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बिरसा मुंडा ने कहा था, मैं एक बार फिर आऊंगा

बिरसा मुंडा छोटी सी उम्र में पहाड़ सा संकल्प लेकर आगे बढ़े। युवाओं को संगठित किया।

By Sachin MishraEdited By: Updated: Fri, 09 Jun 2017 11:55 AM (IST)
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बिरसा मुंडा ने कहा था, मैं एक बार फिर आऊंगा

संजय कृष्ण, रांची। देखो, अंग्रेज सिपाही आ गए हैं..देखो, बिरसा के अनुयायी भी मुकाबले के लिए पहुंच गए हैं..देखो उन्होंने गोलियां चलाईं और गोलियां चलाने की आवाज बार-बार कानों में गूंजी..अंग्रेज सिपाहियों में से आधे पूर्वी रास्ते से भाग गए..आधे डोम्बारी पहाड़ों पर गिरे..।

उलिहातू से लेकर डोम्बारी बुरू और सईल रकब की पहाड़ियों तक में यह गीत आज भी गूंज रहा है। न केवल गीत, बल्कि वह संघर्ष भी जारी है..जल, जंगल, जमीन का। 117 साल बाद भी। यह बताने की जरूरत नहीं, आज ही के दिन बिरसा मुंडा ने आखिरी सांस ली थी। वह तारीख थी नौ जून, 1900। कभी न अस्त होने वाले सूर्य का दंभ भरने वाली अंग्रेजी राजसत्ता महज 25 साल के इस युवक से इतना घबरा गई कि उसने रातों रात डिस्टिलरी पुल के पास उसका दाह संस्कार कर दिया। उसने उजाले तक भी सब्र करना उचित नहीं समझा और न ही परिवार वालों को खबर देना। जेल में बिरसा को अंग्रेजी सत्ता ने बीमार कर दिया और इस बीमारी से लड़ते हुए बिरसा शहीद हो गए, लेकिन लड़ाई कभी खत्म नहीं हुई।

इतिहास बताता है कि 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा ने एक अक्टूबर 1894 को सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आंदोलन छेड़ दिया। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। हड़िया का नशा मत करो. जीव जंतु, जल, जंगल, जमीन की सेवा करो..समाज पर मुसीबत आने वाली है, संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ..काले गोरे सभी दुश्मनों की पहचान कर उनका मुकाबला करो..। छोटी सी उम्र में पहाड़ सा संकल्प लेकर आगे बढ़े। युवाओं को संगठित किया। नशे से दूर रहने का संकल्प और अपने दुश्मनों की सही पहचान की। नया धर्म बिरसाइत चलाया, जिसके अनुयायी आज भी हैं।

उस समय भी, उनके जादुई नेतृत्व के मुरीद सभी थे। उलिहातु से लेकर चाईबासा तक। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई में जंगल सुलगने लगे थे। पहाड़ों पर बैठकों का दौर शुरू था। जंगल की आग नगरों तक फैली और उलगुलान शुरू हो गया। बिरसा के पास कोई आधुनिक हथियार नहीं थे। बस, तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियार थे। कई तो गुलेल से भी लड़ रहे थे। इन्हीं हथियारों से वह दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी सत्ता से लोहा ले रहे थे। इस युद्ध में वीरता के साथ बिरसा के साथी भी शहीद हुए, लेकिन उनकी कुर्बानियां बेकार नहीं गईं। अंग्रेजों को अंतत: सीएनटी एक्ट बनाना पड़ा, जिसमें संशोधन के सवाल पर आज फिर आदिवासी समाज ने लड़ाई छेड़ रखी है।

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बुंडू पहुंची बिरसा मुंडा समाधि की माटी

जागरण संवाददाता, रांची : धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की विश्व में सबसे ऊंची 150 फीट की प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ उलगुलान’ के निर्माण को लेकर होने वाले भूमि पूजन के लिए गुरुवार को कोकर, डिस्टिलरी स्थित समाधि स्थल से पवित्र माटी पारंपरिक विधि-विधान के साथ बुंडू ले जाई गई। बिरसा मुंडा के जन्म स्थान उलिहातू से आए बिरसा मुंडा के वंशज कलश में माटी लेकर बिरसा रथ से रवाना हुए।

उलगुलान फाउंडेशन के संरक्षक सुदेश महतो, तमाड़ के विधायक विकास मुंडा, पद्मश्री मुकुंद नायक, डॉ. देवशरण भगत, रामदुर्लभ मुंडा, डोमन सिंह मुंडा, सुकरा मुंडा और अन्य गणमान्य लोगों ने कलश में रखी मिट्टी को नमन करते हुए रथ को रवाना किया। 1सुदेश महतो ने कहा कि झारखंड के इस महानायक की वीर गाथा को यादगार तथा अक्षुण्ण बनाए रखने एवं उनसे मिलने वाली प्रेरणा को सदैव जीवंत बनाए रखने के लिए यह पहल की गई है। इससे पहले नगाड़े एवं पारंपरिक वाद्य यंत्रों की गूंज के बीच सभी लोगों ने बिरसा की आदमकद प्रतिमा पर पुष्पा चढ़ाया। बुंडू-तमाड़ अड़की इलाके से आए लोगों तथा बिरसा के वंशजों का परंपरागत ढंग से स्वागत किया गया।

इसके बाद स्थानीय पाहनों ने मिट्टी का कलश भगवान बिरसा के वंशजों को सौंपा। बिरसा मुंडा अमर रहे के नारे से समाधि स्थल गुंजायमान रहा। इनके अलावा बिरसा रथ का टाटीसिल्वे, महिलौंग, नामकोम, सिंदरौल, रामपुर, तैमारा में जोरदार स्वागत हुआ। आजसू पार्टी की रांची महानगर एवं विश्वविद्यालय समिति द्वारा बिरसा रथ की मोटरसाइकिल द्वारा अगुवाई की गई। बिरसा रथ दोपहर बाद एदलहातू पहुंचा। बिरसा के शहादत दिवस नौ जून को यहीं पर ‘स्टैच्यू ऑफ उलगुलान’ के लिए भूमि पूजन होगा।

भूमि पूजन में समाधि स्थल की माटी को शामिल कर पत्थरगड़ी की जाएगी। इससे पहले कोकर समाधि स्थल पर कोकर, लालपुर के चुकू पाहन, भोजा उरांव, चडरी, अनगड़ा, नामकोम, कांके के पाहनों द्वारा परंपरागत ढंग से विधि-विधान का कार्य संपन्न कराया गया।

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