रों में आने लगी है। हमारा, नदियों के साथ तालमेल खत्म हो गया है।

डॉ. दिनेश मूल रूप से उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के रहने वाले हैं, लेकिन वर्तमान में जमशेदपुर में रह रहे हैं। 1968 में आइआइटी खड़गपुर से सिविल इंजीनियरिंग में बीटक और फिर एमटेक करने वाले 80 वर्षीय डा. दिनेश मिश्र वर्ष 2006 में कोसी नदी के बाढ़ पर ही पीएचडी की। वह बाढ़ से जुड़ी मान्यताओं पर बात करते हैं कि कैसे पहले कोसी में सिंदूर छिड़ककर नदी की 'मस्ती' को शांत किया जाता था। वहीं यह भी बताते हैं कि कैसे लोगों और नदी के बीच तालमेल खत्म हो जाने से अब यह विकराल रूप लेकर हमारे सामने आ रही है।

उनका स्पष्ट मानना है कि एक तरह से बांध, तटबंध, डैम, बराज बनाकर हमने बाढ़ को खुद न्योता दिया है। बाढ़ को रोकने के उपाय से लेकर अब तक खामियां, अधूरे प्रयास एवं इससे जुड़े मुद्दों को लेकर डा. दिनेश कुमार मिश्र से दैनिक जागरण, जमशेदपुर के संपादकीय प्रभारी उत्तम नाथ पाठक की विशेष बातचीत :-

आखिरकार भारत में इतनी विनाशकारी बाढ़ हर साल क्यों आती है?

देखिए जब आप कालांतर में जाएंगे तो पता चलेगा यह अब होने लगा कि हर साल इस तरह की स्थिति बनती है। ऐसी स्थिति बनने में 150 साल लगे। पहले बाढ़ अपने नियत समय पर आती थी और फिर कुछ दिन बाद स्वतः सारा पानी निकल जाता था, लोगों के पास पूरा लेखा-जोखा रहता था दिनों के हिसाब से इतने दिन में बाढ़ आएगी, पानी कितने दिनों तक रहेगा, यह भी मालूम था।

बिहार के कोसी के क्षेत्र में आप जाएंगे तो आज से 150 साल पहले अत्यधिक बारिश के बाद बाढ़ आई तो वह इतनी ही होती थी कि घरों की देहरी तक पहुंचता था, मान् ता थी कि गाय-बैल का खूंटा देखकर बाढ़ का पानी रुक जाता है। स्थानीय भाषा में इस तरह की बाढ़ बोह कहलाती है।

तकरीबन 50 साल बाद उसी क्षेत्र में खिड़की के स् र तक बाढ़ का पानी पहुंचने लगा, जिसे स्थानीय लोग हुम्मा बोलते हैं। भैंस फूलकर हाथी हो जाए, उसे हुम्मा बोलते हैं। मान्यता थी कि कोसी नदी अविवाहित लड़की है, सिंदूर छिड़कने की बात पर कहा कि महिलाएं थाली में सिंदूर व दीया जलाकर कर नदी किनारे पहुंचती थीं और गाना गाते हड़काते सिंदूर छिड़कने की बात कहती थीं, मान्यता थी कि उसके बाद पानी खुद-ब-खुद कम होने लगता था, नदी का पानी स्वयं पीछे हट जाता था। यह पहले की जीवन शैली थी।

नदी के साथ तालमेल था। पानी के निकासी का मार्ग बना हुआ था, बांध बनाकर सब खत्म हो गया। कहां पर क्या भौगोलिक स्थिति है, उस अनुरूप बांध का निर्माण होना चाहिए, लेकिन एकसमान बांध बनाते चले गए, जो बाढ़ की सबसे प्रमुख वजह है। मसलन कोसी की ही बात करें तो 1893 में बाढ़ का अंदेशा था, बंगाल के त्तकालीन चीफ इंजीनियर विलियम इंगलिश ने कोसी क्षेत्र का 1894 में दौरा किया था, नेपाल के अंदर तक गए, ताकि कोई रास्ता निकले। उन्होंने उसी वक्त निष्कर्ष दिया था कि नदी के प्राकृतिक प्रवाह के साथ कोई छेड़छाड़ न करें। किसी ने यह बात नहीं मानी। आज की बाढ़ के लिए लोग जिम्मेदार हैं।

तो क्या बांध, डैम, बराज नदियों के साथ आम लोगों के लिए हितचिंतक नहीं है?

