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ईसाई मिशनरियों के तमाम दुष्चक्र के बावजूद अपने धर्म पर अडिग रहने वाली इस वृद्धा को सलाम

पूर्व की रघुबर सरकार ने मतांतरण को रोकने के लिए कड़ा कानून बनाया था। इसमें प्रविधान किया गया था कि यदि कोई बालिग अपनी इच्छा से कोई मतांतरण करना चाहता है तो उसे पहले जिला प्रशासन से अनुमति लेनी होगी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 27 Aug 2021 02:03 PM (IST)
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दबावों के बावजूद अपने इरादे पर अटल मंझली मरांडी अपने पोते के साथ। जागरण आर्काइव

रांची, प्रदीप शुक्ला। हजारीबाग जिले की दिगवार पंचायत की 75 वर्षीय बुजुर्ग मंझली मरांडी को सौ-सौ बार सलाम! उनकी सनातन धर्म में अगाध आस्था को सलाम। ईसाई मिशनरियों के तमाम दुष्चक्र के बावजूद अपने धर्म पर अडिग रहने व मतांतरण के लिए तैयार न होने की उनकी जिद को सलाम। साथ ही सेवा भाव की आड़ में छल, कपट, झूठ और भय दिखाकर भोले-भाले गरीबों, आदिवासियों को मतातंरित कराने के खेल में शामिल मिशनरियों के कुरूप चेहरे को एक बार फिर जगजाहिर करने के लिए सलाम।

मंझली मरांडी के बहाने मतांतरण का मुद्दा एक बार फिर से विमर्श में आ गया है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। हर दो-तीन महीने में राज्य में किसी न किसी सुदूर ग्रामीण इलाके से मतातंरण की खबरें आती रहती हैं। कुछ दिन हिंदू संगठनों का हो-हल्ला और फिर सब शांत। सवाल उठता है कि 150 वर्षो से भी ज्यादा समय से चले आ रहे ईसाई मिशनरियों के इस गैरकानूनी कृत्य पर आखिर अंकुश कैसे लगेगा?

झारखंड में आदिवासियों के बीच भगवान की तरह पूजे जाने वाले बिरसा मुंडा ने करीब सवा सौ साल पहले ईसाई मिशनरियों के खिलाफ उलगुलान (आंदोलन) किया था। आज की परिस्थितियां उससे इतर नहीं हैं। कोरोना के दौरान जब निस्वार्थ भाव से समाज के सभी तबके एक-दूसरे की मदद कर रहे थे, तब भी मिशनरियां मतातंरण के खेल में लगी रहीं। सुदूर ग्रामीण अंचलों, जंगलों में रहने वालों के बीच वह सक्रिय रहीं।

हजारीबाग के दारू प्रखंड के कई गांवों में करीब 200 लोगों के मतांतरण का मामला सुर्खियों में है। वहां रहने वाली बुजुर्ग मंझली मरांडी के परिवार के नौ सदस्य मिशनरियों के जाल में फंसकर अपना मूल धर्म छोड़ गए। ईसाई मिशनरियों के साथ मिलकर घर के अनेक सदस्य मंझली मरांडी का भी मतांतरण कराने की साजिश रचते रहे, लेकिन वह अपने मूल धर्म में बने रहने के निर्णय से टस से मस नहीं हुईं और बजरंगबली की आराधना जारी रखी। मंझली कहती हैं, ‘मैं जन्म से हिंदू हूं और मरते दम तक हिंदू ही रहूंगी। बजरंगबली हमारे देवता हैं।’

बड़ा सवाल यह है कि सब कुछ जानने-समझने के बावजूद ईसाई मिशनरियां दशकों से इतनी बड़ी संख्या में मतांतरण करवाने में कामयाब कैसे हो रही हैं? यह बात पूरी तरह सच है कि सिर्फ धर्म बदलने भर से गरीबी, अशिक्षा, बीमारियां दूर नहीं हो सकतीं और न ही तमाम सुख-सुविधाएं मुहैया हो सकती हैं। मतांतरित हुए लोग यह खुलकर कहते हैं कि उन्हें बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा, उपचार व अन्य तमाम प्रकार के लालच दिए गए। कई बार तो डराया-धमकाया तक गया है।

मतांतरण का खेल सिर्फ झारखंड में चल रहा हो ऐसा भी नहीं है। देश के लगभग सभी राज्यों में ये गतिविधियां लगातार जारी हैं, लेकिन यहां यह बड़े पैमाने पर हो रहा है। राज्य मे ईसाई मिशनरियों की सक्रियता बहुत ज्यादा है और उनकी भोले-भाले आदिवासियों के बीच गहरी पैठ बनी हुई है। घोर अभाव में जीवन यापन कर रहे इन लोगों को जब कोई समूह बेहतर जिंदगी के सब्जबाग दिखाता है तो वह बरबस उसकी तरफ आकर्षति होते हैं। एक बार सुनियोजित ढंग से आयोजित की जानी वाली प्रार्थना सभाओं में जिनका आना-जाना शुरू हो जाता है, उनकी परिणति मतांतरण तक पहुंचती है। छोटी-छोटी सुविधाएं मिलने, जरूरत पर कुछ धन मिल जाने पर लोग आसानी से उनका शिकार बन जाते हैं।

पूर्व की रघुबर सरकार ने मतांतरण को रोकने के लिए कड़ा कानून बनाया था। इसमें प्रविधान किया गया था कि यदि कोई बालिग अपनी इच्छा से कोई मतांतरण करना चाहता है तो उसे पहले जिला प्रशासन से अनुमति लेनी होगी। इस कानून की भी धज्जियां उड़ रही हैं। ऐसे में मंझली मरांडी तमाम भटके लोगों के लिए नजीर हैं। अभावों से भरी जिंदगी जीने के बावजूद वह अपने धर्म के प्रति कटिबद्ध हैं। अधिकतर मतातंतरण अनुचित प्रभाव तथा मिथ्या प्रचार द्वारा किए गए हैं। लोगों को अंत:करण की प्रेरणा से नहीं वरन अनेक प्रकार के प्रलोभनों द्वारा ही ईसाई बनाया गया है। छोटे बच्चों को विद्यालयों में शिक्षा देने के बहाने तथा उन्हें शिक्षा संबंधी अन्य सुविधाएं जैसे बिना मूल्य पुस्तकें और बिना शुल्क पढ़ाई आदि की व्यवस्था करके उन्हें मतांतरण की प्रेरणा दी जा रही है। जब तक हम यह कुछ लोगों अथवा संगठनों का काम समझते रहेंगे, बहुत बड़ा बदलाव आने वाला नहीं है।

भगवान बिरसा मुंडा बचपन में ही ईसाई मिशनरियों की साजिश का शिकार हो गए थे। 12 वर्ष की उम्र में ही उन्हें इसकी समझ पैदा हुई तो वह अपने आदि धर्म में लौटे और अगले 13 साल तक अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोले रखा। दुर्भाग्य कि उन्हें भगवान मानने वाले तमाम लोग भी इस गैरकानूनी कृत्य में शामिल हो चुके हैं। इनसे तो सचेत रहना ही होगा, यह भी देखना होगा जब गांवों में सुनियोजित ढंग से ऐसी गतिविधियां शुरू होती हैं तो कोई टोका-टाकी क्यों नहीं होती? मतांतरण को रोकना हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी होनी चाहिए।

[स्थानीय संपादक, झारखंड]

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