Birsa Munda Punyatithi: बिरसा मुंडा का नाम सुन कर कांप जाती थी अंग्रेजों की रूह
देखो अंग्रेज सिपाही आ गए हैं। बिरसा के अनुयायी भी आ गए हैं। देखो उन्होंने गोलियां चलाईं। अंग्रेज सिपाही भागे। उलिहातू से लेकर डोम्बारी बुरू और सईल रकब की पहाड़ियों तक में यह गीत आज भी गूंज रहा। न केवल गीत बल्कि वह संघर्ष भी जारी है..जल जंगल जमीन का।
By Vikram GiriEdited By: Updated: Wed, 09 Jun 2021 09:21 AM (IST)
रांची, जासं । देखो अंग्रेज सिपाही आ गए हैं। बिरसा के अनुयायी भी आ गए हैं। देखो उन्होंने गोलियां चलाईं। अंग्रेज सिपाही भागे। उलिहातू से लेकर डोम्बारी बुरू और सईल रकब की पहाड़ियों तक में यह गीत आज भी गूंज रहा है। न केवल गीत, बल्कि वह संघर्ष भी जारी है..जल, जंगल, जमीन का। 117 साल बाद भी। यह बताने की जरूरत नहीं, आज ही के दिन बिरसा मुंडा ने आखिरी सांस ली थी। वह तारीख थी नौ जून, 1900। कभी न अस्त होने वाले सूर्य का दंभ भरने वाली अंग्रेजी राजसत्ता महज 25 साल के इस युवक से इतना घबरा गई कि उसने रातों रात डिस्टिलरी पुल के पास उसका दाह संस्कार कर दिया। उसने उजाले तक भी सब्र करना उचित नहीं समझा और न ही परिवार वालों को खबर देना। जेल में बिरसा को अंग्रेजी सत्ता ने बीमार कर दिया और इस बीमारी से लड़ते हुए बिरसा शहीद हो गए, लेकिन लड़ाई कभी खत्म नहीं हुई।
इतिहास बताता है कि 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा ने एक अक्टूबर 1894 को सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आंदोलन छेड़ दिया। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। हड़िया का नशा मत करो. जीव जंतु, जल, जंगल, जमीन की सेवा करो..समाज पर मुसीबत आने वाली है, संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ..काले गोरे सभी दुश्मनों की पहचान कर उनका मुकाबला करो..। छोटी सी उम्र में पहाड़ सा संकल्प लेकर आगे बढ़े। युवाओं को संगठित किया। नशे से दूर रहने का संकल्प और अपने दुश्मनों की सही पहचान की। नया धर्म बिरसाइत चलाया, जिसके अनुयायी आज भी हैं।
उस समय भी, उनके जादुई नेतृत्व के मुरीद सभी थे। उलिहातु से लेकर चाईबासा तक। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई में जंगल सुलगने लगे थे। पहाड़ों पर बैठकों का दौर शुरू था। जंगल की आग नगरों तक फैली और उलगुलान शुरू हो गया। बिरसा के पास कोई आधुनिक हथियार नहीं थे। बस, तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियार थे। कई तो गुलेल से भी लड़ रहे थे। इन्हीं हथियारों से वह दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी सत्ता से लोहा ले रहे थे। इस युद्ध में वीरता के साथ बिरसा के साथी भी शहीद हुए, लेकिन उनकी कुर्बानियां बेकार नहीं गईं। अंग्रेजों को अंतत: सीएनटी एक्ट बनाना पड़ा।
अंग्रेजों को लोहे के चने चबवाए थे बिरसा मुंडा नेनौ जून यानी बुधवार को बिरसा मुंडा झारखंड के भगवान बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि मनाई जा रही है। बिरसा मुंडा को नौ जून 1900 को रांची के जेल मोड़ स्थित कारागार में शहीद हुए थे। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1897 से 1900 के बीच मुंडा समाज के लोग अंग्रेजों से लोहा लेते रहे थे। बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए थे। अगस्त 1897 में बिरसा और उनके सिपाहियों ने तीर कमान से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोल दिया था। 18 98 में मुंडा और अंग्रेज सेनाओं में युद्ध हुआ था। इसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गई। इस युद्ध में अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी। इसके बाद खिसियाए हुए अंग्रेजों ने आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू कर दीं। जनवरी 1900 में डोमबारी पहाड़ी पर एक और झड़प हुई थी।
इसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गए थे। यहां बिरसा मुंडा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। जब अंग्रेजों ने धावा बोल दिया था। बाद में बिरसा के कुछ साथियों की गिरफ्तारी हुई। अंत में 3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें रांची की जेल में रखा गया। बिरसा मुंडा ने नौ जून 1900 को शहादत प्राप्त की थी। आज भी झारखंड के अलावा उड़ीसा, छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल आसाम आदि इलाकों के आदिवासी बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजते हैं।
उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। मिशन चौक के रहने वाले सुनील बारला बताते हैं कि 1897 में झारखंड में अकाल पड़ा था। लोग भूख से तड़प रहे थे। अंग्रेज इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की जयंती मना रहे थे। तब बिरसा मुंडा को हजारीबाग जेल से मुक्त कर दिया गया था। 8 जनवरी 1900 को शैलकरण पहाड़ पर बिरसा मुंडा की सभा में तत्कालीन जिलाधीश स्ट्रीट फील्ड और कमिश्नर ने गोली चलवाई थी। इसमें 400 से ज्यादा लोगों की जान गई थी। चार फरवरी 1900 को जराइकेला के रोगतो गांव से 500 रुपये के इनाम की लालच में सोते हुए बिरसा मुंडा को पकड़ कर बंदगांव लाकर अंग्रेजों को सौंप दिया था।
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