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मुंडा जाति में व्याप्त निराशा, असंतोष व कुंठा का समृद्ध विस्फोट था डोंबारी का रक्त क्रांति

इतिहास में जिस प्रकार जालियांवाला बाग गोलीकांड का महत्व है कुछ उसी प्रकार मुंडा जाति के इतिहास में डोंबारी सईल रकब गोलीकांड का महत्व है।

By JagranEdited By: Updated: Sat, 08 Jan 2022 07:22 PM (IST)
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मुंडा जाति में व्याप्त निराशा, असंतोष व कुंठा का समृद्ध विस्फोट था डोंबारी का रक्त क्रांति

खूंटी : इतिहास में जिस प्रकार जालियांवाला बाग गोलीकांड का महत्व है, कुछ उसी प्रकार मुंडा जाति के इतिहास में डोंबारी सईल रकब गोलीकांड का महत्व है। जालियावाला बाग की घटना से 20 वर्ष पूर्व घटी घटना में सैकड़ों आदिवासियों को अंग्रेज सिपाहियों ने चारों ओर से घेरकर भून दिया था। खूंटी जिले के मुरहू प्रखंड क्षेत्र के सईल रकब, डोंबारी बुरू में आज से 122 साल पहले नौ जनवरी 1900 को अंग्रेजों ने निर्दोष लोगों को चारों तरफ से घेर कर गोलियों से भून दिया था। अपने धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए अंग्रेज शासकों व विदेशी पादरियों के विरुद्ध संघर्षरत बिरसा के संघर्ष की चरम की परिणति नौ जनवरी 1900 को हुई, जब डोंबारी सईल रकाब पर अपने समर्थकों के साथ बैठक कर रहे बिरसा व उसके समर्थकों पर अंग्रेज शासकों द्वारा भीषण गोलीकांड को अंजाम दिया गया। इस गोलीकांड में सैकड़ों आदिवासी महिला-पुरुष शहीद हो गए थे। डोंबारी सईल रकाब पहाड़ के इस खूनी युद्ध में मुंडा जनजाति के इतिहास को एक झटके में ही निर्णायक मोड़ दिया। मुंडाओं के उबाल पर करीब से नजर रखने के लिए डोंबारी गोलीकांड के चार साल बाद 1905 को खूंटी को सब डिवीजन बनाया गया। इसके बाद वर्ष 1908 में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बना जिसमें आदिवासियों की भूमि संरक्षण के निमित्त विशेष अधिकार प्रदत्त हैं। आजादी के बाद भारतीय संविधान में जनजातियों के लिए जो विशेष अधिकार प्रदत्त हैं उसकी प्रेरक भी यही घटना रही होगी।

सुरक्षित निकलने में सफल रहे थे बिरसा मुंडा

स्थानीय जानकार बताते हैं कि डोंबारी बुरू में भगवान बिरसा मुंडा अपने 12 अनुयाइयों को लेकर ग्रामीणों के साथ सभा कर रहे थे। सभा में गुटुहातू, डिगरी, डोंबारी, उलिहातू सहित आसपास के दर्जनों गांव के हजारों महिला, पुरुष व बच्चे शामिल थे। बिरसा मुंडा अंग्रेजों के खिलाफ अपने समर्थकों के साथ धर्म युद्ध की रणनीति बना रहे थे। लोगों में उलगुलान का बिगुल फूंक रहे थे। दरअसल, धरती आबा ने धर्म युद्ध के लिए सभी ग्रामीणों को आमंत्रित किया था, लेकिन इसकी सूचना कुछ गद्दारों ने अग्रेजों को दे दी। सूचना मिलते ही तत्कालीन कमिश्नर फोरबेस और उपायुक्त स्ट्रीटफील्ड रांची से घुड़सवार सैनिकों को लेकर डोंबारी पहाड़ पहुंचे और बिरसा मुंडा के सैनिकों से हथियार डालने को कहा, पर बिरसा मुंडा के वीरों ने हथियार डालने के बदले संघर्ष करना उचित समझा और अंग्रेजों के खिलाफ आखिरी दम तक संघर्ष किया। इस गोलीकांड में सैकड़ों निर्दोष बच्चे, महिला और पुरुष शहीद हो गए। हालांकि, बिरसा मुंडा को पकड़ने गए अंग्रेज सैनिक तब बिरसा को नहीं पकड़ सके थे। अंग्रेजों के साथ हुए इस खूनी युद्ध से बिरसा सुरक्षित निकलने में सफल हो गए थे।

