क्यों आयोजित किया गया था 1877 का दिल्ली दरबार? ब्रिटिश शक्ति का प्रदर्शन या भारत की संस्कृति का अपमान?
वह जश्न जहां स्वयं मेजबान उपस्थित नहीं था मगर उसके प्रति सम्मान दिखाने व अपनी निष्ठा जताने के लिए एकत्रित हो रहे थे राजा-महाराजा नवाब और शाही अधिकारी। दिल्ली के कोरोनेशन पार्क में यह दरबार लगा था महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) की शान में और इरादा था कुछ ठोस परिवर्तन लाने का... आइए विस्तार से जानते हैं इस बारे में।
नई दिल्ली, पल्लवी सुराना और नियति देव। समुद्र जितना विशाल शिविर, 84,000 सहभागी और दो सप्ताह तक चलने वाला जश्न-1877 में भारत के वायसराय लार्ड लिटन द्वारा आयोजित पहला ‘दिल्ली दरबार’ अभूतपूर्व पैमाने का तमाशा था। दिल्ली के कोरोनेशन पार्क में आयोजित किया गया यह दरबार अंग्रेजों की धन और शक्ति का प्रतीक था। महाराजा, शहजादे, नवाब, शाही अधिकारी और अंग्रेज सपरिवार अपने सबसे अच्छे कपड़े और गहने पहनकर इस दरबार में आए थे। इस अवसर पर भारतीय सेना और सैन्य बैंड ने कई जुलूस भी निकाले गए थे। यह दरबार महारानी विक्टोरिया के सम्मान में आयोजित किया गया था। इस आयोजन की औपचारिक कार्यवाही में मुख्य कार्यक्रम रानी को भारत की साम्राज्ञी या ‘कैसर-ए-हिंद’ घोषित करना था। महारानी खुद दरबार में मौजूद नहीं थीं, क्योंकि कुछ स्त्रोतों के मुताबिक, उन्हें यहां की ‘गर्मी और कीड़ों’ से दिक्कत थी। इसके बावजूद, पहली बार भारत के सभी शाही घरानों के लोग अनुपस्थित रानी के प्रति निष्ठा जताने के लिए एकत्रित हो रहे थे। दरबार और शाही दौरा- जिसमें रायल्टी या वायसराय औपचारिक दर्शन के लिए कई रियासतों और क्षेत्रों में जाते हैं- अंग्रेजों की शाही परंपरा के प्रतीक होते हैं, लेकिन उनके बीज हमें कुछ और कहानी बताते हैं।
उत्सव के पीछे की मंशा
स्थानीय कुलीन वर्गों और आम लोगों का दिल बहलाने के लिए अंग्रेजों ने स्थानीय परंपराओं को ही अपनाकर इस दरबार का आयोजन किया जाता था। मुगल और अन्य क्षेत्रीय शासकों से सीखकर उन्होंने एक नई परंपरा की शुरुआत की थी। इस दिल्ली दरबार के आयोजन के पीछे उनका एक छोटा मगर प्रभावशाली प्रयास था। दरअसल, वायसराय लार्ड लिटन को पूरा यकीन था कि, उनके शब्दों में, ‘भारतीय मस्तिष्क में छोटे एहसानों और सम्मान का बहुत महत्व होता है।’ उन्होंने प्रस्ताव रखा कि महारानी विक्टोरिया को भारत का सम्राट घोषित करना उनके अधिकार को मुगलों के प्राचीन सिंहासन पर पुख्ता कर देगा। साथ ही उनकी भारतीय प्रजा परंपरागत तौर पर ब्रिटिश शासन को सर्वोत्तम शक्ति के रूप में देखने लगेगी।
उठने लगे विरोध के स्वर
जैसे कि इतिहासकार यूजीनिया हर्बर्ट बताती हैं, ‘अपने पुराने दुश्मनों के साम्राज्य के अनुष्ठानों को अपनाते हुए’ दरबार का आयोजन करना अंग्रेजों द्वारा मुगलों की जगह लेने का प्रयास था। हालांकि, स्थानीय जनता इसके बारे में उतनी जोशीली नहीं थी, जितनी लिटन ने आशा की थी। बंबई(अब मुंबई) के बहमंगी दोसभाई ने इस मौके पर भारतीय समाचारपत्रों को एक पत्र भेजा था, जिसमें वह इस दरबार के प्रति अपने भाव कुछ इस प्रकार प्रकट करते हैं:ओ! महान अकबर क्या कहते, अगर वो इस दिन लौट कर आते?
दुनिया को पागल होता देख, जरूर ही वह भी दुखी होते।ज्यादा गंभीरता से अकाल और भारतीयों की पीड़ा पर रोशनी डालते हुए अन्य पत्र भी लिखे जा रहे थे। उनका कहना था कि एक तरफ तो प्रशासन भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने वाली जनता की तकलीफों को नजरंदाज कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ दिल्ली दरबार जैसे उत्सव का आयोजन रहा है।