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Nagarjun: कलेजे के कवि, डा. संध्या सूफी बता रहीं कैसे नागार्जुन की कविता में झांकती थी मानवीय संवेदना

नागार्जुन मानवीय संवेदना और दायित्व के कवि थे। आम लोगों के जीवन के जितने आयाम हो सकते हैं उनके कर्मों संघर्षों और उत्सवों का जितना विराट् विषय क्षेत्र हो सकता है नागार्जुन का कविता संसार भी उतना ही विराट है।

By Rakesh RanjanEdited By: Updated: Thu, 01 Jul 2021 10:07 AM (IST)
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पं. वैद्यनाथ मिश्र उर्फ नागार्जुन की फाइल फोटो।

जमशेदपुर, जासं। हिंदी कविता को अभिजात्य संस्कारों से मुक्त कर भाषा एवं विषय दोनों स्तरों पर उसके जनवादी स्वरुप निर्माण में जिन रचनाकारों का योगदान रहा है उनमें कवि नागार्जुन अन्यतम हैं। पं. वैद्यनाथ मिश्र उर्फ नागार्जुन हिंदी, मैथिली, बांग्ला और संस्कृत के अप्रतिम रचनाकार थे। नागार्जुन ने कविता के साथ कहानी, उपन्यास व निबंध भी लिखा।

जमशेदपुर शहर की शिक्षाविद व हिंदी की व्याख्याता डा. संध्या सूफी कहती हैं कि नागार्जुन मानवीय संवेदना और दायित्व के कवि थे। आम लोगों के जीवन के जितने आयाम हो सकते हैं, उनके कर्मों, संघर्षों और उत्सवों का जितना विराट् विषय क्षेत्र हो सकता है, नागार्जुन का कविता संसार भी उतना ही विराट है। नागार्जुन का जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमा 1911 को ‘सतलखा’ ग्राम में हुआ था, जो इस बार 24 जून को पड़ा। नागार्जुन का बचपन मातृहीन रहा और फक्कड़ पिता के कंधों पर गांव–गांव, टोले-टोले बीता।

कई उपनाम से रची कृतियां

हिंदी में नागार्जुन का पदार्पण सन 1934 में लाहौर से प्रकाशित ‘विश्वबंधु’ पत्रिका में ‘राम के प्रति’ प्रथम हिंदी कविता द्वारा हुआ। वैद्यनाथ मिश्र से ‘वैदेह’ व ‘यात्री’ नामों से होते हुए नागार्जुन बने। ‘यात्री’ उपनाम मैथिली कविताओं के लिए सुरक्षित रहा। इनकी रचित मैथिली का प्रथम उपन्यास 1946 में ‘पारो’ नाम से और हिंदी में 1948 में ‘रतिनाथ की चाची’ आया। 1949 में 28 मैथिली कविताओं का संग्रह ‘चित्रा’ और कुछ ही वर्षों पश्चात् 1953 में ‘युगधारा’ हिंदी कविता संग्रह छपा। नागार्जुन ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचना की है। 1963 में ‘निराला : एक व्यक्ति एक युग’ का प्रकाशन हुआ। 1944 से 1958 तक में नागार्जुन ने बहुत संख्या में अनुवाद कार्य किया। सन 1954 ई० में मैथिली उपन्यास ‘नवतुरिया’ और ठीक पूर्व 1953 में हिंदी उपन्यास ‘नयी पौध’ छपी।

