Hul Diwas 2019: पढ़ें आदिवासी संघर्ष की दास्तां, जानें क्यों मनाते हैं हूल दिवस
इस महान क्रांति में 20000 लोगों को मौत के घाट उतारा गया। अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने लिखा है कि आदिवासियों के इस बलिदान को लेकर कोई भी अंग्रेज सिपाही ऐसा नहीं था जो शर्मिंदा न हुआ।
By Alok ShahiEdited By: Updated: Sun, 30 Jun 2019 07:41 PM (IST)
रांची, [जागरण स्पेशल]। हूल दिवस। हूल क्रांति। संथाल विद्रोह। जैसा कि शब्दों से ही स्पष्ट है कि आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले आदिवासियों के संघर्ष गाथा और उनके बलिदान को याद करने का यह खास दिन है। रविवार को समूचे झारखंड में रण बांकुरे सिद्धो-कान्हो को याद करते हुए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह के प्रतीक के तौर पर हूल दिवस मनाया जा रहा है। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने इस मौके पर शहीदों को नमन किया।
क्यों मनाते हैं हूल दिवस
संथाली भाषा में हूल का अर्थ होता है विद्रोह। 30 जून 1855 को झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और 400 गांवों के 50000 से अधिक लोगों ने भोगनाडीह गांव पहुंचकर जंग का एलान कर दिया। यहां आदिवासी भाइयों सिद्धो-कान्हो की अगुआई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो का एलान किया। इससे घबराकर अंग्रेजों ने विद्रोहियों का दमन प्रारंभ किया। अंग्रेजी सरकार की ओर से आए जमींदारों और सिपाहियों को संथालों ने मौत के घाट उतार दिया। इस बीच विद्रोहियों को साधने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की हदें पार कर दीं। बहराइच में चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया तो दूसरी तरफ सिद्धो और कान्हो को पकड़कर भोगनाडीह गांव में ही पेड़ से लटकाकर 26 जुलाई 1855 को फांसी दे दी गई। इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है। इस महान क्रांति में लगभग 20000 लोगों को मौत के घाट उतारा गया। एक अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने लिखा है कि आदिवासियों के इस बलिदान को लेकर कोई भी अंग्रेज सिपाही ऐसा नहीं था जो शर्मिंदा न हुआ हो ।
रांची में सिद्धो-कान्हो की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा।
संथाली भाषा में हूल का अर्थ होता है विद्रोह। 30 जून 1855 को झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और 400 गांवों के 50000 से अधिक लोगों ने भोगनाडीह गांव पहुंचकर जंग का एलान कर दिया। यहां आदिवासी भाइयों सिद्धो-कान्हो की अगुआई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो का एलान किया। इससे घबराकर अंग्रेजों ने विद्रोहियों का दमन प्रारंभ किया। अंग्रेजी सरकार की ओर से आए जमींदारों और सिपाहियों को संथालों ने मौत के घाट उतार दिया। इस बीच विद्रोहियों को साधने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की हदें पार कर दीं। बहराइच में चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया तो दूसरी तरफ सिद्धो और कान्हो को पकड़कर भोगनाडीह गांव में ही पेड़ से लटकाकर 26 जुलाई 1855 को फांसी दे दी गई। इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है। इस महान क्रांति में लगभग 20000 लोगों को मौत के घाट उतारा गया। एक अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने लिखा है कि आदिवासियों के इस बलिदान को लेकर कोई भी अंग्रेज सिपाही ऐसा नहीं था जो शर्मिंदा न हुआ हो ।
रांची में सिद्धो-कान्हो की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा।
आदिवासियों के लिए बना बंदोबस्त अधिनियम
