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Golwalkar Jayanti: 'गुरुजी' गोलवलकर को जानिए, रांची में हुआ पूर्व RSS प्रमुख की जिंदगी का अंतिम प्रवास Special Story

Golwalkar Birth Anniversary Golwalkar Jayanti राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव.सदाशिव राव गोलवलकर गुरुजी के जीवन का अंतिम प्रवास रांची में ही हुआ था। 10-11 मार्च 1973 को बिहार प्रांत का कार्यकर्ता शिविर रांची में था। वे कोलकाता जाने के दौरान कार से उतरते वक्त लड़खड़ा गए थे।

By Alok ShahiEdited By: Updated: Fri, 19 Feb 2021 07:04 AM (IST)
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Golwalkar Birth Anniversary, Golwalkar Jayanti: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव.सदाशिव राव गोलवलकर 'गुरुजी'।
रांची, [संजय कुमार]। Golwalkar Birth Anniversary, Golwalkar Jayanti राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव.सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी के जीवन का अंतिम प्रवास रांची में ही हुआ था। 10-11 मार्च 1973 को बिहार प्रांत का कार्यकर्ता शिविर रांची में था। टेलीफोन एक्सचेंज के पीछे युवक संघ हाल में स्वयंसेवकों का कार्यक्रम हुआ था। रांची एवं आसपास के लगभग एक हजार स्वयंसेवक आए थे। उसी कार्यक्रम में बौद्धिक दर्शन देने के बाद वे जब कोलकाता जाने के लिए रांची स्टेशन पहुंचे तब कार से उतरते वक्त लड़खड़ा गए।

उस समय के विभाग प्रचारक श्रीशंकर तिवारी बगल में थे। उनके कंधे का सहारा ले लिया। कहा, शिवशंकर क्या हुआ इस शरीर को। उस कार्यक्रम के बाद उनका कोई सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं हुआ। उस समय के खंड कार्यवाह और वर्तमान में उत्तर पूर्व क्षेत्र के व्यवस्था प्रमुख प्रेम अग्रवाल और उस समय के रांची नगर प्रचारक सुरेश सिन्हा ने याद करते हुए कहा कि सादगी पसंद व्यक्ति थे। स्वयंसेवकों से बड़े प्रेम से मिलते थे। छोटे-छोटे प्रश्न करते थे।5 जून 1973 को उन्होंने शरीर त्याग दिया। 

19 फरवरी 1906 को नागपुर में हुआ था जन्म

19 फरवरी 1906 को नागपुर में सदाशिव राव गोलवलकर के घर जन्मे माधव गोलवलकर जो बाद में गुरुजी के नाम से प्रसिद्ध हुए, संघ के संपर्क में 1931 में उस समय आए जब वे बीएचयू में अध्यापन के लिए आए थे। प्राणिशास्त्र के व्याख्याता थे। अध्यापक गोलवलकर तो हाकी और टेनिस खेलने के शॉकिन थे परंतु उनसे संपर्क करने वाले स्वयंसेवकों को भी कहां मालूम था कि आगे चलकर सरसंघचालक का दायित्व निभाने वाले हैं। 1932 ई. में जब गर्मी की छुट्टी में नागपुर पहुंचे थे तब प्रथम बार उनकी मुलाकात संघ संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई थी। 1933 में नौकरी छोड़ संघ कार्य में लग गए।

इस बीच 1934 में वे रामकृष्ण मिशन के स्वामी अखंडानंद जी के शिष्य बन गए, लेकिन 1937 में वापस आकर फिर संघ कार्य में लग गए। वे अलग अलग दायित्व का निर्वाह करते हुए सरकार्यवाह बनाए गए। जून 1940 में संघ शिक्षा वर्ग के दौरान डा. हेडगेवार की तबीयत ज्यादा खराब हो गई। 20 जून था। उस समय उनहोंने उपस्थित लोगों के सामने गुरुजी से कहा, मैं बच गया तो ठीक, अन्यथा संघ का संपूर्ण कार्य आप संभालिए। 21 जून 1940 को डा. हेडगेवार का निधन हो गया और गुरुजी सरसंघचालक बने। गुरुजी ने अनुशासनहीनता कभी बर्दास्त नहीं की। 1942 में युवा स्वयंसेवकों से आह्वान किया प्रचारक चाहिए-प्रचारक चाहिए। देखते देखते सैकड़ों प्रचारक पूरे देश से निकलने लगे। पूरे देश में प्रचारक भेजा और संघ कार्य को स्थापित किया। हृदय विदारक देश विभाजन के समय गुरुजी के मार्गदर्शन में स्वयंसेवकों ने आम जनता को महासंकट से बचाने के सहस्त्रों प्रयास किए।

हिंदी- चीनी भाई-भाई के नारे को गलत करार दिया था

1960 में जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और चीनी नेता चाऊ एन लाई की जोड़ी देश का दौरा करते हुए हिंदी चीनी भाई भाई कह रहे थे तब गुरु जी ही कह रहे थे कि इसके पीछे भयंकर दैत्य छीपा है। 1962 में जब युद्ध हुआ तब स्वयंसेवक मैदान में कूद परे और सेना के जवानों के लिए मदद जुटाने लगे।

