इधर, सरदार आंदोलन भी चल रहा था जो सरकार और मिशनरियों के खिलाफ भी था। सरदारों के कहने पर ही मिशन स्कूल से बिरसा मुंडा को हटा दिया गया। 1890 में बिरसा और उसके परिवार ने भी चाईबासा छोड़ दिया और जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी।
जब रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार किया...
जर्मन मिशन त्यागकर रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार किया। बाद में इस धर्म से भी अरुचि हो गई। 1891 में बंदगांव के आनंद पांड़ के संपर्क में आए। आनंद स्वांसी जाति के थे और गैरमुंडा जमींदार जगमोहन सिंह के यहां मुंशी का काम करते थे। आनंद रामायण-महाभारत के अच्छे ज्ञाता थे। इससे उनका प्रभाव भी था।बिरसा का अधिकतर समय आनंद पांड़ या उनके भाई सुखनाथ पांड़ के साथ व्यतीत होता था। इधर, पोड़ाहाट में सरकार ने सुरक्षित वन घोषित कर दिया था, जिसको लेकर आदिवासियों में काफी आक्रोश था और लोग सरकार के खिलाफ आंदोलन करने लगे।
जब खुद को बताया ‘धरती आबा’
आंदोलन की गति धीमी थी और बिरसा भी इस आंदोलन में भाग लेने लगे थे। सरदार आंदोलन में भाग लेने को ले आनंद पांड़ ने समझाया लेकिन बिरसा ने आंनद की बात नहीं सुनी। आगे चलकर, बिरसा भी इस आंदोलन में कूद गए। बिरसा ने एक दिन घोषणा की कि वह पृथ्वी पिता यानी ‘धरती आबा’ है। उनके अनुयायियों ने भी इसी रूप को माना।एक दिन उनकी मां प्रवचन सुन रही थी। मां ने उसे बिरसा बेटा कहकर पुकारा। बिरसा ने कहा, वह ‘धरती आबा’ है और अब उसे इसी रूप में संबोधित किया जाना चाहिए। जब ब्रिटिश सत्ता ने 1895 में पहली बार बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया तो धार्मिक गुरु के रूप में मुंडा समाज में स्थापित हो चुके थे। दो साल बाद जब रिहा हुए तो अपने धर्म को मुंडाओं के समक्ष रखना शुरू।
आगे चलकर धार्मिक सुधार का यह आंदोलन भूमि संबंधी राजनीतिक आंदोलन में बदल गया। छह अगस्त 1895 को चैकीदारों ने तमाड़ थाने में यह सूचना दी कि ‘बिरसा नामक मुंडा ने इस बात की घोषणा की है कि सरकार के राज्य का अंत हो गया है।’ इस घोषणा को अंग्रेज सरकार ने हल्के में नहीं लिया। वह बिरसा को लेकर गंभीर हो गई।
जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान
बिरसा मुंडा ने मुंडाओं को जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन 1895 से लेकर 1900 तक चला। इसमें भी 1899 दिसंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर जनवरी के अंत तक काफी तीव्र रहा। पहली गिरफ्तारी अगस्त 1895 में बंदगांव से हुई।
इस गिरफ्तारी के पीछे कोई आंदोलन नहीं था, बल्कि प्रवचन के दौरान उमड़ने वाली भीड़ थी। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि इलाके में किसी प्रकार की भीड़ एकत्रित हो, चाहे वह प्रवचन के नाम पर ही क्यों न हो। अंग्रेजी सरकार ने बहुत चालाकी से बिरसा को रात में पकड़ लिया, जब वह सोए थे। बिरसा जेल भेज दिए गए। बिरसा और उनके साथियों को दो साल की सजा हुई।
जब जेल से किया गया रिहा...