बांध, डैम, बराज बनाएंगे तो नदियों के प्रवाह के सामने आप दीवार खड़ी कर रहे हैं। अब तकनीक कहती है कि इस संग्रहित पानी को कैनाल में बहा दो, जिससे खेती हो सके, साथ ही बिजली भी पैदा करो, ताकि पानी वापस नदी में न जाने पाए। नदियों के पानी को रोकने के बाद अतिवृष्टि होने पर बाढ़ आने पर पानी की निकासी कैसे हो, इसका कोई प्र धान आज तक नहीं बना है। सिर्फ बैराज का फाटक खोल दो, यही बाढ़ का सबसे बड़ा कारण है।

जिस नदी के पानी को हम संग्रहित कर रहे हैं, अतिवृष्टि होने पर पानी को हम उसकी शाखा नदी में प्रवाहित करने की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि वे भी अपनी मुख्य नदी के पानी का इंतजार करती हैं। ऐसा करने पर हम कई नदियों को एक दिशा दे सकते हैं, लेकिन अब तक इस तरह का कोई प्रविधान नहीं बना। अभी भी प्रशासन से लेकर जनप्रतिनिधि तक इस मामले में खामोश हैं।

इस कारण पहले ग्रामीण क्षेत्रों में बाढ़ आती थी, अब शहरी क्षेत्रों में बाढ़ आ रही है। विकास के नाम पर हमने शहरी क्षेत्र में बाढ़ को लाया। नासिक, जालंधर, नागपुर, भोपाल, तमिलनाडु, चंडीगढ़ समेत कई स्थान इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

आपके अनुसार इंजीनियरों ने बिना किसी योजना के तटबंध बना दिया , जमीनी सच्चाई जाने बगैर?

हां, बाढ़ की मुख्य वजह ये आज-कल के कथित इंजीनियर ही हैं। उन्हें सिर्फ सरकार की बातों को सुनने की आदत पड़ी है। वे सरकार को यह नसीहत नहीं देते हैं कि इससे क्या नुकसान है और नुकसान की भरपाई कैसे की जा सकती है। वे सिर्फ अपनी व्यावसायिक सोच रखते हैं। समाज के साथ बैठकर बात नहीं करते हैं। समाज के साथ बैठेंगे तो इंजीनियरों को कई चीजों की जानकारी मिलेगी, जो उनकी किताबों में नहीं मिलेगी। तकनीक और समाज के सुझावों को ध्यान में रखकर कोई चीज बनती है, तभी वह ठीक से फलीभूत होती है।

इंजीनियर असुविधाओं पर ध्यान नहीं देते। बिहार में कोसी, महानंदा के साथ ऐसा हुआ। सरकार के आदेशानुसार बस दीवार खड़ी कर दी। जो पहले बाहर से नदी में आता था, उसे बाहर रोक दिया। उस पानी की निकासी का कोई इंतजाम नहीं है। तटबंध में पूरी तरह सिल्ट व बालू भर गया। पहले नदियों के तटबंध के किनारे के क्षेत्र में धान की खेती होती थी, बाद में उसमें बालू की मात्रा बढ़ती गई, गेहूं उगाया जाने लगा।

बाद में इतनी बालू आसपास के क्षेत्र में फैल गई कि अब उसी जमीन पर ककड़ी, खरबूजा उगाने की नौबत आ गई। कई जगह तो जमीन बंजर हो गई है। जो पहले बड़े क सान थे, वे जमीन होते हुए भी अब दूसरे के खेतों में कार्य करने को मजबूर हो रहे हैं। यह सब इंजीनियरिंग के कारण ही हो पाया। पूरा सिस्टम इंजीनियर के गर्वबोध के कर्ज तले दब गए हैं। गांव वालों को पारंपरिक ज्ञान है। यह पारंपर क ज्ञान इंजीनियरों के पास नहीं है।