सर्वदलीय बैठक में शामिल करने के लिए प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने बुलाया

1965 में जब भारत पर पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया तब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी ने गुरुजी को फोन कर सर्वदलीय बैठक में शामिल होने के लिए बुलाया। महाराष्ट्र का प्रवास छोड़ बैठक में शामिल हुए। संघ की ओर से संपूर्ण मदद का भरोसा दिलाया। 22 दिन युद्ध चला और उस दौरान दिल्ली की यातायात व्यवस्था स्वयंसेवकों ने संभाली। रक्तदान करने लगे। जब युद्ध के तुरंत बाद शास्त्री जी को ताशकंद बुलाया गया तब गुरु जी ने नहीं जाने का अनुरोध किया। जब जाना तय कर लिया तब वाजपेयी के माध्यम से पत्र भेजा कि जनता को जो वचन दिया है उस पर अडिग रहें। तब कहा था कि ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे देश की प्रतिष्ठा ओर आत्मसम्मान पर अ़ाच आए, लेकिन गुरु जी की आशंका सच साबित हुई।

विविध क्षेत्र में कार्य करने के लिए स्वयंसेवकों को भेजा

गुरुजी की एक तरफ जहां पूरे देश में संघ की शाखाओं को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही वहीं दूसरी ओर सामाजिक स्थिति को मजबूत करने के लिए भी अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने के लिए स्वयंसेवकों को भेजा। उन्हीं ही पे्ररणा से शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए 1948 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की गई तो सामाजिक असमानता को दूर करने व मठ-मंदिरों में सभी वर्ग के लोगों को प्रवेश दिलाने के क्षेत्र में काम करने के लिए विश्व हिंदू परिषद की स्थापना की गई।

इसके साथ ही मजदूर, किसान, शिक्षा, सहकारिता, वनवासी क्षेत्र, संगीत व कला और उपभोक्ता आदि क्षेत्रों में संघ के स्वयंसेवकों ने संगठनात्मक कार्य प्रारंभ किए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक गुरुशरण प्रसाद ने उन्हें याद करते हुए कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की जो परिस्थिति बनी उसे देखते हुए विविध क्षेत्रों में काम खड़ा करने की जरूरत महसूस की गई। गुरुजी की प्रेरणा से सभी क्षेत्रों में काम खड़ा किया गया। आज उसी का परिणाम है कि देश के हर क्षेत्र में स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। 40 से ज्यादा अनुषांगिक संगठन हैं, जहां संघ के विचार से प्रभावित होकर लोग काम कर रहे हैं।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना से पूर्व गुरुजी से की थी मुलाकात

पाकिस्तान से आए विस्थापितों की दुर्दशा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के व्यवहार से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद से आठ अप्रैल 1950 को त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद नए राजनीति दल के गठन करने की जरूरत महसूस की जो राष्ट्रहित में काम करे। उसके बाद उन्होंने गुरुजी से मुलाकात की। गुरुजी ने शर्त रखी की स्वयंसेवक सीधे राजनीति क्षेत्र में काम नहीं करेंगे। उसके बाद 1951 में जनसंघ की स्थापना की गई, जिसमें संघ के कई प्रचारक भेजे गए।

सबके प्रयास से चल रहा है संगठन

प्राय: लोग काम के समय तो पीछे रहते हैं, पर श्रेय लेने के लिए सबसे आगे खड़े दिखायी देते हैं। गुरुजी संघ के सरसंघचालक थे। सब लोग उन्हें संघ का सर्वेसर्वा मानते और कहते थे। पर उनके मन में ऐसा कोई अहंकार नहीं था। एक बार इस संबंध में उन्होंने यह कथा सुनायी। एक व्यक्ति अपने  ऊंट को लेकर कहीं जा रहा था। कुछ दूर चलने के बाद उसने ऊंट के गले में बंधी रस्सी छोड़ दी, फिर भी ऊंट अपने मार्ग पर ठीक से चलता रहा। रस्सी को जमीन पर घिसटता देखकर एक चूहा आया और वह उस रस्सी को पकड़कर ऊंट के साथ-साथ चलने लगा।

थोड़ी देर बाद चूहे ने अहंकार से ऊट की ओर देखा और कहा - तुम अपने को बहुत शक्तिशाली समझते हो; पर देखो, इस समय मैं तुम्हें खींचकर ले जा रहा हूं। यह सुनकर ऊंट हंसा और उसने अपनी गर्दन को जरा सा हिलाया। ऐसा करते ही चूहा दूर जा पड़ा। यह कथा सुनाकर गुरुजी ने कहा - ऐसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक अपना यह विशाल संगठन है। इसकी रस्सी का एक छोर पकड़कर यदि मैं यह कहूं कि मैं इसे चला रहा हूं, तो यह मेरी नहीं, चूहे जैसी क्षुद्र बुद्धि वाले किसी व्यक्ति का कथन होगा। वस्तुत: संघ सब स्वयंसेवकों की सामूहिक शक्ति से चल रहा है..... आवश्यकता इस बात की है कि हम इसमें और अधिक बुद्धि और शक्ति लगायें। यही हम सबका कर्तव्य है।

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