गद्य का भंडारा भी कहा गया

घूमते-घामते वे पटना, कानपुर, बनारस, भोपाल, दिल्ली, इलाहबाद और सैकड़ों शहरों में जाते और वहीं से जनसंवेदना के तत्व चुन-चुन कर लाते और एक से बढ़ कर एक रचनाएं प्रस्तुत करते। साहित्यिक जीवन की अविराम अत्यंत जीवंत और युगदृष्टि से संपन्न तेवर भरी रचना यात्रा की अंतिम कड़ी के रूप में ‘मिलिट्री का बुढा घोड़ा’ नाम से बंगला कविताओं के देवनागरी लिप्यांतर और हिंदी अनुवाद का एक संग्रह छपा। अपनी पूरी साहित्यिक यात्रा में नागार्जुन ने उपन्यास, निबंध, व्यक्तित्व-चित्रण, यात्रा-प्रसंग, कहानी, संस्मरण, साक्षात्कार आदि रचकर गद्य का भी भंडार भरा।  हिंदी कविता के पटल पर जनकवि के रूप में उभरे कवि नागार्जुन ने जीवनभर मानव-जीवन के विविध रूपों में, जटिल संघर्षों को, राजनीतिक विकृतियों, मजदूरों एवं मजदूर आन्दोलनों को, किसान जीवन के सामान्य दुख-सुख को पहचानने और अभिव्यक्त करने का वृहत्तर सर्जनात्मक कार्य किया।

सर्वहारा की पीड़ा, दुख-दर्द से उद्वेलित होते

नागार्जुन की कविताओं में जनपक्षीय चेतना- जनकवि नागार्जुन का काव्य-काल आजादी के लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व (1930) से प्रारम्भ होकर आजादी के पश्चात लगभग 40-45 वर्षों तक रहा। कवि नागार्जुन जनता की पीड़ा और उत्पीड़न में उद्वेलित होते हैं। नागार्जुन की जनपक्षीय चेतना के मुख्य सरोकार हैं दलित, उत्पीड़ित, मजदूर, किसान, नारी, बस, ट्रक के ड्राइवर, रिक्शावाले, मछुआरों के बच्चे, गांव का गरीब मास्टर, धान रोपती औरतें, विज्ञापन बालाएं, नारियां, युवतियां, आदिवासी, जेल के बंदी आदि के दुख दर्द, इनके सुख और इनका श्रम सौंदर्य, छोटी-छोटी खुशियां और प्रेम। अर्थात सर्वहाराओं का समूचा जीवन संसार। इसके साथ प्रकृति, पशु, पक्षी इत्यादि, यानि सम्पूर्ण मानव जीवन के समस्त आयाम। नागार्जुन ने सर्वहारा कविता की धारा को तीव्र कर दिया। उनमे मजदूर वर्ग की संघर्षशील चेतना समुन्नत रूप से प्रकट हुई है। पूंजीवादी चट्टानों से टकराती, भयंकर संघर्षों में तपती, मजदूर वर्ग की हिमायत करती हुई नागार्जुन की काव्य धारा जनवादी परंपराओं से आगे बढ़ी हुई है।

सधुक्कड़ी भाषा में करते थे रचना

नागार्जुन भारतीय किसानों की दुरावस्था से अत्यंत चिंतित होते हैं –

बीज नहीं है, बैल नहीं है, वर्षा बिन अकुलाते हैं,

नहर रेट बढ़ गया, खेत में पानी नहीं पटाते हैं।

उनके काव्य की भाषा सधुक्कड़ी ही मानी जाएगी। नागार्जुन अपनी कविताओं के माध्यम से सीधे सत्ता से टकराते हैं। वे ‘बुढ़ा शेर’, ‘डायन’, ‘तालाब की मछलियां’, ‘रानी मक्खी’, बाघिन’, ‘एक बंदरिया’ जैसे प्रतीकों का प्रयोग करते हैं। यह कहा जा सकता है कि कवि नागार्जुन की कविताओं में अपने युग का यथार्थ समाया है। कवि ने उनका ट्रीटमेंट जनपक्षधरता की धार से किया है। उनकी व्यंग्य भरी सारी रचना प्रासंगिक हैं, जो राजनीतिक भ्रष्टाचार और दांव-पेंच की पोल खोलती हैं। कवि नागार्जुन, कबीर, निराला और प्रेमचंद की परंपरा के कवि हैं, जिन्होंने जीवन भर जनता के लिए, उनकी भाषा और बोली में, उनकी संस्कृति की कविता लिखी। आम आदमी की पीड़ा, दुख, और त्रासदी के साथ इनकी संस्कृति, उल्लास और भविष्य इनकी कविताओ में व्याप्त हैं। इनकी रचना समाज और युग का दर्पण तो हैं ही, साथ ही भविष्य की दिग्दर्शक भी हैं।

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