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Valmiki Jayanti 2020: बड़ी रोचक है रामायण लिखने की कहानी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामाजिक समरसता मंच ने शनिवार को बाल्मीकि जयंती पर कई जगहों पर कार्यक्रम किए। रांची में आयोजित एक कार्यक्रम में मंच के प्रांत संयोजक दिनेश मंडल ने कहा कि आप जो भी कर्म करते हैं उसके भागीदारी आपही होते हैं। इसी विषय पर बाल्मीकि जी...

By Vikram GiriEdited By: Updated: Sat, 31 Oct 2020 03:09 PM (IST)
बड़ी रोचक है रामायण लिखने की कहानी। फाइल फोटो
रांची (संजय कुमार) । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामाजिक समरसता मंच ने शनिवार को बाल्मीकि जयंती पर कई  जगहों पर कार्यक्रम किए।  रांची में आयोजित एक कार्यक्रम में मंच के प्रांत संयोजक दिनेश मंडल ने कहा कि आप जो भी कर्म करते हैं उसके भागीदारी आपही होते हैं। इसी विषय पर बाल्मीकि जी का जीवन बदल गया था। उन्होंने जब रामायण लिखी तो उसका प्रसंग भी काफी रोचक है।  कहा, सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि ने की। श्री राम एवं महर्षि वाल्मीकि त्रेता युग में हुए थे। बाल्मीकि का बचपन का नाम रत्नाकर था। उनके पिता प्राचेतस नाम के मुनि थे। गंगा नदी के किनारे जंगल में कई मुनियों का वास था।

प्राचेतक मुनी भी इसी जंगल में गंगा नदी के किनारे रहते थे। जब रत्नाकर बहुत छोटा था तो खेलते खेलते जंगल की ओर निकल गया। जंगल में बालक अपने आप को अकेला पाकर जोर जोरसे रोने लगा। उसी मार्ग से एक शिकारी अपने घर को जा रहा था। बालक को रोता हुआ देख उसे गोद में उठा लिया। बालक को लेकर शिकारी अपने घर गया। शिकारी निःसंतान था। शिकारी की पत्नी ने बालक को बड़े लाड़- प्यार से पालना प्रारंभ किया। इधर उसके पिता प्रा- चेतस ऋषि ने बच्चे को चारों ओर बहुत ढूंढा। बच्चा जब नहीं मिला तो उसने सोच लिया की उसे किसी जंगली जानवर ने खा लिया होगा। मुनि तथा मुनि की पत्नी बहुत निराश होकर रहने लगे। इधर रत्नाकर धीरे धीरे जवान हो गया। शिकारी ने रत्नाकर को शिकार खेलने की कला सिखाई।

वह शिकार में बहुत निपुण हो गया। उसका लक्ष्य अचूक था। बालक  पशु तथा पक्षियों के लिए काल ही था। जब रत्नाकर युवा हुआ तो उसके दत्तक पिता ने शिकारी परिवार के एक सुंदर कन्या से उसकी शादी कर दी। कुछ ही दिनों में रत्नाकर का परिवार बड़ा हो गया। अब रत्नाकर के लिए इस बड़े परिवार एवं माता पिता के लिए वस्त्र तथा भोजन की व्यवस्था करना कठिन हो गया। इस लिए वह डाकू बन गया। जंगल के सड़क के किनारे वह खड़ा रहता और जो राहगीर उस ओर से जाता उसे मार पीट कर उसका सब कुछ छीन लेता। एक दिन रत्नाकर खड़ा होकर राहगीर की प्रतीक्षा कर रहा था, उसी समय नारद मुनि वीणा बजाते हुए उस मार्ग से जा रहे थे। अचानक रत्नाकर नारद मुनि की ओर दौड़ा और अपने बलिष्ठ बाहों से नारद जी को पकड़ लिया।

उसने नारद जी से कहा तुम्हारे पास जो कुछ भी है उसे हमें दे दो। पर नारद जी कोई सामान्य पुरुष नहीं थे, वे तो महर्षि थे। देव ऋषि नारद ने धरती आकाश पाताल तीनों लोकों  का भ्रमण किया था। वे रत्नाकर के इस व्यवहार से जरा भी नहीं घबराए, ना ही डरे। ऋषि बोले - हे मानव मेरे पास जो कुछ है वह यह पुरानी वीणा और राग है। यदि तुम चाहो तो अवश्य ही इसे ले सकते हो। इस छोटी सी बात के लिए मेरा सर फोड़ने एवं मारने की क्या आवश्यकता है। रत्नाकर नारद मुनि के भाव भंगिमाओं को देख कर आश्चर्य चकित हो गया। उनके चेहरे पर ना भय था ना क्रोध बल्कि सौम्यता विराजमान थी। उनके चेहरे से ओज टपक रहा था, उनका कोमल तथा निर्दोष चेहरे को देख रत्नाकर आश्चर्य में पड़ गया। ऐसा सलोना चेहरा उसने पहले कभी नहीं देखा था।

