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जानिए, कौन थे झारखंड के गोड्डा निवासी चानकू महतो, जिन्हें अंग्रेजों ने कझिया नदी के किनारे लटका दिया था फांसी पर

झारखंड के कई आदिवासी देशभक्तों की तरह चानकू महतो भी अज्ञात क्रांतिकारी ही हैं। चानकू महतो प्राचीन राड़ प्रदेश सभ्यता का एक गुमनाम राष्ट्रभक्त हैं। गांव-गांव जाकर लोगों को संगठित करने वाले हूल क्रांति के इस नायक को याद करता हुआ संजीव कुमार महतो का आलेख...

By Madhukar KumarEdited By: Updated: Sun, 27 Feb 2022 09:38 AM (IST)
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गोड्डा के रंगमटिया गांव में नौ फरवरी, 1816 को जन्मे चानकू महतो बचपन से साहसी और विलक्षण प्रतिभा वाले थे।

रांची, डिजिटल डेस्क। चानकू महतो प्राचीन राड़ प्रदेश सभ्यता का एक गुमनाम राष्ट्रभक्त हैं। राड़ प्रदेश, वृहद बंगाल के चार भूभाग में से एक है। जंगल तराई यानी वर्तमान झारखंड के संताल परगना प्रमंडल के गोड्डा जिले के रंगमटिया गांव में नौ फरवरी, 1816 को जन्मे चानकू महतो बचपन से साहसी और विलक्षण प्रतिभा वाले थे। नाना धनीराम महतो के बहुत लाडले होने की वजह से इनकी शिक्षा-दीक्षा नाना के पास बाड़ेडीह गांव में ही हुई। बीमारी से मां की असमय मृत्यु हो गई, तब चानकू अपने घर रंगमटिया में रहकर पिता के साथ खेती में हाथ बंटाने लगे। अपने हुनर और प्रतिभा के कारण गांव का प्रधान बने और फिर कुड़मि स्वशासन व्यवस्था के परगना के परगनैत भी बने। गोड्डा इलाके में भी कंपनी सरकार का प्रवेश हो चुका था। यहां अंग्रेजों ने गोड्डा में भूमि कर में अप्रत्याशित वृद्धि कर दी। जो कर देने में आनाकानी करते या गरीबी अथवा कम उपज के कारण असमर्थ होते तो उनको तरह-तरह की यातनाएं दी जातीं, उनकी जमीन छीनकर बाहरी रैयत को दे दी जाती। रैयत इस नई व्यवस्था से अपरिचित थे। जमीन उनकी थी, जंगल उनका था, जल उनका था। अब तक वे सामूहिक और सह अस्तित्व के साथ जीते आए थे, लेकिन अब नई व्यवस्था में यह सब उनसे छीना जा रहा था या उसके लिए कर की व्यवस्था थोप दी गई। चानकू महतो इस अत्याचार को देख रहे थे।

पारंपरिक स्वशासन पर हमला

अंग्रेजों ने इनके पारपंरिक स्वशासन पर भी हमला बोल दिया था। गांव की एक अलग वैकल्पिक सरकार खड़ी कर दी। आदिवासियों पर इन पदधारियों के माध्यम से ही शासन चलाने के लिए कर वसूली होने लगी। ब्रिटिश सत्ता के साथ-साथ इनके अत्याचार और मनमानी बढ़ती गई। तब आदिवासियों-मूलवासियों ने जवाब देने की ठानी। विद्रोह ही एकमात्र रास्ता था और इसके लिए गांव-गांव बैठकें होने लगीं और लोग एकजुट होने लगे। चानकू महतो ने नेतृत्व संभाला। इसके बाद चानकू महतो ने अपने स्तर से लोगों को एकजुट कर अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर दिया और नारा दिया- ‘आपोन माटी, आपोन दाना, पेट काटी निही देबञ खजाना।’ अपना पेट काटकर भला कंपनी का खजाना क्यों भरें? इस तरह गांव-गांव जाकर चानकू महतो ने लोगों को जागृत किया और सैकड़ों युवा इनके साथ आते गए। हूल क्रांति से पहले 1853-54 में अपने प्रमुख सहयोगियों राजवीर सिंह, बेजल सोरेन, भागीरथ मांझी, हुघली महतो, बुधु राय, बलुआ महतो, रामा गोप, चालो जोलहा, गांदो, हरदेव सिंह के साथ जमींदारों और कंपनी सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। इधर, संताल भी कंपनी सरकार के शोषण से परेशान थे। वे भी व्यापक आंदोलन छेड़ने की योजना बना रहे थे। चानकू महतो इस आंदोलन में अपने पूरे साथियों के साथ शामिल हो गए। सिदो-कान्हू ने 30 जून, 1855 को विशाल सभा या कहिए विद्रोह की तिथि निर्धारित की। सभा में पूरे संताल परगना से लोग एकत्रित हुए और विद्रोह कर दिया। इस आंदोलन की बौद्धिक अगुवाई शाम परगना कर रहे थे। इस विद्रोह में हजारों आदिवासी मारे गए। आंदोलन के कई अगुवा बच गए। चानकू महतो भी पुलिस की पकड़ में न आ सके। हूल क्रांति में संताली, महतो व तमाम स्थानीय जातियों ने योगदान दिया था और हजारों आदिवासी बलिदान हो गए थे।

