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झारखंड का यह गांव अन्य के लिए बना प्रेरणा, ग्राम प्रधान के प्रयास व संकल्प ने लिखी नई इबारत

विकास की तस्वीर तभी पूर्ण होती है जब वह सुदूर क्षेत्रों तक के नागरिकों का भी जीवन सुगम बनाए। साथ ही विकास की अवधारणा की पूर्णता के लिए एक स्वस्थ सुशिक्षित और जागृत समाज भी आवश्यक है। इन्हीं बिंदुओं पर कार्य करते हुए लखाईडीह प्रधान कान्हूराम टुडू झारखंड के सुदूर आदिवासी बहुल गांव की छवि बदलने में सफल रहे हैं।

By Mantosh Mandal Edited By: Mohit Tripathi Updated: Thu, 28 Dec 2023 07:47 PM (IST)
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ओडिशा की सीमा स्थित पहाड़ की चोटी पर बसा लखाईडीह गांव। (जागरण फोटो)
मंतोष मंडल (पूर्वी सिंहभूम, झारखंड)। विकास की तस्वीर तभी पूर्ण होती है, जब वह सुदूर क्षेत्रों तक के नागरिकों का भी जीवन सुगम बनाए। साथ ही विकास की अवधारणा की पूर्णता के लिए एक स्वस्थ, सुशिक्षित और जागृत समाज भी आवश्यक है। इन्हीं बिंदुओं पर कार्य करते हुए प्रधान कान्हूराम टुडू झारखंड के सुदूर आदिवासी बहुल गांव लखाईडीह की छवि बदलने में सफल रहे हैं।

गांव के पुरुषों को नशे की गिरफ्त से मुक्त कराने के बाद अब कान्हूराम का कारवां पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा के सीमावर्ती गांवों की ओर बढ़ चला है।

उन्होंने लखाईडीह में नशामुक्ति के साथ शिक्षा और पर्यावरण संरक्षण पर भी विशेष ध्यान दिया है, जिससे गांव विकास पथ पर अग्रसर हो अन्य के लिए प्रेरणास्रोत बन रहा है। 

जमशेदपुर स्थित जिला मुख्यालय से लगभग 80 किलोमीटर दूर लखाईडीह गांव में पहले अधिकतर युवा और प्रौढ़ हड़िया (चावल से बना नशीला पेय) या महुआ शराब के आदी थे। आज यह गांव हर तरह के नशे से मुक्त हो गया है। इस गांव को यह उपलब्धि अथक प्रयास के बाद मिली है।


(ओडिशा की सीमा स्थित पहाड़ की चोटी पर बसा लखाईडीह गांव : जागरण)

इससे उत्साहित होकर प्रधान कान्हूराम टुडू अब पूरे आदिवासी समुदाय को नशा मुक्त बनाने का संकल्प लेकर सक्रिय हैं।

इसी का फलाफल है कि लखाईडीह गांव में रहने वाले 1322 ग्रामीण न केवल जिला, बल्कि पूरे राज्य के लिए उदाहरण बन गए हैं।

प्रधान के नेतृत्व में यहां के ग्रामीण झारखंड, बंगाल व ओडिशा के लगभग 1238 गांवों के लाखों आदिवासियों को नशा मुक्त करा चुके हैं।

तकनीक की मदद से अभियान को बना रहे सफल

क्षेत्र भले ही दुर्गम हो, लेकिन टुडू अपने अभियान को सफल बनाने के लिए तकनीक की भी मदद ले रहे हैं। उन्होंने आल इंडिया सरना धर्म चेमेद आसड़ा आश्रम संस्था बनाई है, जिसकी हर एक-दो माह पर ऑनलाइन बैठक होती है। इसमें दूरदराज के गांवों के लोग भी शामिल होते हैं और उन्हें नशे से होने वाले नुकसान के बारे में बताया जाता है।

इसके अलावा जनजागरण अभियान भी चलता है, जिसमें जनजातीय भाषा में ही नशे के दुष्प्रभाव के बारे में बताया जाता है। जो गांव या टोला पूर्ण रूप से नशामुक्त हो जाता है, उसे प्रमाणपत्र दिया जाता है।

(ट्रेन की तरह बनाए अपने घर के पास ग्राम प्रधान कान्हूराम टुडू : जागरण)

गुरु से मिली थी प्रेरणा

कान्हूराम टुडू बताते हैं कि नशा मुक्ति व पर्यावरण संरक्षण के प्रेरणास्रोत उनके गुरु बनाव मुर्मू हैं। मयूरभंज, ओडिशा निवासी गुरु उनके गांव पहली बार वर्ष 1974 में आए थे।

वह कहते थे कि जब तक आप नशा नहीं छोड़ेंगे, जंगल की रक्षा नहीं करेंगे, कभी आगे नहीं बढ़ सकते। आपलोगों का जीवन बदतर होता जाएगा।

गांव में उनका आश्रम भी है। प्रतिवर्ष चैत्र पूर्णिमा को वार्षिक पूजा होती है, जिसमें झारखंड, बंगाल व ओडिशा के अलावा अन्य स्थानों से भी वैसे लोग पहुंचते हैं, जो नशा छोड़ चुके हैं।


(लखाईडीह गांव में ग्रामीणों को नशा व पर्यावरण के बारे में बताते कान्हूराम टुडू : जागरण)

आदिवासियों की बढ़ी आय, बच्चे पा रहे शिक्षा

प्रधान कान्हूराम के प्रयास से अब लखाईडीह गांव के 74 परिवार धान और सब्जी की खेती से वर्ष में लगभग दो लाख रुपये तक कमाते हैं। यहां के बच्चे अब शिक्षा भी ग्रहण कर रहे हैं।

गांव में एक मध्य और सरकारी आवासीय विद्यालय भी चल रहा है, जहां पूरे पूर्वी सिंहभूम जिले के विभिन्न क्षेत्र से लगभग 160 छात्र-छात्राएं हैं।

(लखाईडीह गांव स्थित राजकीय मध्य विद्यालय : जागरण)

गांव में आधारभूत संरचना निर्माण के लिए प्रधान के प्रयासों को आइएएस अधिकारियों निधि खरे, आराधना पटनायक व कमल किशोर सोन से काफी मदद मिली।

(लखाईडीह गांव स्थित राजकीय आवासीय विद्यालय : जागरण)

दुर्गम रास्ते पर बन रही सड़क

पहाड़ की चोटी पर बसे लखाईडीह गांव तक पहुंचने के लिए सीधी ऊंचाई में लगभग सात किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। पहले गांव तक पहुंचने के लिए पथरीले मार्ग से होकर पहुंचना पड़ता था।

अब आरसीसी सड़क बन रही है। यह करीब 3.5 किमी तक बन चुकी है। इससे गांव की पहुंच आसान होने से अन्य सुविधाओं तक भी आदिवासियों की पहुंच सुगम होगी।

प्रकृति की रक्षा का दायित्व

गांव नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। चारों ओर घने जंगल व पहाड़ के बीच बादलों का दृश्य हर किसी का मन मोह लेता है। जंगल की रक्षा के लिए चार-चार ग्रामीणों की टोली बनी है। पूजा-पाठ में ग्रामीण पीतल-कांसा के बर्तन या साल-सखुआ के पत्ते से बनी थाली-कटोरी में पूजन सामग्री रखते हैं। प्लास्टिक का प्रयोग नहीं किया जाता है।


(लखाईडीह गांव में पूजा-पाठ करते ग्रामीण : जागरण)

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