नारद जी एक पेड़ के नीचे बैठ वीणा बजाने लगे और कोयल के कुक की तरह मधुर स्वर में ईश्वर की प्रार्थना करने लगे। रत्नाकर नारद जी के इस आचरण को देख कर बहुत प्रभावित हो गया। नारद जी ने वकहा भाई तुम डकैती क्यों करते हो? डकैती करना एवं पशुओं को मारना तो पाप है। मैं क्या कर सकता हूं महाशय मेरा एक बड़ा परिवार है। उसमें माता पिता बच्चे पत्नी सब हैं ,उनका भरण -पोषण मैं कैसे करूं?मुझे तो केवल शिकार करना तथा डकैती करना यही दो काम मालूम है। नारद जी बोले मित्र तुम्हारे इस पाप कर्म में तुम्हारे परिवार के लोग भी भागीदारी करेंगे,? घर से पूछ कर आओ। रत्नाकर को लगा कि यह अपने भागने का जुगाड़  लगा रहे हैं। अतः रत्नाकर ने नारद जी को एक पेड़ से बांध दिया। घर पहुंच कर रत्नाकर ने परिवार के सभी लोगों से एक-एक कर पूछा क्या तुम हमारे पाप कर्म का भागीदार बनोगे।

यह सुनकर पिता क्रोधित हो गए और कहा- तुम पापी हो तुम्हें ऐसे बुरे कार्य नहीं करने चाहिए। जो पाप तुम कर रहे हो उसके परिणाम तो तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। रत्नाकर के माता पिता तथा पत्नी ने कहा यह पाप कर्म कर आप परिवार का भरण पोषण क्यों करते हैं?अब रत्नाकर की आंख खुली और उसे लगा की सभी पाप कर्मों के लिए केवल वही जिम्मेवार है। उसके अंदर श्रद्धा का भाव नारद जी के प्रति जागृत हो गया और तुरंत जाकर उसने उन्हें बंधन से मुक्त कर, क्षमा मांगी। रत्नाकर बैठ कर रोने लगा और नारद जी से प्रार्थना करने लगा और पूछा मैं क्या करूं ?नारद जी ने उसे उठाया और उसके आंसू पोंछकर शांत कराते हुए बोले डरो मत मैं तुम्हें पाप से मुक्ति का रास्ता बताऊंगा ,उसके बाद उन्होंने रत्नाकर को राम नाम का पाठ पढ़ाया।

उन्होंने रत्नाकर को एक पेड़ के नीचे बैठने तथा राम नाम का जप करते रहने को कहा। वह बोले मैं यहां फिर आऊंगा तब तक तुम ना तो यहां से उठना और ना कहीं जाना । यह कर नारद जी वहां से चले गए। रत्नाकर राम नाम का उच्चारण करते हुए तपस्या करने लगा।उसकी आंखें बंद थी और सारा ध्यान भगवान के नाम के उच्चारण पर केंद्रित था। कई दिनों तक वह न खाया न सोया इसी प्रकार अनेक वर्ष बीत गए। धीरे धीरे उसके चारों ओर दीमको ने बांबी( घर) बना ली यहां तक कि बांबी में वह पूरा ढक गया जिसके कारण कोई उसे देख भी नहीं सकता था।अंत में एक दिन फिर नारद मुनि वहां आए वे जानते थे की बांबी के नीचे रत्नाकर है।