गद्दार ने दी सूचना

चानकू महतो को पुलिस खोज रही थी। महीनों तक पुलिस और चानकू के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा। सन् 1855 के अक्टूबर महीने में सोनार चक में जनसभा थी। उसमें चानकू शामिल हुए और लोगों को संबोधित कर रहे थे कि एक गद्दार नायब प्रताप नारायण ने अंग्रेजी सरकार को उनकी उपस्थिति की सूचना दे दी। अंग्रेजी सेना ने तेजी से कार्रवाई करते हुए चानकू महतो को चारों तरफ से घेर लिया और युद्ध शुरू हो गया। इस हमले में चानकू घायल हो गए, लेकिन उनके साथी उन्हें सुरक्षित स्थान पर लेकर चले गए। चानकू महतो एक बार फिर पुलिस की पकड़ में नहीं आ सके। अब पुलिस का गुस्सा सातवें आसमान पर था। पुलिस को किसी ने सूचित कर दिया कि चानकू महतो अपने ननिहाल बाड़ेडीह गांव में हैं। पुलिस यहां चुपके से पहुंची और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद 15 मई, 1856 को गोड्डा के राजकचहरी स्थित कझिया नदी के किनारे उन्हें फांसी दे दी गई। अंग्रेजी सेना इतने गुस्से में थी कि 1856 में बाड़ेडीह महतो टोले को पूरी तरह उजाड़ दिया।

याद में नहीं जलता चूल्हा

पहाड़िया आंदोलन के बाद झारखंड का यह दूसरा संगठित विद्रोह था, जिससे ब्रिटिश सत्ता हिल उठी थी। इसके बाद ही संताल परगना अस्तित्व में आया। नया कानून बना और इन्हें सहूलियत दी गई, लेकिन हूल के नायक चानकू महतो सरकारी स्तर पर आज भी उपेक्षित ही हैं। देश के इतिहास में चानकू महतो को उचित स्थान नहीं दिया इसलिए सरकार की नजर में झारखंड के कई आदिवासी देशभक्तों की तरह चानकू महतो भी अज्ञात क्रांतिकारी ही हैं, लेकिन स्थानीय व कई सामाजिक संगठनों द्वारा इन्हें श्रद्धापूर्वक याद किया जाता रहा है। जयंती, बलिदान व हूल दिवस पर झारखंड और आस-पास के राज्यों में भी चानकू महतो याद किए जाते हैं। उनके वंशज और ग्रामीण प्रत्येक वर्ष उनकी याद में कई आयोजन करते हैं। कई घरों में तो इन दिनों में आज भी एक वक्त का चूल्हा नहीं जलता है। पिछले दिनों इस क्रांतिकारी के आंगन की मिट्टी एकत्रित कर स्मारक बनवाया गया व इसी नौ फरवरी को आदमकद प्रतिमा लगाई गई।

(लेखक हूल फाउंडेशन के संस्थापक-अध्यक्ष व वीर बलिदानी चानकू महतो के वंशज हैं)

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