झोपड़ियों में उजाला फैला रहीं रमा पोपली, इनकी पाणिनि माइंड ओपनिंग तकनीक के सभी हैं कायल Ranchi News
Panini Mathematician Formula. गुमला जिले के बिशुनपुर से शुरू कर राजधानी रांची तक 36 साल से बिना संसाधन के ही गरीब बच्चों को शिक्षा देने का सिलसिला जारी है।
By Sujeet Kumar SumanEdited By: Updated: Sun, 06 Oct 2019 05:22 PM (IST)
रांची, [दिव्यांशु]। मूल रूप से पंजाब की रहनेवाली 60 वर्षीय रमा पोपली ने अपना पूरा जीवन गरीबों, आदिवासियों और दिव्यांगों का जीवनस्तर ऊपर उठाने में समर्पित कर दिया है। वह पिछले 35 वर्षों से झारखंड में गरीब बच्चों को शिक्षा देने के अभियान में जुटी हैं। इस मकसद को पूरा करने में उन्होंने अपना सुख-सुविधा से भरा जीवन दशकों पहले पीछे छोड़ दिया है।
आरएसएस की विचारधारा से जुड़ी पोपली उन गिने-चुने लोगों में हैं, जिन्होंने सुदूर ग्र्रामीण इलाकों में शिक्षा की अलख जगाने के लिए संघ के एकल विद्यालय अभियान की परिकल्पना में भी अहम भूमिका निभाई। रमा पोपली और राकेश पोपली के शिक्षा के पाणिनी माइंड ओपनिंग टेक्निक के सभी कायल हैं। आज अभाव में रहनेवाले बच्चों की जिंदगी संवारने में एकल, बाल संस्कार केंद्र जैसे अनेक अनौपचारिक शिक्षा केंद्र जुटे हैं।
गुमला के बिशुनपुर से हुई शुरुआतदिल्ली विश्वविद्यालय से एमफिल करने के बाद रमा पोपली 1984 की जनवरी में अपने पति डॉ. राकेश पोपली के साथ पहली बार गुमला जिले के बिशुनपुर पहुंची थीं। तब अमेरिका से न्यूक्लियर साइंस पढ़कर लौटे राकेश पोपली और रमा पोपली की छह महीने पहले ही शादी हुई थी। इसी दौरान दोनों ने यह भी तय कर लिया कि अब आगे का जीवन उनके लिए समर्पित कर देना है, जो अभाव में जी रहे हैं।
खेल-खेल में पढ़ाई का आनंदगुमला के बिशुनपुर से सेवा कार्यों की शुरुआत करने के बाद पोपली अब रांची में बच्चों के लिए स्कूल का संचालन कर रही हैं, जहां खेल-खेल में बच्चों को भाषा, विज्ञान और गणित के जटिल सूत्र समझाए जाते हैं। पोपली कहती हैं कि यह हमारी वैदिक शिक्षा पद्धति है, जिसमें बच्चों को पढ़ाई बोझ नहीं लगती, बल्कि वे इसमें आनंद लेते हैं। पेड़-पौधे, फूल, तितलियां, माचिस की तीलियां, छोटे-छोटे कंकड़ से लेकर आसपास की तमाम चीजें उनके स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का माध्यम हैं।
आदिवासियों के बीच रहकर भाषा और उनकी संस्कृति से हुईं अवगतउच्च शिक्षा और दिल्ली के माहौल से आईं रमा पोपली के लिए गुमला-रांची-लोहरदगा में बोली जाने वाली भाषा सादरी पूरी तरह से अनजान थी। इस वजह से इन्होंने आदिवासी परिवार में उन्हीं की तरह रहना शुरू किया। वही खाना, उन्हीं की भाषा में संवाद और आदिवासी बच्चों के लिए शिक्षा देने का काम, यही इनकी 1984 से दिनचर्या बन गई।
बिना संसाधन के भी शिक्षा संभवरमा पोपली ने बताया कि कई सालों तक महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा, बिनोबा भावे, बाबा आम्टे, जयप्रकाश नारायण की शिक्षा पद्धति का विचार करते हुए कुछ नए प्रयोग शुरू किए। राकेश पोपली जी के साथ मिलकर यह तय पाया कि पाणिनी ने 2500 साल पहले ध्वनियों के प्रयास स्थान और उपयोग स्थान का जो माध्यम वर्णमाला के लिए अपनाया था वह सबसे उचित तरीका है।
इसके बाद पाणिनि माइंड ओपनिंग टेक्निक की विधा सामने आई। इसमें पेड़ की जड़ से लेकर पत्तों तक का उपयोग किया और गणित के सवाल से लेकर भाषा-व्याकरण तक सब की शिक्षा देने लगे। पत्तियों फूलों का रंग वर्णमाला की पहचान बन गया। पांच केंद्रों से इस प्रणाली की शुरूआत हुई जो 30 केंद्रों तक पहुंची और बिना किसी व्यर्थ खर्च के बच्चे इससे शिक्षित होने लगे।राकेश पोपली की मृत्यु के बाद जारी रहा काम
2007 में रमा पोपली के पति डॉ. राकेश पोपली का कैंसर की बीमारी से निधन हो गया। इसके बाद कुछ दिनों के लिए यूनिसेफ और राजस्थान सरकार के साथ रमा जी जुड़ीं, लेकिन, तीन साल बाद वापस रांची लौट आईं और बीआईटी मेसरा के साथ किसलय विद्यालय की अवधारणा से जुड़ गईं।
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