उन्होंने सावधानी से बांबी को साफ किया। इस पर भी रत्नाकर को आसपास की कोई खबर नहीं हुई।और वह तपस्या में खोया रहा जब नारद जी ने उसके कान में राम नाम का उच्चारण किया तब कहीं उसने आंखें खोली और सामने नारद जी को खड़ा पाया। उसने बैठे-बैठे नारद जी को प्रणाम किया नारद जी ने उसे उठने में मदद की और धीरे-धीरे उसके शरीर पर हाथ फेरने लगे उससे रत्नाकर में स्फूर्ति आई। उसने फिर नारद मुनि के चरण स्पर्श किए। मुनि ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और और कहां रत्नाकर मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं-भगवान तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुए।आज से तुम सब में श्रेष्ठ संत महर्षि हुए। चुकी बांबी"यानी बाल्मीकि" से तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है इसलिए अब से तुम बाल्मीकि के नाम से प्रसिद्धि पाओगे। यह सुनकर बाल्मीकि की आंखों में आनंद के आंसू बहने लगे वह फिर मुनि के चरणों में गिर गया और बोला 'महाशय' यह सब आप की ही कृपा है।अच्छे लोगों की संगति से ही मनुष्य ऊपर उठता है,मैं स्वयं उसका उदाहरण हू।नारद जी ने उसे फिर से आशीर्वाद दिया और अपने रास्ते चले गए।बाल्मीकि ने गंगा नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया।

चारों और उसकी ख्याति फैलने लगी।कई अन्य मुनियों ने भी अपने परिवार लेकर उनके आश्रम आकर उनके शिष्य बन गए। कुछ दिन के बाद श्री राम अपने भाई लक्ष्मण तथा सीता के साथ उस आश्रम में आए राम के आगमन पर वाल्मीकि जी को बहुत प्रसन्नता हुई और उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि राम पिता की आज्ञा से वन में रहने के लिए आए हैं। उन्होंने राम की प्रशंसा करते हुए कहा कि आप पिता के इतने आज्ञाकारी है मैं तो आपका नाम लेकर हीं इतना बड़ा महर्षि हो गया। राम मुस्कुराए और उन्होंने कहा हे मुनीवर मैं आपके आश्रम में रहने के लिए आया हूं।कृपया हमें उचित स्थान बताइए। आश्रम के निकट चित्रकूट पर्वत था वह रमणीक स्थल अनेक प्रकार के फलदार वृक्षों से भरा हुआ था।

उन्होंने यही स्थान रामचंद्र जी को बताया रामचंद्र जी अपनी पत्नी तथा भाई के साथ कुछ काल तक चित्रकूट में रहे। बाल्मीकि मुनि की तरह ही रामायण की रचना की कहानी भी बहुत मनोरंजक है। एक दिन नारद मुनि उनके आश्रम में आए। बाल्मीकि बहुत खुश हुए उन्होंने बड़े श्रद्धा भाव से दूध और फल नारद जी के सामने रखे फिर वह शिष्यों समेत हाथ जोड़कर नारद जी के सामने बैठ गए तब इन्होंने देवर्षि नारद जी से कहा- महामना आप तीनों लोकों में ऐभ्रमण करते हैं अतः आप कृपया बताएं कि पृथ्वी पर सर्वगुण संपन्न कौन है? ऐसा कौन व्यक्ति है जो हमेशा सत्य बोलता हो तथा शांत रहता हो, वह कौन है जो हर एक का कल्याण चाहता है और सब उसे प्यार करते हैं?वह कौन व्यक्ति है जिसके वचनों एवं कर्मों की देवता भी प्रशंसा करते हैं? संसार में सबसे सज्जन मनुष्य और सबसे बड़ा नायक कौन है? बाल्मीकि के प्रश्नों के उत्तर में नारद जी ने केवल राम का नाम लिया।

उन्होंने बताया कि किस प्रकार राम ने राजा दशरथ के जेष्ठ पुत्र के रूप में जन्म लिया। किस प्रकार सीता से उसका विवाह हुआ और कैसे वह पिता की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए 14 वर्ष के वनवास पर गए। उन्होंने विस्तार पूर्वक बताया कि कैसे रावण ने सीता का हरण किया। किस प्रकार इस राक्षस का राम के द्वारा वध हुआ। रावण वध के बाद सीता तथा लक्ष्मण सहित राम अयोध्या को लौटे और अंत में राज तिलक हुआ। यह सब जानकर बाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने नारद मुनि की स्तुति की और उनके सामने नतमस्तक हो गए देवर्षि ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वहां से चले गए। बाल्मीकि कुछ दिनों के बाद गंगास्नान के लिए निकले। उनका एक शिष्य भरद्वाज उनके वस्त्र लेकर उनके साथ चल रहे थे। रास्ते में उन्हें तमसा नदी मिली जिसका पानी एकदम स्वच्छ था। यह देख वे अपने शिष्यों से बोले- देखो इसका जल कितना स्वच्छ है ठीक एक सज्जन मानव के मन की तरह। आज मैं यहीं स्नान करूंगा।नदी में उतरने के लिए जब वह उचित स्थान की खोज में थे तो उन्हें पक्षियों की मोहक चहचहाहट सुनाई दी ।