बिरसा को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 30 नवंबर 1897 को उसे जेल से रिहा कर दिया गया। उसे पुलिस चलकद लेकर आई और चेतावनी दी कि वह पुरानी हरकत नहीं करेगा। बिरसा ने भी वादा किया कि वह किसी तरह का आंदोलन नहीं करेगा, लेकिन अनुयायियों और मुंडाओं की स्थिति देखकर बिरसा अपने वचन पर कायम नहीं रह सके।एक नए आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई। सरदार आंदोलन भी जो अब सुस्त हो गया था, उसके आंदोलनकारी भी बिरसा के साथ हो लिए। बिरसा ने पैतृक स्थानों की यात्राएं कीं, जिसमें चुटिया मंदिर और जगन्नाथ मंदिर भी शामिल था। गुप्त बैठकों का दौर भी शुरू हो गया। रणनीतियां बनने लगीं। बसिया, कोलेबिरा, लोहरदगा, बानो, कर्रा, खूंटी, तमाड़, बुंडू, सोनाहातू और सिंहभूम का पोड़ाहाट का इलाका अंगड़ाई लेने लगा।
ईसाई पादरियों पर जमकर प्रहार
बिरसा ईसाई पादरियों पर जमकर प्रहार करते। इस भाषण से यह बात जाहिर होती है कि पादरी आदिवासियों के बीच किस तरह का अंधविश्वास फैला रहे थे। बिरसा का प्रभाव उसके समुदाय पर पड़ रहा था और यह परिवर्तन उन्हें एकजुट कर रहा था। यह सब करते हुए 1898 बीत गया। भीतर-भीतर जंगल सुलग रहे थे।पुलिस भी बिरसा और उनके अनुयायियों पर नजर रखे हुए थी। पल-पल की खबर के लिए उसने कई गुप्तचर छोड़ रखे थे। चैकीदारों का काम भी यही था। फिर भी बिरसा चकमा दे जाते। कब कहां किस पहाड़ी पर बैठक होनी है, यह बहुत गुप्त रखा जाता।
अबुआ दिशुम, अबुआ राज
जमींदारों और पुलिस का अत्याचार भी बढ़ता जा रहा था। मुंडाओं का विचार था कि आदर्श भूमि व्यवस्था तभी संभव है, जब यूरोपियन अफसर और मिशनरी के लोग पूरी तरह से हट जाएं। इसलिए, एक नया नारा गढ़ा गया-‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ जिसका मतलब है कि अपना देश-अपना राज।बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों के लिए सबसे बड़े दुश्मन चर्च, मिशनरी और जमींदार थे। जमींदारों को भी कंपनी ने ही खड़ा किया था। इसलिए, जब अंतिम युद्ध की तैयारी शुरू हुई तो सबसे पहले निशाना चर्च को ही बनाया गया। इसके लिए क्रिसमस की पूर्व संध्या को हमले के लिए चुना गया।
24 दिसंबर 1899 से लेकर बिरसा की गिरफ्तारी तक रांची, खूंटी, सिंहभूम का पूरा इलाका ही विद्रोह से दहक उठा था। इसका केंद्र खूंटी था। इस विद्रोह का उद्देश्य भी चर्च को धमकाना था कि वह लोगों को बरगलाना छोड़ दे, लेकिन वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे। इसलिए पहले पहल 24 दिसंबर 1899 की संध्या चक्रधरपुर, खूंटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़ और गुमला का बसिया थाना क्षेत्रों में चर्च पर हमले किए गए।
तीर बरसाए गए। बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू में वहां के गिरजाघर पर भी तीर चलाए गए। सरवदा चर्च के गोदाम में आग लगा दी गई। इसके बाद चर्च से बाहर निकले फादर हाफमैन व उनके एक साथी पर तीरों से बारिश की गई। हाफमैन तो बच गए, लेकिन उनका साथी तीर से घायल हो गया। 24 दिसंबर की इस घटना से ब्रिटिश सरकार सकते में आ गई। इसके लिए धर-पकड़ शुरू हुआ।
पुलिस और विद्रोहियों के बीच युद्ध
पुलिस को खबर मिली की नौ जनवरी को सइल रकब पर मुंडाओं की एक बड़ी बैठक होने वाली है। पुलिस दल-बल के साथ यहां पहुंची। पहाड़ी करीब तीन सौ फीट ऊंची थी। उसके ऊपर बैठक हो रही थी। यहां पुलिस और विद्रोहियों के बीच जमकर युद्ध हुआ, लेकिन बिरसा मुंडा यहां नहीं मिले। वे पहले ही यहां से निकल गए थे और अयूबहातू पहुंच गए थे।
यहां भी जब पुलिस पहुंची तो वे यहां भी अपना हुलिया बदलकर निकल गए थे। बिरसा के हाथ न आने से पुलिस बौखलाई हुई थी। अब पुलिस ने लालच की तरकीब निकाली और बिरसा का पता देने वालों को इनाम की घोषणा की। यह उक्ति काम कर गई। वे पोड़ाहाट के जंगलों में अपना स्थान बदलते रहते।मानमारू और जरीकेल के सात आदमी इनाम के लोभवश बिरसा को खोज रहे थे। 3 फरवरी को उन्होंने देखा कि कुछ दूर पर सेंतरा के पश्चिमी जंगल के काफी अंदर धुआं उठ रहा है। वे यहां चुपके से रेंगते हुए पहुंचे और बिरसा को यहां देखा तो खुशी का ठिकाना रहीं रहा। जब सभी खा-पीकर सो गए तो इन लोगों ने मौका देखकर सभी को दबोच लिया और बंदगांव में डिप्टी कमिश्नर को सुपुर्द कर दिया।
आदिवासियों ने दिया भगवान का दर्जा
इन लोगों को पांच सौ रुपये का नकद इनाम मिला। बिरसा को वहां से रांची जेल भेजा गया। यहीं रांची जेल में नौ जून 1900 को हैजा के कारण बिरसा ने अंतिम सांसे ली और आनन-फानन में कोकर पास डिस्टिलरी पुल के निकट उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। इस तरह एक युग का अंत हुआ। जाते-जाते बिरसा मुंडा ने लोगों के जीवन पर ऐसी छाप छोड़ी कि आदिवासियों ने उन्हें भगवान का दर्जा दे दिया।
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