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25 वर्ष की आयु में शहीद तेलंगा खड़िया ने अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ा था जंग

देश की आजादी की लड़ाई में झारखंड के कई योद्धाओं ने अपनी अहम भूमिका निभाई है। उसी में एक हें शहीद तेलंगा खड़िया।

By JagranEdited By: Updated: Sat, 08 Feb 2020 08:50 PM (IST)
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25 वर्ष की आयु में शहीद तेलंगा खड़िया ने अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ा था जंग

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जागरण संवाददाता, रांची : देश की आजादी की लड़ाई में झारखंड के कई योद्धाओं ने अपना अहम योगदान दिया था। इसमें कुछ ऐसे है जो आज भी गुमनाम हैं। ऐसे ही एक वीर हैं गुमला के शहीद तेलंगा खड़िया। उनकी वीरता की गाथा आज भी खड़िया लोकगीतों में गाई जाती है। जमीनदारों और अंग्रेजों से ऐसा लोहा शायद ही इतिहास में किसी ने लिया होगा। मगर उनकी कुरबानी केवल चंद लोगों की जुबान पर है। तेलंगा खडि़या का जन्म नौ फरवरी 1806 को गुमला के मुरगू गाव में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम ठुइया खड़िया व पेतो खड़िया था। वो बचपन से वीर और साहसिक थे।

शहीद तेलंगा खड़िया के माता-पिता उन्हें बचपन से अंग्रेजों के जुल्म की कहानी सुनाते थे इसलिए वो अंग्रेजों को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। यही कारण है कि मात्र 25-26 वर्ष की उम्र में उन्होंने खुलकर अंग्रेजी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया था। 40 वर्ष की आयु में उनकी शादी रतनी खड़िया से हुई। तेलंगा का एक पुत्र जोगिया खड़िया हुआ। इस दौरान अंग्रेजों का जुल्म बढ़ गया था। तेलंगा ने अंग्रेजों के खिलाफ आदोलन की बिगुल फूंक दिया। तेलंगा गाव-गाव में घूमकर लोगों को एकजुट करने लगे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी। उन्होंने कई पंचायतों की स्थापना की। इसे देखते हुए पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करके कोलकाता भेज दिया। वो काफी दिनों तक जेल में रहे। उसके बाद वो वहां से अपने गांव आए।

----- गांव आने के बाद उन्होंने फिर से अंग्रेजों और जमीनदारों के खिलाफ अपनी लड़ाई छेड़ दी। इसी दौरान 23 अप्रैल 1880 को अंग्रेजों के एक वफादार जमीनदार ने उन्हें गोली मार दी जिससे उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी याद में आज भी तेलंगा समाज में तेलंगा संवत की प्रथा है। गुमला से तीन किमी दूर चंदाली में उनकी समाधि स्थल बनायी गयी है। वो भी पूरी तरह से उपेक्षित है। वहीं पैतृक गाव मुरगू में उनकी एक मात्र प्रतिमा स्थापित की गयी है। तेलंगा के वंशज आज भी मुरगू से कुछ दूरी पर स्थित घाघरा गाव में रहते हैं। खड़िया जाति के लोग अपने आपको तेलंगा के वंशज मानते हैं और तेलंगा को ईश्वर की तरह पूजते हैं। मगर सरकार की ओर से शहीद को अभी तक जो सम्मान मिलना चाहिए वह नहीं मिला है।

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छात्रावास बनाने की मांग

अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ने वाले शहीद तेलंगा खड़िया के नाम पर आज भी खड़िया समुदाय के लोग एक भव्य छात्रावास बनाने की माग कर रहे हैं। मगर वो चुनावी वादों में लटका हुआ है। वहीं तेलंगा के वंशज जो घाघरा गाव में निवास करते हैं, उनकी हालत काफी खराब है। सरकार से उन्हें घर का वादा तो मिला लेकिन पूरा नही हुआ। उनके घरों में शौचालय नहीं है। उनके पूरे परिवार को शुद्ध पीने के पानी के लिए तरसना पड़ता है।

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युद्ध नीति के सभी थे कायल

तेलंगा खड़िया युवाओं को स्वस्थ और स्वाभिमानी बनाना चाहते थे। इसके लिए वो सुबह सरना का सफेद झंडा लगाकर लड़कों के साथ प्रार्थना करते थे। इसके बाद युद्ध कला का अभ्यास किया जाता था, फिर राज्य में अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों पर चर्चा होती थी। ये बातें ठीक आरएसएस की शाखा की जैसी हैं। मगर ये सब आरएसएस की स्थापना के 50 साल पहले से किया जा रहा था।

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शोध और किताबों के प्रकाशन से तेलंगा की गाथा बताएंगे

डॉ. रामदयाल शोध संस्थान के निदेशक रनेंद्र कुमार का कहना है कि भगवान बिरसा मुंडा की तरह शहीद तेलंगा खड़िया ने भी जमीनदारों और अंग्रेजों का मुकाबला किया। मगर उनकी गाथा लोगों के सामने नहीं आने का सबसे बड़ा कारण, उस स्थान में लोगों का पढ़ा लिखा कम होना है। इसके साथ ही कुछ राजनीतिक कारणों से भी शहीद को उनका सही सम्मान नहीं मिला। रांची में आज उनके नाम पर एक चौराहा लोवाडीह से आगे टाटा मार्ग पर है। मगर वो चौराहा भी तीन लोगों के नाम पर है। शोध संस्थान जल्द ही उनके जीवन पर शोध करेगी। इसके साथ एक किताब उपर अभी कुछ महीने में आनी वाली है।

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