उन्होंने ऊपर देखा तो पाया कि दो पक्षी साथ-साथ गगन में उड़े जा रहे हैं आनंद मग्न युगल पक्षियों को देख वे बहुत प्रसन्न हुए उसी समय उनमें से  एक पक्षी को तीर लगा और वह घायल होकर नीचे गिर पड़ा वह नर पक्षी था उसे घायल हुआ देख मादा पक्षी कातर हो चिल्लाने लगी। इस करुणा जनक दृश्य को देख उनका दिल करुणा से भर उठा। उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई की पक्षी को मारने वाला कौन है? पास ही उन्हें तीर कमान लिए एक शिकारी दिखाई दिया उसने आहार के लिए उस पक्षी को मारा था। यह देख उनकी वाणी शाप के रूप में पड़ी- क्योंकि तुमने सुखी युगल में से एक पक्षी का वध किया है इसलिए तुम भी अधिक दिन जीवित नहीं बचोगे यह वाक्य उनके होठों से संस्कृत के श्लोक के रूप में निकला। श्लोक का अर्थ कविता की दो पंक्तियों से होता है - उनकी व्यथा में एक श्लोक को जन्म दिया। पक्षियों के दर्द से दुखी होकर शिकारी को शाप तो दिया पर ऐसा करने पर उन्हें बेहद दुख हुआ। अपना दुख उन्होंने शिष्य भारद्वाज के सामने प्रकट किया वे स्वयं आश्चर्य चकित रह गए कि कैसे उनके होठों से श्लोक निकला। स्नान करते समय भी वे इसी बारे में सोचते रहे ।

आश्रम में आते समय तथा बाद में भी उन्हें केवल इस श्लोक का ही ध्यान रहा। जब उनका मस्तिष्क उनकी वाणी से श्लोक के बारे में गहराई से विचार कर रहा था तब उसी समय सृष्टि के रचने वाले भगवान ब्रह्मा वहां प्रकट हुए और बोले - महर्षि जो श्लोक तुम्हारी वाणी से निकला उसकी प्रेरणा मैंने दी थी। अब तुम श्लोक के रूप में रामायण की रचना करोगे। नारद जी ने तुम्हें रामायण की कथा सुनाई है। जो कुछ घटित हुआ है उसे तुम स्वंय अपनी आंखों से देखोगे और आगे के बारे में जो कुछ तुम लिखोगे वह भी सच होगा। तुम्हारे सारे वचन सत्य होंगे।जब  तक संसार में नदियां और पर्वत कायम है लोग रामायण पदेंगे। इस प्रकार आशीर्वाद देकर ब्रह्माजी अंतर्ध्यान हो गए। इसके बाद वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। सबसे पहले उन्होंने श्री रामचंद्र जी के पुत्रों 'लव' तथा' 'कुश' को श्लोक सिखाया, यह दोनों जुड़वा भाई उनके आश्रम में जन्मे थे तथा बड़े हुए थे।

बाल्मीकि के आश्रम में लव कुश का जन्म हुआ

यह भी एक रुचिकर कहानी है कि एक महाराज के सुपुत्र होकर भी बाल्मीकि के आश्रम में लव कुश का जन्म हुआ। वह तेजी से चल कर गंगा के किनारे पहुंचे पास ही आश्रम था। लेकिन लक्ष्मण जी आश्रम तक नहीं गए। वह निकट ही जंगल में उतर गए और सीता जी को रथ से उतरने में सहायता दी, फिर अश्रु भरे नेत्रों से बोले मां श्रीराम ने मुझे आपको बन में छोड़ने की आज्ञा दी है। कुछ लोगों ने शंका कर आप के प्रति बुरे विचार व्यक्त किए हैं। रावण के बंदी वास  से आपको वापस लाने पर वे श्रीराम पर दोषारोपण कर रहे हैं। लक्ष्मण ने कहा -राजा को प्रजा का विश्वास जीतना होता है, इसलिए श्रीराम ने आप का परित्याग किया है। इससे उन्हें अत्यंत पीड़ा हुई है, किंतु कर्तव्य का विचार कर वे इसे सहन कर रहे हैं। मैंने उनके आदेशों का पालन किया है। आपको वन में छोड़ कर मैं बहुत बड़ा पाप कर रहा हूं ,कृपया मुझे क्षमा कर देना। फिर उन्होंने सीता जी के चरण स्पर्श किए और उन्हें वन में विलाप करता छोड़ अयोध्या लौट गए।खड़ी रहने में असमर्थ सीता धरती पर लेट गई।