रोहिणी, हथिया नक्षत्र से कब बारिश होगी, कब धूप होगी। उसके बाद चित्रा व स्वाति। सितंबर-अक्टूबर में क्या होगा। यह सब ऋतु चक्र है। गांववालों एवं इंजीनियरों की भाषा को समझाने के लिए एक संवाद होना आवश्यक है। इसके लिए एक मध्यस्थ की भी आवश्यकता है। पारंपरिक ऋतु चक्र के अनुसार ही उस समय और अभी भी अनावृष्टि, अतिवृष्टि होती है।

यह चक्र हर साल आना ही है। वर्ष 2007 में कोसी नदी में आई बाढ़ की विभीषिका को हमने देखा। इसमें 54 जगह बांध व कलवर्ट बह गए थे। इसका मतलब यह है कि पानी वहां से रास्ता खोज रहा है निकलने के लिए उल्टे उसे बांध दिया गया। फ र तो वो अपने तीव्र प्रभाव से उसे तोड़ेगा ही, तबाही मचाएगा ही। क्या काम किया गया बाढ़-बचाव के नाम पर इसका मूल्यांकन होना जरूरी है, जो काम किया गया वह कितना फ ज बल है।

फिर तो नदियों में जमा होने वाला बाढ़ की मुख्य वजह है?

हां, यह तो पूरी तरह साफ है कि सिल्ट का अधिक जमाव नदियों में होता है कि इन्हें तटबंधों को ऊंचा करके या उन्हें मजबूत करके नहीं रोका जा सकता है। वास्तव में तटबंध जितने ऊंचे और मजबूत होते जाएंगे, सिल्ट का जमाव उतनी ही तेजी से नदी के पेट में बढ़ेगा, क्योंकि सिल्ट के बाहर जाने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। इस प्रकार हम अपने ही जाल में फंसते हैं, जल पवन, तटबंध का टूटना, नदी की धारा का मुड़ना इस तरह के खतरे हमारा पीछा नहीं छोड़ते हैं।

फिर बाढ़ को कैसे प्रभावी तरीके से रोका जा सकता है?

बाढ़ या अत्यधिक वर्षा पर कई लोग कार्य कर रहे हैं। बस हम इनसे कितनी सीख लेते हैं, कैसे इसे ग्रहण करते हैं यह महत्वपूर्ण है। जलस्तर(वाटर लेवल) की ठीक से गणना (कैलकुलेशन) जरूरी है। ऐसी नदियां जो हर साल बाढ़ लाती हैं, उसके पानी को उसकी पुरानी शाखा नदियों में प्रवाहित करें। ऐसा करने पर समान रूप से इन नदियों को भी अविरल रूप से पानी मिलेगा तथा ये नदियां सूखेंगी नहीं। इसके लिए पूरा मैकेनिज् डेवलप किया जाना चाहिए। मसलन हम सिंचाई के लिए नहरें व कैनाल व बिजली के लिए अलग कैनाल तो बनाते ही है, इसके साथ ही हमें बाढ़ के पानी के निकासी के लिए भी अलग लाइन बनानी होगी। ऐसा करने पर बाढ़ से नुकसान कम होगा।

पहले की बाढ़ और अभी की बाढ़ में क्या अंतर है। पहले ढाई दिन की बाढ़ थी, अब यह ढाई महीने की हो गई, ऐसा क्यों?

कोसी पर बने बांध सबसे बड़ा उदाहरण हैं, कोसी बांध जनता के हित में नहीं रहा। बरसों से नेपाल को बिहार की बाढ़ का जिम्मेवार बताते हुए लोगों को गुमराह किया जाता रहा है। हर साल बाढ़ आने के कुछ दिनों पहले से सरकारी तंत्र बाढ़ की तैयारी को लेकर जुट जाते हैं, बाढ़ आती है, लाखों लोग इसकी चपेट में आते हैं। बाढ़ के जाते ही तंत्र सो जाता है। राजनेता और इंजीनियर्स की टीम बाढ़ को लेकर झूठ फैलाने का काम करती है। प्रकृति के हाथ बड़े होते हैं, हम उससे कभी नहीं जीत सकते। सदियों से हम नदी की आराधना करते आ रहे हैं। नदियों के साथ हमारा एक रिश्ता बना हुआ था, हम नदी के साथ-साथ चलते थे। हमने तटबंध बना कर ढाई दिन की बाढ़ को ढाई महीने की बाढ़ बना दी।

क्या बाढ़ से सिर्फ नुकसान ही नुकसान है?

