Move to Jagran APP

झारखंड की यह नदी आज भी उगलती है सोना, 200-400 रु में बेचते हैं ग्रामीण, जमीन के नीचे 99 लाख टन स्‍वर्ण भंडार

जमशेदपुर की जीवनरेखा स्वर्णरेखा नदी आज भी सोना उगल रही है। इसके चलते दलमा पहाड़ी से सटे दर्जनों गांवों से रोज ग्रामीण 20 से 40 किलोमीटर की दूरी तय कर नदी किनारे पहुंचते हैं और सोना निकालने के काम में लग जाते हैं। इसके बाद वे महज 200 से 400 रुपये में व्‍यापारियों को इन्‍हें बेच देते हैं और इसी से उनकी रोजी रोटी चलती है।

By Jagran NewsEdited By: Arijita SenUpdated: Wed, 19 Jul 2023 09:09 AM (IST)
Hero Image
स्वर्णरेखा नदी से सोना निकालने वाले सोहन।
मनोज सिंह, जमशेदपुर। जमशेदपुर की जीवनरेखा स्वर्णरेखा नदी के नाम से ही पता चलता है कि इसके गर्भ में सोना छिपा है। स्वर्णरेखा वर्षों से कई गांव के दर्जनों लोगों की आजीविका का माध्यम बना हुआ है। वर्षाें से इस नदी के बालू से सोना निकाला जा रहा है, जो आज भी जारी है।

इस वजह से स्‍वर्णरेखा में पाए जाते हैं सोने के कण

भू-वैज्ञानिक सह भूतत्व विभाग के सहायक निदेशक, पूर्वी सिंहभूम करुण चंदन ने बताया कि स्वर्णरेखा नदी कई चट्टानों से होकर जंगल व पहाड़ों के बीच से गुजरती है। पानी के घर्षण से चट्टानों में पाए जाने वाले सोने के कण निकलते हैं और बालू के साथ मिलकर नदी में समा जाते हैं।

इस नदी में सोने की उपलब्धता का बड़ा कारण ब्रिटिश काल से ही सरायकेला-खरसावां जिले के चांडिल से सटे रूदिया गांव में भारी मात्रा में सोने का भंडार होना है।

इसके अलावा स्वर्णरेखा नदी के किनारे बसे तमाड़ के परासी गांव में लगभग 70 हेक्टेयर में 99 लाख टन स्वर्ण भंडार है। इसकी खोज जियोलाॅजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने की थी। इसके बाद एमइसीएल (मिनरल एक्सप्लोरेशन कारपोरेशन लिमिटेड) ने जी-टू व जी-थ्री स्तर पर खनिज भंडार का आकलन किया था।

दर्जनों गांव के लोगों की रोजी-रोटी का बना साधन बना सोना

दलमा के किनारे बसे चलियामा निवासी सोहन ने बताया कि वह बीते 12 साल से अपने साथियों के साथ स्वर्णरेखा नदी में आकर विशेष प्रकार की लकड़ी का डोंगा (पीढ़े की तरह) के सहारे बालू निकालकर उसमें से सोना निकालते हैं। सोहन कहते हैं कि गांव में रोजी-रोजगार नहीं है, जिसके कारण वह अपने साथियों के साथ साइकिल से प्रतिदिन सुबह आठ बजे आते हैं और दोपहर तीन बजे तक सोना निकाल कर अपने गांव लौट जाते हैं। 

सोहन जैसे अन्य लोग भी चलियामा, बांधडीह, फरेंगा, बनकाटी गांव से 20 से 40 किमी की दूरी साइकिल से तय कर स्वर्णरेखा नदी पहुंचते हैं। सोहन के साथी छोटू कहते हैं कि इस इलाके के दर्जनों आदिवासी परिवार की जिंदगी नदी के सोने से ही कट रही है।

करीब छह घंटे तक नदी से एक विशेष प्रकार के लकड़ी के डोंगा से बालू को पानी के अंदर छानते हुए निकालते हैं। उसके अंदर एक कपड़ा लगा होता है। चूंकि बालू से सोना भारी होता है, इसलिए पानी के अंदर ही बालू को बहा दिया जाता है। इसके बाद बचे हुए कण को ऊपर लाया जाता है, जिसका कुछ कण कपड़ा में चिपक जाता है। दिन भर यही काम करते हैं, इसके बाद कुछ सोने का टुकड़ा हाथ लगता है।

200 से 400 रुपये में बेच देते सोना

सोहन कहते हैं कि कुछ न कुछ सोना प्रतिदिन निकल जाता है, किसी दिन नहीं भी निकलता है। सोहन कहते हैं कि सोने के टुकड़े को वह आकार के हिसाब से बेचते हैं। व्यापारी उन्हें 200 से 400 रुपये देते हैं, इसी से वह अपने परिवार चलाते हैं। बच्चे को स्कूल भी भेजते हैं।

नगड़ी गांव के रानी चुआं निकलती है स्वर्णरेखा

स्वर्णरेखा नदी झारखंड की राजधानी रांची से 16 किमी दूर नगड़ी गांव के रानीचुआं नामक स्थान से निकलती है। रांची से चांडिल, जमशेदपुर, घाटशिला, गाेपीवल्लभपुर, जलेश्वर होते हुए यह नदी बहती हुई 474 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए ओडिशा के बालेश्वर में बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह नदी झारखंड से निकलकर पश्चिम बंगाल होते हुए ओडिशा तक बहती है।

आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।