उन्हें अपने जीवन की सारी घटनाएं याद आने लगी, जिस स्त्री ने सदा अपने पति को परमेश्वर माना क्या उसके जीवन का यही अंत  होना चाहिए वे यह सोच -सोच कर विलाप करने लगी। इस पर भी उन्होंने अपने पति को दोष नहीं दिया और इस स्थिति को अपना दुर्भाग्य मान लिया ।वह शीघ्र मां बनने वाली थी और यात्रा में थक चुकी थी, दिन भर कुछ ना खाने और मन में संताप होने से वे और कुम्हला गई। संतप्त मुंद्रा से निढाल हो वे एक पेड़ के नीचे सो गयी। संध्या समय जब उनकी नींद खुली तो वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें। वह विलाप करने लगी उसी समय बाल्मीकि के शिष्य अपने गुरु के लिए फूल -पत्ती लेने उधर आए। सीता जी के रोने की आवाज सुनकर वे उसी दिशा में बढ़े सीता जी के  पास पहुंच कर उन्होंने पूछा' मां 'आप कौन हैं? और जंगल में अकेले विलाप करने का कारण क्या है? हम लोग ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं। आप कोई शंका मत करिए,गुरुजी का आश्रम निकट है आप कृपया कर हमारे साथ आइए वाल्मीकि मुनि का नाम सुनकर सीताजी को कुछ धीरज बंधा और शिष्यों के साथ आश्रम तक गई ।वाल्मीकि को देख कर सीता जी ने अत्यंत श्रद्धा पूर्वक उन्हें प्रणाम किया, और फिर रोते हुए अपने संपूर्ण कथा मुनि को कह सुनाई।

जिसे सुनकर वाल्मीकि द्रवित हो उठे और तरह-तरह से उन्होंने सीता जी को धीरज बंधाया उन्हें विश्वास दिलाया कि वे उनके रहने की व्यवस्था आश्रम में कर देंगे। उन्होंने आश्रम की महिलाओं को बुलाकर सीता जी की देखभाल करने का आदेश दिया और बताया कि सीता जी अत्यंत सदाचारी नारी हैं इसलिए उनकी हर प्रकार से समय पर एवं सावधानी से देखभाल की जानी चाहिए।कुछ दिनों के बाद सीता जी ने दो लड़कों को जन्म दिया। ये बालक शुभ घड़ी, शुभ नक्षत्र ,में शुभ दिवस पर उत्पन्न हुए थे। दोनों बच्चे सुंदर थे ,उन्हें देखकर बाल्मीकि आनंदमग्न हो गए। जन्म के दसवें दिन उन्होंने एक बच्चे का नाम लव तथा दूसरे का नाम कुश रखा आश्रम का हर वासी दोनों बालकों से बहुत प्यार करता नजर आता था। बच्चों के प्रति आश्रम वासियों का असीम प्यार देख सीता जी को परम संतोष होता था और बच्चों को देखकर उन्होंने अपने दुखों को भुला दिया।

इससे वाल्मीकि ने भी संतोष की सांस ली। आश्रम में लव -कुश बढ़ते चंद्रमा की तरह दिनों दिन बड़े होने लगे। इन बालकों को प्रथम अक्षर बाल्मीकि ने सीखाया फिर उन्हें पढ़ना लिखना बताया। बच्चों ने बहुत सी प्रार्थनाएं एवं गीत सीख लिए। उनकी आवाज बड़ी मीठी थी। जब वह गाते आसपास के लोग मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। बाल्मीकि अक्सर सीता जी के समक्ष लव -कुश को गीत गवाया करते थे ,जो सीता जी के लिए अमृत की भांति होते थे। 8 वर्ष का होने पर वाल्मीकि ने लव कुश का उपनयन संस्कार किया इसके बाद वे उन्हें वेद पढ़ाने लगे।