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गुमनाम शहीदों को आज दी जाएगी श्रद्धांजलि

खूंटी जिले के मुरहू प्रखंड अंतर्गत डोंबारी बुरू में की गई पत्थलगड़ी में मात्र छह लोगों का ही नाम दर्ज है। इनमें गुटुहातु के हाथीराम मुंडा, हाड़ी मुंडा, बरटोली के सिगराय मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी और डुंडंग मुंडा की पत्नी शामिल हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि उस संघर्ष में लगभग 400 लोग मारे गए थे। लोग डोंबारी बुरू को झारखंड का जालियांबाला बाग कहते हैं। 122 वर्ष पूर्व हुए इस भीषण गोलीकांड की याद में हर वर्ष नौ जनवरी को मुरहू प्रखंड के डोंबारी पहाड़ पर अन्य गुमनाम शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है। विभिन्न राजनीति दलों के नेताओं, स्थानीय लोगों के अलावा जिला प्रशासन के अधिकारी भी डोंबारी बुरू के शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने वहां पहुंचते हैं। शहीदों की याद में डोंबारी मे हर साल नौ जनवरी को शहीद मेला का आयोजन किया जाता है। शहीदों की याद में रविवार को खूंटी के डोंबारी बुरू स्थित शहीद स्थल पर कृतज्ञता जताने पहुंचेंगे।

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अपना अस्तित्व खोते जा रहा डोंबारी बुरू का स्मारक

फोटो : 3

राज्यसभा सदस्य रहे अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद, समाजशास्त्री, आदिवासी बुद्धिजीवी व साहित्यकार स्वर्गीय डा. रामदयाल मुंडा ने डोंबारी बुरू में एक स्तंभ का निर्माण कराया था। यह स्तंभ आज भी सैकड़ों लोगों के शहादत की कहानी बयां करती है। वर्ष 1986-87 में बनाए गए विशाल स्तंभ उलगुलान के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए विकास की बाट जोह रहा है। स्तंभ की सीढ़ी व फर्स पर लगे पत्थर टूट चुके हैं। सीढि़यों के किनारे बनाई गई रेलिग भी कई जगह टूट चुकी है। सैकड़ों लोगों के शहादत की कहानी बयां करने वाला यह ऐतिहासिक स्तंभ अब अपना अस्तित्व धीरे-धीरे खोता जा रहा है। इसे अब किसी तारणहार का इंतजार है, जो झारखंड की धरती पर शुरू हुए आजादी के उलगुलान के गवाह को संवार कर भावी पीढ़ी के लिए सजाकर रखेगा। वैसे भी झारखंड क्षेत्र में हुए ऐतिहासिक उलगुलान को इतिहास में पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाया है। झारखंड के बच्चे अपने ही इतिहास से बेखबर हैं। झारखंड में हुए संघर्ष की गाथा इतिहास में दर्ज कर स्कूली बच्चों को पढ़ाया जाना चाहिए। डोंबारी बुरू हमें विरोधी ताकतों के खिलाफ संघर्ष करने की सीख दे रही है। डोंबारी बुरू में एक वृहद लाइब्रेरी बनना चाहिए, जहां लोगों को झारखंडी इतिहास की जानकारी मिल सके। डोंबारी बुरू को संवारने के लिए गांव के विशु मुंडा ने डोंबारी बुरू के नीचे 80 डिसमिल जमीन 1990 में दान में दी। उस समय उसे जमीन के बदले मुआवजा और नौकरी देने की बात कही गई थी। विशु मंडा बताते हैं कि उन्हें आज तक ना मुआवजा मिला और ना नौकरी। उन्होंने कहा कि सरकार को इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर राज्य के भावी पीढ़ी के लिए ज्ञानवर्धक स्थल का रूप देना चाहिए।