ऐसी बात नहीं है कि बाढ़ से सिर्फ नुकसान ही है। बाढ़ के पानी के बहाव से आई मिट्टी काफी उर्वरक होती है, जो फसलों की पैदावार बढ़ाती है। दरअसल बाढ़ का पानी अपने साथ पहाड़ों से उपजाऊ गाद (मिट्टी) खेतों में लाता है। यह गाद काफी उपजाऊ होती है। मैदानी इलाकों में इस उपजाऊ मिट्टी की एक परत बन जाती है, जिससे खेतों में मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और फसल काफी अच्छी होती है। धान, गेहूं एवं सब्जी उत्पादन होता है। इसके साथ ही रेत-पत्थर आदि जमा होने से संकरी हो चुकी नदी के चैनलों को बाढ़ साफ कर देती है। बाढ़ से भू-जल संभरण भी होता है।

आपने सिविल इंजीनियरिंग में बीटेक व एमटेक किया। ऐसे में आप कोई नौकरी कर सकते थे, लेकिन आपने बाढ़ पर अध्ययन का रास्ता कैसे चुना?

पीएचडी अध्ययन का टर्निंग प्वाइंट वर्ष 1984 रहा। इस समय कोसी का बांध टूट गया। इस आपदा के कारण 196 गांव बह गए थे। नदी दो भागों में बंट गई थी। तब इसका समाधान ढूंढने के लिए विकास भाई, सर्वोदय एवं ग्रामदान संस्था के लोग आए। उन्होंने आगे आने वाली आपदा से बचाने का अनुरोध किया। काफी अनुरोध के बाद इस कार्य के लिए हामी भरी। कई क्षेत्रों का भ्रमण किया।

इस दौरान ग्रामीणों के साथ मिल-बैठकर कई अध्ययन किए। इस पर पूरी रिपोर्ट तैयार की, 12 एजेंसी को मेरा ड्राफ्ट भेजा गया, लेकिन वह ड्राफ्ट, ड्राफ्ट बनकर ही रह गया। मैं चाहता तो नौकरी कर सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया। चूंकि मुझे समाज के लिए कुछ अध्ययन करना था, ज ससे इस समस्या का स्थायी समाधान निकाल सकूं, इसलिए मैंने बाढ़ पर अध्ययन प्रारंभ किया।

बाढ़ पर आपने अब तक कितनी किताबें लिखीं? पहली किताब कब से लिखनी प्रारंभ की?

बिहार, गुजरात व अन्य बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के भ्रमण के बाद पहली किताब वर्ष 1990 में शुरू की। इस किताब को लिखने में छह से सात साल का समय लग गया। फोटोग्राफ व ग्रामीणों से संपर्क कर उनकी बातों को आधार बनाते हुए 'बाढ़ से त्रस्त, सिंचाई से पस्त', 'उत्तर बिहार की व्यथा कथा' नामक शीर्षक से किताब पूरी की और प्रकाशित हुई।

इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद कई लोगों ने मेरी आलोचना भी की। इसके बाद 'कोसी उम्रकैद से सजाएं मौत तक', 'वंदिनी महानंदा', 'बोया पेड़ बबूल का', 'बाढ़ नियंत्रण का रहस्य', 'दुई पाटन के बीच में कोसी', 'बगावत पर मजबूर मिथिला की कमला नगरी', 'बागमती की सदगति' समेत एक दर्जन किताबें लिखीं। अब एक अंतिम किताब लिख रहा हूं , जिसका नाम है '1947 से 2006 तक'। इस किताब को समैकित करने का कार्य बाकी है। उम्र काफी हो गई है, देखता हूं इसे पूरा कर पाता हूं या नहीं।

आज बाढ़ के अलावा भू-जल स्तर एक बड़ा मुद्दा है। बड़े-बड़े शहरों में हजार फीट से नीचे भू-जल चला गया है, वीआइपी माहौल में भी टैंकर से पानी की सप्लाई हो रही है, भू-जल स्तर उठाने में क्या मैकेनिज्म अपनाएं जाने चाहिए?