हूल क्रांति जनवरी 1856 में समाप्त हुआ, तब संथाल परगना का निर्माण हुआ जिसका मुख्यालय दुमका बना। इस महान क्रांति के बाद वर्ष 1900 मे मैक पेरहांस कमेटी ने आदिवासियों के लिए बंदोबस्त अधिनियम बनाया। जिसमें यह प्रावधान किया गया कि आदिवासी की जमीन कोई आदिवासी ही खरीद सकता है। क्रेता एवं विक्रेता का निवास एक ही थाने के अंतर्गत होना चाहिए। आज भी इन शर्तों को पूरा करने के बाद ही झारखंड में आदिवासी जमीन का हस्तांतरण करने का प्रावधान है। संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम जब 1949 में पारित किया गया तो 1900 के बंदोबस्ती नियम के इस शर्त को धारा 20 मे जगह दी गई जो आज भी लागू है।प्रभावशाली विद्रोह था हूल क्रांति
1857 के सिपाही विद्रोह को याद करें तो इसे ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह माना जाता है, लेकिन आदिवासियों का हूल विद्रोह भी प्रभावशाली विद्रोह रहा। संथाल विद्रोह आदिवासियों के द्वारा शुरू किया गया था जो धीरे-धीरे जन आंदोलन बन गया। तब संथाल विद्रोहियों ने अपने परंपरागत हथियारों के दम पर ही ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। 1855 के संथाल विद्रोह में 50000 से अधिक लोगों ने करो या मरो और अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो का नारा बुलंद किया था।
हूल क्रांति जनवरी 1856 में समाप्त हुआ, तब संथाल परगना का निर्माण हुआ जिसका मुख्यालय दुमका बना। इस महान क्रांति के बाद वर्ष 1900 मे मैक पेरहांस कमेटी ने आदिवासियों के लिए बंदोबस्त अधिनियम बनाया। जिसमें यह प्रावधान किया गया कि आदिवासी की जमीन कोई आदिवासी ही खरीद सकता है। क्रेता एवं विक्रेता का निवास एक ही थाने के अंतर्गत होना चाहिए। आज भी इन शर्तों को पूरा करने के बाद ही झारखंड में आदिवासी जमीन का हस्तांतरण करने का प्रावधान है। संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम जब 1949 में पारित किया गया तो 1900 के बंदोबस्ती नियम के इस शर्त को धारा 20 मे जगह दी गई जो आज भी लागू है।प्रभावशाली विद्रोह था हूल क्रांति
1857 के सिपाही विद्रोह को याद करें तो इसे ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला विद्रोह माना जाता है, लेकिन आदिवासियों का हूल विद्रोह भी प्रभावशाली विद्रोह रहा। संथाल विद्रोह आदिवासियों के द्वारा शुरू किया गया था जो धीरे-धीरे जन आंदोलन बन गया। तब संथाल विद्रोहियों ने अपने परंपरागत हथियारों के दम पर ही ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। 1855 के संथाल विद्रोह में 50000 से अधिक लोगों ने करो या मरो और अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो का नारा बुलंद किया था।
हूल क्रांति से जन्मा संथाल परगना
हूल क्रांति से पहले संथाल परगना के नाम से जाना जाने वाला क्षेत्र बंगाल प्रेसिडेंसी के अंदर आता था। यह क्षेत्र काफी दुर्गम-दुरुह था, जहां पहाड़ों-जंगलों के कारण दिन में भी आना-जाना मुश्किल था। पहाड़ की तलहटी में रहने वाले पहाड़िया समुदाय के लोग तब जंगल झाड़ियों को काटकर खेती योग्य बनाते और उस पर अपना स्वामित्व समझते थे। ये लोग अपनी जमीन का राजस्व किसी को नहीं देते थे। इधर इस्ट इंडिया कंपनी के जमींदार जबरन लगान वसूली करते। पहाड़िया लोगों को लगान चुकाने के लिए साहुकार से कर्ज लेना पड़ता था। इस कदर अत्याचार बढ़ गया कि आखिरकार आदिवासियों ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया।इस इलाके में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों को संथाल के नाम से जाना जाता है। संथालियों में बोंगा देवता की पूजा की जाती है जिनके हाथ में बीस अंगुलियां होती हैं। इस देवता के कहने पर ही भोगनाडीह गांव के चुन्नी मांडी के चार बेटों सिद्धो, कान्हो, चांद और भैरव ने मालगुजारी और चौतरफा अत्याचार के खिलाफ 30 जून 1855 को समस्त संथाल में डुगडुगी पीटकर विद्रोह का एलान कर दिया था।
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