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रांची के सरकारी अस्पतालों को चाहिए डॉक्टर्स का 'डोज'

रांची में आये दिन नए अस्पताल बन रहे हैं, पर सरकारी अस्पतालों को दुरुस्त करने की बहुत जरूरत है।

By Krishan KumarEdited By: Published: Tue, 10 Jul 2018 06:00 AM (IST)Updated: Tue, 10 Jul 2018 01:10 PM (IST)
रांची के सरकारी अस्पतालों को चाहिए डॉक्टर्स का 'डोज'

झारखंड की राजधानी होने की वजह से कई जिलों से मरीज बेहतर इलाज के लिए रांची आते हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था सरकारी और गैर-सरकारी में बं है। इस वक्त गैर सरकारी अस्पतालों एवं नर्सिंग होम का दबदबा है। यहां तक कि झारखंड सरकार एवं भारत सरकार के कई विभागों के लोग प्राइवेट अस्पतालों में जाना पसंद करते है। कई विभागों का सीधे तौर पर प्राइवेट अस्पतालों से टाइअप है। सरकारी अस्पतालों की बात करें तो मानव संसाधन की कमी सीधे तौर पर महसूस की जा सकती है। इस वजह से सरकारी अस्पतालों की कार्य क्षमता पर सीधा असर पड़ता है।

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समाजसेवी अतुल गेरा ने बताया कि एक और पहलू है। सरकारी डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस भी करते हैं, उनके सुझाव और उनकी कार्य शैली सरकारी अस्पताल और प्राइवेट प्रैक्टिस में उनको दो अलग-अलग इंसानों के रूप में पेश करती है।

अतुल पेशे से वकील हैं और जुनून से समाजसेवी। साथ ही वे लाइफसेवर्स नाम से ब्‍लड डोनेशन ग्रुप चलाते हैं। इस ब्लड बैंक ने सैकड़ों लोगों की मदद की है। राज्‍य के सबसे बड़े अस्‍पताल रिम्‍स में खून की कमी होने पर सबसे पहले लोग इनका नाम बताते हैं। ब्‍लड डोनेशन करने वाली संस्‍थाओं में बहुत जल्दी इनकी संस्था ने ख्याति अर्जित की है। अतुल ने सेंट जेवियर्स कॉलेज से स्‍नातक करने के बाद छोटानागपुर लॉ कॉलेज से वकालत की पढ़ाई पूरी की है।


उन्होंने कहा कि सरकारी अस्पतालों से मरीजों को प्राइवेट अस्पतालों में भेजने से उनकी सारी ऊर्जा और शक्तियां व्यर्थ जाती है और ये डॉक्‍टर सरकारी अस्पतालों के स्टेटस बनाने की वजह से प्राइवेट अस्पतालों की लाइब्रेरी बन के रह गए हैं। इस पर सरकार को कड़ा रुख अपनाने की जरूरत हैं।

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अगर हम प्राइवेट अस्पतालों की बात करें तो रांची में हर दिन नए अस्पताल बन रहे हैं। जिनको हम कमर्शियल हॉस्पिटल के नाम से ज्यादा जानते हैं, जिसके पीछे एक बड़ा बिजनेस हाउस होता है, जिसका लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना होता है। अस्पतालों का आमतौर पर रजिस्ट्रेशन क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट द्वारा सिविल सर्जन के दफ्तर से होता है। इसका मतलब सीधे तौर पर सिविल सर्जन के पास इनकी अनियमितता को रोकने की शक्ति होती है।

रांची या हर जिले के सिविल सर्जन की शक्तियां नजर नहीं आती। उदाहरण के तौर पर लगभग 3 महीने पहले झारखंड के 3 जिलों के सिविल सर्जन को नेशनल हेल्थ मिशन द्वारा निर्देश दिया गया था कि झारखंड के सारे अस्पतालों और नर्सिंग होम को स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर को पूर्ण रूप से लागू करना है, जिसमें खास करके यह कहा गया कि हर अस्पतालों को अपने मरीजों के रक्त की जरूरत खुद पूरी करनी है। यह एक बेहतरीन प्रैक्टिस है, जिससे प्रोफेशनल डोनर ब्लड वेस्टेज पर रोकथाम आसानी से की जा सकती है और ऑप्टिमम यूज ऑफ़ ब्लड को सही मायने में लागू किया जा सकता है। यह कदम मरीज केंद्रित होगा पर ऐसा नहीं हो पा रहा है।

प्राइवेट अस्पताल सेल्फ सेंट्रिक नजर आते हैं। इस वक्त सरकारी अस्पतालों को दुरुस्त करने की बहुत जरूरत है, क्योंकि सरकार का प्राइवेट अस्पतालों पर कंट्रोल बहुत कम प्रतीत होता है। रांची शहर में स्पेशलाइज्ड डॉक्टर की कमी है, जिस वजह से लोग बड़े शहर में जाना पसंद करते हैं।

अगर हम अस्पतालों के डॉक्टर एवं मेडिकल स्टाफ के व्यवहारों की बात करें तो ऐसे बहुत कम अस्पताल मिलेंगे, जो मरीजों को उनकी बीमारी और उनके इलाज के बारे में पारदर्शिता को समझा पाते हैं। ज्यादातर अस्पताल मरीज के मन में भय डालते हैं और इलाज का पूरा विवरण नहीं देते हैं। इस पर सख्त कानून बनाने की जरूरत है।

इमरजेंसी की बात करें तो हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था दुर्घटना की स्थिति में पहले घंटे (जिसे गोल्डन ऑवर कहते हैं) के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। दिन में हुई दुर्घटना में बचने के मौके रात के मुकाबले ज्यादा है। सरकारी व्यवस्था में दुर्घटना के मामले में रिम्स के अलावा कोई और विकल्प नहीं है, जिसके लिए एक दुरुस्त ट्रामा सेंटर की जरूरत है।

अगर, मरीज प्राइवेट अस्पताल पहुंच गया, तो उसके इलाज से ज्यादा उसके इलाज का पैसा कौन और कब देगा? यह इलाज से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। तब एक मरीज के जीवन जीने की उम्मीद संघर्ष बन जाती है। स्वास्थ्य व्यवस्था में नियम और कानून के पालन के साथ सरकार द्वारा उसे सख्ती से लागू करवाने की जरूरत है।


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