भू-जल स्तर को बचाना है तो एफोरस्ट्रेशन बहुत जरूरी है। लोगों की सहभागिता आवश्यक है। लोगों को वर्षा व बाढ़ के पानी के संरक्षण के उपाय करना होंगे। इसके लिए आपका एक छोटा प्रयास ही काफी है। आप अपने खेत के किसी किनारे में 10 बाय 10 का एक गहरा गड्ढ़ा बनाकर इस पानी को संरक्षित कर सकते हैं। ट्रेंच बनाकर पानी को रोकें। छोटे-छोटे चेकडैम बनाए जाएं, यह प्रयास आपके भू-जल स्तर को ठीक रखेगा।

वर्ष 1954 से अब तक भू-जल स्तर की गिरावट को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया। वर्तमान में कई स्थानों पर अमृत सरोवर बनाए गए, लेकिन वह गिने-चुने स्थानों पर हैं। उस पर भी ठीक से काम नहीं हो रहा है, उसे गहरा करने की आवश् कता है, ऐसे सरोवर अपने खेत में होने चाहिए। ड्रेनेज की भी व्यवस्था होनी चाहिए। जलस्रोतों का जीर्णोद्धार होना जरूरी है।

तालाबों से अतिक्रमण भी हटना चाहिए। हर अपार्टमेंट व घर में रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस् म आवश् क किया जाए। कुओं व पुराने जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने के बाद ही जलस्तर बढ़ेगा। लोगों को जलस्रोतों को बचाने के लिए आगे आना पड़ेगा। स् ति काफी गंभीर हो रही है, आप ज तना पानी का दोहन भू-जल का कर रहे हैं, उतना आपको भू-जल को रिचार्ज भी करना होगा, मसलन उसमें भी आपको पानी फिर से पहुंचाना होगा, यानी वर्षा जल का संचयन करना होगा। ऐसा अगर नहीं हुआ तो अभी तो हजार फीट नीचे जलस्तर गया है भविष्य में और भी खतरनाक हालात होंगे। जरूरत है जलसंरक्षण को सख्ती से लागू करने की।

तालाबों का संरक्षण एवं संवर्धन के लिए क्या उपाय किए जाएं ?

तालाबों पर अतिक्रमण बंद करना होगा। तालाबों के आस-पास या तालाब रूपी गड्ढ़ों में भवन निर्माण बंद करना होगा। मूल जलस्त्रोतों को ही बंद कर देंगे तो पानी कहां से मिलेगा। सुधार करने की कोशिश हमें ही करना होगी। पानी के स्रोतों को बचाना होगा। यह स्रोत सार्वजनिक संपत्ति है, आम लोगों से लेकर अफसरों तक को इसके लिए जिम्मेदार बनाना होगा, सिर्फ कागजी खानापूर्ति से काम नहीं चलेगा। तालाबों की मिट्टी बहुत काम की होती है।

बाढ़ की तो काफी बात हो गई, सुखाड़ की स्थिति भी कई जगह होती है, इस पर आपके स्तर से क्या सुझाव हैं ?

नदी जोड़ों परियोजना एक कारगर कदम है। यह बाढ़ और सुखाड़ दोनों के लिए कारगर है। वास्तविक समय आंकड़ा संग्रहण प्रणाली का उपयोग करते हुए इसका आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए। संरचनात्मक एवं गैर संरचनात्मक उपायों के माध्यम से बाढ़ एवं सूखे जैसी जल संबंधी आपदाओं को रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। साथ ही प्राकृतिक जल निकास प्रणाली के पुनर्स्थापना पर भी जोर दिए जाने की आवश्यकता है। प्रकृति को कम नुकसान पहुंचाने के सारे उपायों को अपनाना चाहिए।

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