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Jharkhand News: आदिवासी समाज की संस्कृति और कला की थाती सहेज रहीं प्रोफेसर मधुश्री, लोगों में जगा रही अलख

मधुश्री हातियाल जनजातीय संस्कृति के दीप को प्रज्वलित कर रही है। आरएएल कालेज की संगीत की प्रोफेसर मधुश्री ग्रामीण इलाकों के आदिवासी बच्चों के बीच जाकर परंपरा का अलख जगा रही है। वह सुदूर गांवों में आदिवासी बच्चों को सोहराय पेंटिंग और लोकगीत व नृत्य से परिचित करा रही हैं। साथ ही पंचतंत्र हितोपदेश और महापुरुषों की कहानियां भी सुनाती है।

By Pankaj Mishra Edited By: Shashank Shekhar Updated: Wed, 15 May 2024 06:07 PM (IST)
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Jharkhand News: आदिवासी समाज की संस्कृति और कला की थाती सहेज रहीं प्रोफेसर मधुश्री (फोटो- जागरण)

पंकज मिश्रा, चाकुलिया। समय की रेत पर इतिहास के पदचिह्न धुंधले पड़ते जाते हैं, पर कुछ कदम ऐसे होते हैं जो अमिट छाप छोड़ जाते हैं। आधुनिकता की चकाचौंध में जहां परंपराएं धुंधलाती जा रही हैं, वहां मधुश्री हातियाल एक अलख जगा रही हैं। एक ऐसी अलख जो जनजातीय संस्कृति के दीप को प्रज्वलित रखे हुए है। झारखंड, बंगाल और ओडिशा के सीमावर्ती क्षेत्र में बसे जनजातीय समाज की कला, संस्कृति और परंपराओं को सहेजने का बीड़ा उठाया है मधुश्री ने।

उनकी यह यात्रा न सिर्फ विलुप्त होती विरासत के संरक्षण की कहानी है, बल्कि महिला सशक्तीकरण और सामाजिक जागरूकता का भी एक प्रेरणादायक उदाहरण है। गांव की मिट्टी से जुड़ी यह कहानी बताती है कि कैसे एक महिला अपने समर्पण और दृढ़ संकल्प से समाज में बदलाव की बयार ला सकती है। मधुश्री सुदूर ग्रामीण इलाकों के सैकड़ों आदिवासी बच्चों के बीच परंपरा का अलख जगा रही है।

जनजातीय परंपरा का उजाला फैला रही मधुश्री

33 वर्षीय मधुश्री हातियाल झाड़ग्राम के आरएल खान महिला कालेज में संगीत की प्रोफेसर हैं। लेकिन उनका कर्मक्षेत्र आरएएल कालेज की चारदीवारी से कहीं आगे तक फैला हुआ है। सुदूर गांवों में, जहां पक्की सड़कें भी पहुंचने से कतराती हैं, वहां मधुश्री अपने कदमों से जनजातीय परंपरा का उजाला फैलाती हैं।

वृक्षों की छांव तले, मिट्टी की सुगंध में, वे ग्रामीण बच्चों के बीच बैठकर उन्हें उनकी विरासत से परिचित कराती हैं। पंचतंत्र, हितोपदेश और महापुरुषों की कहानियों के माध्यम से बच्चों के मन में नैतिक मूल्यों का बीजारोपण करती हैं, उन्हें सिखाती हैं कि जीवन की राह पर कैसे चलना है, कैसे सही और गलत का फैसला करना है।

परंपरा को उकेर रही सोहराय की हर रेखा

सोहराय पेंटिंग की बारीकियों से बच्चों को अवगत कराती हैं मधुश्री। उनके साथ मिलकर मिट्टी की दीवारों पर कलाकृतियों का सृजन करती हैं, हर रंग में एक कहानी बुनती हैं, हर रेखा में एक परंपरा को उकेरती हैं। बच्चे उनके साथ हंसते हैं, खेलते हैं, सीखते हैं और अपनी विरासत को करीब से जानते हैं।

चलता-फिरता पुस्तकालय हैं मधुश्री 

मधुश्री का प्रयास सिर्फ बच्चों तक सीमित नहीं है। वे ग्रामीणों को झूमर गीत, मनसा मंगल और बाउल संगीत की विशेषताओं से अवगत कराती हैं। इन लोक कलाओं की महत्ता को समझाती हैं और उन्हें जीवंत रखने का संदेश देती हैं।

कला और संस्कृति की शिक्षा को घर-घर तक पहुंचाने के लिए मधुश्री एक चलता-फिरता पुस्तकालय भी चलाती हैं, क्योंकि उनका मानना है कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है, और किताबें उस ज्ञान का सबसे अच्छा माध्यम हैं। मधुश्री के समाज के लिए योगदान को देखते हुए बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने वर्ष 2021 में उन्हें सम्मानित भी किया।

विरासत से मिली परंपरा सहेजने की प्रेरणा 

मधुश्री की इस प्रेरणा के मूल में है उनका पारिवारिक परिवेश। बहरागोड़ा प्रखंड के जयपुर गांव की रहने वाली मधुश्री के पिता सुनीती हातियाल स्वयं एक शिक्षक थे और बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ जनजातीय कला और संस्कृति से भी परिचित कराते थे। उनके दादा शरत चंद्र हातियाल लेखक और साहित्यकार थे। इस साहित्यिक और सांस्कृतिक माहौल में पली-बढ़ी मधुश्री का जनजातीय परंपराओं के प्रति लगाव स्वाभाविक ही था।

वैवाहिक गीतों का संस्कार गीत पर शोध

मधुश्री हातियाल सिर्फ एक संरक्षक ही नहीं, बल्कि एक सृजनहार भी हैं। उनके द्वारा रचित 20 क्षेत्रीय वैवाहिक गीतों को भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 'संस्कार गीत' के नाम से शोध के लिए संरक्षित किया है। छऊ नृत्य पर उनकी लिखी पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। उनके द्वारा बनाए गए झुमुर और मनसा मंगल गीत पर आधारित दो वृत्तचित्र भी राष्ट्रीय संग्रहालय में संरक्षित हैं। उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति न सिर्फ परंपराओं को सहेजती है, बल्कि उन्हें एक नया आयाम भी देती है।

मधुश्री का मानना है कि जनजातीय परंपरा, कला और संस्कृति के संरक्षण की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं, बल्कि समाज के हर व्यक्ति की है। उनके शब्द और कर्म युवा पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा हैं, एक आह्वान हैं कि हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें, अपनी विरासत को सहेजें और उसे भावी पीढ़ियों तक पहुंचाएं। क्योंकि जब तक झूमर गाती रहेगी, कला मुस्कुराती रहेगी, और हमारी संस्कृति जीवंत रहेगी।

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