दोनों बालकों को बाल्मीकि ने रामायण याद कराई

 इस समय तक उन्होंने रामायण की रचना पूरी कर ली थी और  बालकों को पढ़ाई भी। दोनों बच्चों ने रामायण कंठस्थ कर लीऔर इतने मर्मस्पर्शी स्वर में उसे गाया की वाल्मीकि आह्लाद से भर उठे। उन्होंने सीता जी के सामने बच्चों से रामायण गवायी। मधुर स्वर तथा रामायण के स्वर पाठ ने उनकी कहानी को नई सुंदरता प्रदान की, तथा हृदयस्पर्शी बना दिया। आश्रम में बालक दिन प्रतिदिन बड़े होते गए और साथ-साथ विद्या अध्ययन में भी आगे बढ़ते गए। इधर रामचंद्र जी ने अश्वमेध यज्ञ करने का विचार किया। उन दिनों अश्वमेध यज्ञ करना कोई मामूली बात नहीं थी। यह अनेक राजाओं की सबसे बड़ी इच्छा और लक्ष्य होता था।

राजाओं में अत्यंत वीर ही इस यज्ञ को कर पाते थे ।अश्वमेघ करने वाले राजा को एक ऊंची नस्ल वाले अश्व (घोड़ा) की पूजा करनी पड़ती थी, फिर उसको घूमने के लिए खुला छोड़ दिया जाता था। यदि कोई दूसरा राजा घोड़ा बांध देता तो उसे युद्ध में पराजित करना पड़ता था। इसी प्रकार जो राजा अश्वमेघ यज्ञ करना चाहता था उसे पृथ्वी के सभी राजाओं पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती सम्राट बनना पड़ता था। जब सारे देशों में घूम कर वापस आ जाता तब उस का मालिक यज्ञ कर सकता था। रामचंद्र जी ने भी यह साहस पूर्ण कार्य हाथ में लिया। संजोग कुछ ऐसा रहा कि जब यह महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पहुंचा तो कौतूहलवश लव -कुश ने उसे रोक लिया। इस तरह 2 ऋषि कुमारों द्वारा अश्व रोक लिए जाने का समाचार बिजली सा फैल गया। अश्व के रक्षकों ने लव -कुश से अश्व को छोड़ने के लिए कहा पर वह नहीं माने ।फिर युद्ध हुआ,, जिसमें लव कुश के आगे बड़े-बड़े वीरों ने भी माथा टेक दिए। लक्ष्मण जी को भी जब पीछे हटना पड़ा तो भगवान श्री रामचंद्र जी स्वयं वहां पहुंचे ,और इन दोनों कुमारों की उन्होंने प्रशंसा की। रामचंद्र जी ने वाल्मीकि से इन दोनों कुमारों को यज्ञ में लाने का आग्रह किया।

पृथ्वी के सभी अन्य राज्यों में भी राम को चक्रवर्ती सम्राट स्वीकार कर श्रद्धा बंद हो उन्हें उपहार भेज दिए तब उन्होंने महान अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया धरती पर रहने वाले सभी ऋषि मुनि इस अवसर पर आमंत्रित किए गए। वाल्मीकि भी अपने शिष्यों के साथ वहां पहुंचे। रामचंद्र जी का अश्वमेध यज्ञ एश्वर्य पूर्ण समारोह के साथ कई दिनों तक चलता रहा। गरीबों को उनकी इच्छानुसार कपड़ा एवं भोजन दिया गया। उदारता पूर्वक दान दक्षिणा पाकर ब्राह्मण और ऋषिगण अत्यंत प्रसन्न हुए। अंतिम दिन जब सभी ऋषि मुनि एक जगह एकत्रित हुए तब वाल्मीकि ने लव -कुश से रामायण गाने को कहा। उस दिन पूर्णिमा था।

बाल्मीकि समाज के लोगों को हमने अछूत मान लिया है

उन्होंने कहा, ब्रह्मा ऋषि बाल्मीकि ने रामायण की रचना की ।भारतीय अध्यात्म को सर्वश्रेष्ठ स्थान पर स्थापित किया।परमपिता ब्रह्मा और मुनि श्रेष्ठ नारद के प्रिय पात्र बने। आज उसी बाल्मीकि समाज के लोगों को हमने अछूत मान लिया है! कैसी विडंबना है,इसी छुआछूत के कारण अपना देश 4000 से अधिक जातियों में बंटकर कमजोर हो गया है। साधारण से साधारण लुटेरों का हम सामना नहीं कर पाए। आज इस भूल को सुधारने की आवश्यकता है । हिन्दव: सोदरा: सर्वे, न हिंदू पतितो भवेत् के भाव से हम काम करें तो भारत को पुन: अपना गौरव प्राप्त करने से कोई रोक नहीं सकता ।सबका भला तो अपना भी भला ।

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