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National Handloom Day 2023: सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है भारत में हथकरघा का इतिहास

National Handloom Day 2023 जब भी बात भारतीय हैंडलूम की होती है तो हमारा ध्यान खादी की ओर जाता है। हम सभी जानते हैं कि खादी जैसे प्राकृतिक फाइबर को गांधी जी ने अंग्रेजों से लड़ाई के वक्त दोबारा जिंदा किया था। लेकिन प्राकृित फाइबर इससे कहीं ज्यादा पुराना है। आपको जानकर हैरानी होगी कि सबसे पहले सिंधु घाटी सभ्यता में प्राकृतिक फाइबर यानी रूई का इस्तेमाल किया गया था।

By Ruhee ParvezEdited By: Ruhee ParvezUpdated: Mon, 07 Aug 2023 12:01 PM (IST)
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National Handloom Day 2023: सिंधु घाटी सभ्यता से शुरू होता है भारत में हथकरघा का इतिहास
नई दिल्ली, लाइफस्टाइल डेस्क। National Handloom Day 2023: भारत का हथकरघा उद्योग अत्यंत विशाल होने के साथ हजारों साल पुराना भी है। इसके सबूत आपको रामायण से लेकर महाभारत तक में मिल जाएंगे। कुछ साक्ष्य यह भी बताते हैं कि भारतीय हथकरघा उद्योग लगभग 5000 वर्ष पुराना है, जो काफी लंबा समय है! यानी पिछले 5000 सालों से देश में हैंडलूम का इस्तेमाल कर खूबसूरत पहनावे डिज़ाइन किये जा रहे हैं। साथ ही भारत का कुछ बड़े देशों को हथकरघा कपड़ों के निर्यात का भी इतिहास रहा है।

तो आइए आज नेशनल हैंडलूम डे के मौके पर जानें भारत में हथकरघा की शुरुआत कहां से हुई।

सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी के किसान कपास की कताई और बुनाई करने वाले पहले लोग थे। 1929 में आर्कीयोलोजिस्ट को मोहनजो-दारो, जो अब पाकिस्तान है, में सूती कपड़ों के टुकड़े मिल थे, जो 3250 और 2750 ईसा पूर्व के बीच के थे। मेहरगढ़ के पास पाए गए कपास के बीज लगभग 5000 ईसा पूर्व पुराने थे। इसके अलावा 1500 और 1200 ईसा पूर्व के बीच लिखे गए वैदिक ग्रंथों में भी कपास की कताई और बुनाई का उल्लेख मिलता है।

अंग्रेजों ने बदली हैंडलूम की परंपरा

भारत परंपराओं को घर है, हालांकि, जब अंग्रेज यहां आए, तो उस वक्त हैंडलूम इंडस्ट्री बुरे दौर से गुजरी। पहले लोग प्राकृतिक फाइबर का इस्तेमाल खूब किया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे सिंथेटिक फाइबर ने इनकी जगह लेनी शुरू कर दी। बुनकर भी समय के साथ पॉलिएस्टर जैसे सिंथेटिक फाइबर की ओर चले गए। पॉलिएस्टर जल अपशिष्ट बनाने के लिए जाना जाता है, जिससे जल प्रदूषण होता है।

हथकरघा का इतिहास

पुराने समय में, लोग चरखे का इस्तेमाल कर रूई से कपड़ा बनाया करते थे। भारत के हर गांव में बुनकरों का एक अलग समुदाय हुआ करता था, जो चरखे जैसे छोटे उपकरणों का उपयोग कर गांव में रहने वाले लोगों के लिए हाथ से साड़ी, धोती आदि बनाया करते थे। हालांकि, यह परंपरा अंग्रेजों के आने के साथ धीरे-धीरे खत्म होती गई।

अंग्रेजों की हुकूमत ने देश के हैंडलूम सेक्टर को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उस वक्त भारत सिर्फ कच्चे कपास का निर्यातक रह गया था। ब्रिटिश अधिकारी देश में मशीन से तैयार होने वाला सूत लाए और बुनकरों को अपना उत्पादन बंद करने पर मजबूर कर दिया। इसी वजह से देश के कई बुनकरों की आमदनी का ज़रिया बंद हो गया। धीरे-धीरे हथकरघा उद्योग को नुकसान होता गया और सिंथेटिक कपड़े ने उसकी जगह ले ली। मशीनों के आने से, भारत के हैंडलूम सेक्टर को काफी नुकसान पहुंचा।

फिर आया गांधीवादी दौर

भारत के बुनकरों को अपना काम जारी रखने और भारत की परंपरा का समर्थन करने में मदद करने के लिए, महात्मा गांधी ने स्वदेशी आंदोलन शुरू किया। स्वदेशी आंदोलन ने लोगों को खादी का उपयोग जारी रखने और भारतीय कपड़ों को बढ़ावा देने में मदद की। महात्मा गांधी ने हर भारतीय को चरखे का उपयोग करने और अपना सूत कातने के लिए प्रोत्साहित किया। हर भारतीय ने स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया और इससे उस समय की अर्थव्यवस्था पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।

लोगों ने सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया और ब्रिटिश शासन द्वारा उन्हें दिए गए सिंथेटिक फाइबर को जला दिया। स्वदेशी आंदोलन के दौरान भारतीयों ने कई सारी मिलें भी नष्ट कर दीं। हालांकि, आज आजादी के बाद भी देश में कई मिल्स मौजूद हैं, लेकिन फिर भी खादी को आज भी उतना ही सम्मान दिया जाता है।

आज के दौरा में हथकरघा

भारत में आज प्राकृतिक फाइबर के दाम काफी बढ़ गए हैं, जिसकी वजह से आम आदमी को इसे खरीदने से पहले कई बार सोचना पड़ता है। यही वजह है कि लोगों की इसे खरीदने में दिलचस्पी भी कम हुई हैं। वहीं, सिंथेटिक फाइबर की कीमत कम होती है, इसलिए लोग इसे ही खरीदना पसंद करते हैं। साथ ही आज भी कई भारतीय सस्टेनबल फैशन को कम ही समझते हैं। नेचुरल फाइबर महंगा होने की वजह से आम आदमी की पहुंच से दूर हो गया है।

वहीं, नेचुरल फाइबर महंगा जरूर मिल रहा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बुनकर भी ज्यादा पैसा कमा रहे हैं। हाल ही में हुई एक रिसर्च बताती है कि बुनकरों की आमदनी दशक से ज्यादा समय से बढ़ी नहीं है। कई बुनकर इसी वजह से अपनी इस कला को भूलकर दूसरी तरह की मज़दूरी करने पर मजबूर हो रहे हैं।

हथकरघा की खूबसूरती

इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश का हैंडलूम सबसे खूबसरत है, जो हमें हमारी परंपरा के सबसे करीब भी ले जाता है। जब भी आप कोई पारंपरिक कपड़ा खरीदते हैं, तो निश्चित तौर पर अपनी परंपरा और संस्कृति के बेहद करीब महसूस करते हैं। एक कपड़े को तैयार करने में भारतीय बुनकरों जिस जुनून और प्रयास से काम करते हैं, उसकी जितनी सराहना की जाए कम है। हाथ से बुने गए कपड़े की बात ही कुछ और है, जिसे शायद ही कभी कोई तकनीक कॉपी कर पाएगी।