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आजादी के बाद पहला गोलीकांड, जब पुलिस व आदिवासियों के बीच हुआ खूनी संघर्ष; कई हुए बलिदान... पर सरकारी आंकड़े अलग-अलग

आज ही के दिन 1948 में हुए खरसावां गोलीकांड में कई लोग बलिदान हुए थे। गैरसरकारी आंकड़ों के अनुसार सैकड़ों लोग मारे गए थे। हालांकि बिहार सरकार सौ बताती है और ओडिशा सरकार मात्र 40। पहली जनवरी 1948 को यह लोमहर्षक घटना घटी थी। इस कांड के अगले दिन यानी 2 जनवरी 1948 को पता चला कि खरसावां में कर्फ्यू लगा दिया गया है।

By sanjay krishna Edited By: Aysha SheikhUpdated: Mon, 01 Jan 2024 09:34 AM (IST)
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आजादी के बाद पहला गोलीकांड, जब पुलिस व आदिवासियों के बीच हुआ खूनी संघर्ष

संजय कृष्ण, रांची। खरसावां गोलीकांड को 75 साल पूरे हो रहे हैं। देश की आजादी के बाद का पहला गोलीकांड, जिसमें गैरसरकारी आंकड़ों के अनुसार, सैकड़ों लोग मारे गए थे। हालांकि, बिहार सरकार सौ बताती है और ओडिशा सरकार मात्र 40। पहली जनवरी 1948 को यह लोमहर्षक घटना घटी थी।

समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने लिखा कि खरसावां में 500 से अधिक लोग मारे गए थे। लोहिया ने इस पर लेख भी लिखा-खरसावां का रक्तस्नान। तीन जनवरी को कलकत्ता (कोलकाता) में अपने भाषण में सरदार पटेल ने इस घटना की निंदा की। अंतत: पांच महीने बाद सरायकेला-खरसावां का बिहार में विलय कर दिया गया।

क्या था मामला? 

आजादी के बाद देशी रियासतों का विलय हो रहा था। सरायकेला-खरसावां राज का भी विलय होना था। 14 दिसंबर 1947 को कटक में हुई बैठक में खरसावां राजा बिहार में विलय के पक्षधर थे। उन्होंने दो तर्क दिए थे। पहला, यह इलाका बिहार के सिंहभूम जिले का हिस्सा है और दूसरा, स्थानीय आदिवासी आबादी का बहुमत सिर्फ बिहार के साथ विलय को उत्सुक है।

हालांकि, वीपी मेनन अस्थायी समाधान के पक्ष में थे और उन्होंने भविष्य में लोगों की इच्छा जानने के लिए जनमत संग्रह का सुझाव दिया। इसके बाद 18 दिसंबर को ही ओडिशा के अधिकारी व पुलिस की तीन कंपनी पहुंच गई थी। ओडिशा पुलिस ने यहां चल रहे आंदोलन को देखते हुए 31 दिसंबर को ही धारा 144 लगा चुकी थी।

खरसावां में 31 दिसंबर को 15 हजार लोग इकट्ठा हो गए थे। उस दिन धारा-144 के तहत निषेधाज्ञा लागू कर दी गई। पुलिस में दर्ज प्राथमिकी और डीआइजी की रिपोर्ट के अनुसार सवेरे तक हाट मैदान में इकट्ठा लोगों की संख्या 30 हजार के आसपास पहुंच गई थी। लोग केवल आसपास के गांवों से ही नहीं आए थे, बल्कि चाईबासा, जमशेदपुर, चक्रधरपुर, रांची जैसे दूर के इलाके से भी आए थे।

वे परंपरागत हथियारों से लैस थे और विलय-विरोधी नारे लगा रहे थे। बहुत सारे लोग जयपाल सिंह को देखने के लिए आए थे, लेकिन अज्ञात कारणों से वे नहीं आए। परंपरागत हथियारों से लैस भीड़ उनका इंतजार करते हुए बेचैन होने लगी। प्रदर्शन ऐन मौके पर नेतृत्व विहीन हो गया। लगभग 30 हजार की भीड़ स्थानीय नेताओं के जिम्मे थी। लोगों ने दो बार पूर्ववर्ती शासक से मिलने का प्रयास किया, जिन पर उनकी आस्था थी।

वे जानना चाहते थे कि रियासत ओडिशा को क्यों दे दिया गया। लोगों को यह पता नहीं था कि यह भारत सरकार की ओर से अंतरिम व्यवस्था थी। प्राथमिकी के अनुसार, लोग शहर की ओर चले, वहां तैनात अधिकारियों ने जुलूस को रोक दिया और आदिवासियों के केवल दो दर्जन प्रतिनिधियों को राजा से इस शर्त पर मिलने दिया गया कि मुलाकात के बाद जुलूस बिखर जाएगा। खरसावां के राजा रामचन्द्र सिंह देव ने उन सारी परिस्थितियों को स्पष्ट किया जिनकी वजह से विलय का फैसला हुआ था।

राजभवन में गोलियों की आवाज

दिन के लगभग तीन बजे राजभवन में ओडिशा मिलिट्री पुलिस घुस गई और राजपरिवार के सभी सदस्यों को नजरबंद कर दिया। करीब साढ़े तीन बजे गोलियों की आवाज राजभवन में सुनाई पड़ी। युवराज पूर्णेंदु नारायण सिंहदेव बाहर जाना चाहते थे पर उन्हें ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने रोक दिया।

अगले दिन यानी 2 जनवरी, 1948 को पता चला कि खरसावां में कर्फ्यू लगा दिया गया है और किसी को भी बाहर जाने की इजाजत नहीं है। बहुत आग्रह करने पर टिकैत प्रदीप चंद्र सिंहदेव जो दस साल के बालक थे, अपने ड्राइवर के साथ पोंटिएक गाड़ी में थाना परिसर तक गए एवं वहां अपने ड्राइवर इस्माइल के कहने पर कुछ फूल तोड़कर शहीदों के सम्मान में अर्पित किए।

खरसावां गोलीकांड में मेरे पिता मांगू सोय घायल हो गए थे। उनके पैर व हाथ में गोली लगी थी। उस समय उनकी उम्र 22 साल थी। 2018 में उनका निधन हुआ। वे इस घटना के बारे में बताया करते थे। झारखंड आंदोलन से प्रभावित होकर वे आदिवासी महासभा से से जुड़ गए थे। सरायकेला-खरसावां के विलय के सवाल को लेकर विशाल रैली थी। पिताजी भी खरसावां के हाट मैदान में जुटे थे। रैली को जयपाल सिंह संबोधित करने वाले थे, लेकिन वे नहीं आ सके। भीड़ अपने राजा से मिलना चाहती थी। जयपाल सिंह का जयकार लगाते हुए अपने पारंपरिक हथियारों के साथ आगे बढ़ रही थी कि अचानक गोलीबारी शुरू हो गई। पिताजी बताते हैं सैकड़ों लोग मारे गए। हाट मैदान में एक कुआं था, जो लाशों से पट गया था। - शंकर सोय, हेसा, सरायकेला।

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