World Thalassemia Day: ऐसे हुई थी इस दिन को मनाने की शुरुआत और क्या है इसका उद्देश्य
थैलेसीमिया एक रक्त विकार है जो बच्चे को अपने मां-बाप से मिलता है। इस बीमारी में मरीज को हर 20 से 25 दिन में बाहर से खून देना पड़ता है। सही से इलाज न होने पर यह मृत्यु की भी वजह बन सकती है। इस बीमारी के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाना ही World Thalassemia Day मनाने का मुख्य उद्देश्य है।
लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। World Thalassemia Day: विश्व थैलेसीमिया दिवस हर साल 8 मई को मनाया जाता है। यह दिन थैलेसीमिया के मरीजों को समर्पित है, जो इस बीमारी से जूझ रहे हैं। यह एक गंभीर समस्या है, जिससे दुनियाभर में कई लोग पीड़ित है। थैलेसीमिया के बारे में जागरूकता बढ़ाना और लोगों को इसके लक्षणों, निदान और उपचार के विकल्पों के बारे में शिक्षित करना इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य होता है। कैसे और किसने की थी इस दिन को मनाने की शुरुआत। जानेंगे इसके बारे में।
विश्व थैलेसीमिया दिवस का इतिहास
अंतरराष्ट्रीय थैलेसीमिया दिवस मनाने की शुरुआत साल 1994 में थैलेसीमिया इंटरनेशनल फेडरेशन (टीआईएफ) द्वारा की गई थी। इसी साल थैलेसीमिया इंटरनेशनल फेडरेशन ने 8 मई के दिन को थैलेसीमिया के मरीजों के नाम डेडिकेट किया था और इस बीमारी से पीड़ित मरीजों के संघर्ष को इस दिवस के जरिए बताने का प्रयास किया था। थैलेसीमिया इंटरनेशनल फेडरेशन के अध्यक्ष और संस्थापक जॉर्ज एंगेल्सॉस ने इस बीमारी से पीड़ित सभी रोगियों और उनके माता-पिता के सम्मान में दिन को मनाने की शुरुआत की थी।
थैलेसीमिया डे का महत्व
थैलेसीमिया एक ऐसी बीमारी है, जिसके बारे में आज भी लोग बहुत ज्यादा अवेयर नहीं हैं। इस वजह से कई बार मरीजों को समय पर उपचार नहीं मिल पाता और उनकी मृत्यु हो जाती है। इस दिन को वर्ल्ड लेवल पर मनाने का यही मकसद है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस बीमारी के बारे में जानें और इस बीमारी से जूझ रहे लोगों की मदद के लिए आगे आएं। मरीजों के साथ 8 मई का दिन उन डॉक्टर्स और सोशल वर्कर्स को भी सम्मानित करने का दिन है, जो निस्वार्थ भाव से ऐसे लोगों की सेवा कर रहे हैं।क्या है थैलेसीमिया की बीमारी?
थैलेसीमिया एक ब्लड डिसऑर्डर है, जो जेनेटिक होता है। मतलब यह बीमारी माता- पिता से बच्चे में ट्रांसफर होती है। इस बीमारी में मरीज में खून की बहुत ज्यादा कमी होने लगती है, जिस वजह से उन्हें बाहर से खून चढ़ाना पड़ता है। खून की कमी के चलते पर्याप्त मात्रा में हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता जिससे वो एनीमिया का भी शिकार हो जाते हैं। इस बीमारी में बच्चों को बार-बार ब्लड बैंक ले जाना होता है। मरीज को जीवित रहने के लिए हर दो से तीन हफ्ते बाद खून चढ़ाने की जरूरत होती है।
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