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बेहद खास हैं 15वीं शताब्दी की जैन पांडुलिपियां और कलाकृतियां, कलाकार के रुझान को बखूबी करती हैं बंया

हमारे देश के इतिहास में बसी कथाओं के विस्तार में पांडुलिपियां और कलाकृतियां अहम भूमिका निभाती हैं। सिमरन अग्रवाल बता रही हैं कि ये कलाकृतियां उस दौर के प्रभाव और कलाकारों के रुझान भी बड़ी सहजता से बता जाती हैं। कुछ ऐसा ही चित्रित वर्णन 15वीं शताब्दी की जैन पांडुलिपियों और कलाकृतियों में देखने को मिलता है। आइए जानें इसके बारे में।

By Jagran News Edited By: Nikhil Pawar Updated: Sat, 13 Jul 2024 08:51 PM (IST)
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फाइल फोटो। 15वीं शताब्दी की जैन पांडुलिपियां और कलाकृतियां
लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। प्राकृत में लिखी और 50 ईसा पूर्व में सेट की गई कालकाचार्य कथा श्वेतांबर जैन भिक्षु कालका की पौराणिक कहानी का वर्णन करती है। उज्जैन के राजा गर्दभिल्ल द्वारा कालका की बहन का अपहरण किए जाने पर जब स्थानीय राजाओं और राजकुमारों ने उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया, तब भिक्षु ने शक वंश के 96 राजकुमारों की मदद ली, जिन्होंने भिक्षु के दुश्मनों को हराने के लिए सिंधु नदी पार की। 13वीं और 15वीं शताब्दी के बीच कई सचित्र कालकाचार्य कथा पांडुलिपियां बनाई गईं। वे कल्पसूत्र की मानक परिशिष्ट थीं, एक ऐसा पाठ, जो जैन ब्रह्मांड विज्ञान की व्याख्या करता है और जैन धर्म के श्वेतांबर संप्रदाय के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। कई सचित्र पांडुलिपियों के तुलनात्मक अध्ययन से स्वदेशी और फारसी प्रभावों के बीच सामग्री और दृश्य भाषा दोनों के संदर्भ में एक गतिशील संवाद का पता चलता है। यह पश्चिम भारतीय पांडुलिपि चित्रकला परंपरा की शैलीगत परिपक्वता का प्रमाण भी है।

कलाकार का रुझान बताती कला

1400 ईस्वी के आसपास के एक चित्रण में गर्दभिल्ल को शक राजकुमार द्वारा कालका के सामने लाया जा रहा है। शक राजकुमार की हरी ब्रोकेड पोशाक, साफा, जूते, चौड़े क्लाउड कालर और सुसज्जित दाढ़ी निस्संदेह श्वेतांबर भिक्षु के सादे सफेद वस्त्र से अलग हैं। हालांकि, वे गर्दभिल्ल की पोशाक के विपरीत भी हैं, जबकि दोनों ही राजघरानों से हैं। भारतीय राजा को ब्लाक प्रिंट वाली धोती, कढ़ाई वाली मलमल की कमरबंद और अलग आकार का मुकुट पहने दिखाया गया है। उनके माथे पर वैष्णव तिलक है, बढ़ी हुई दाढ़ी है और वे नंगे पैर हैं। शक राजकुमार का रंग भी अलग है। उसकी नाक झुकी हुई है और वह एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी आंखें उसके चेहरे से आगे नहीं बढ़तीं। जबकि रचना की लाल भूमि इस काल के पश्चिम भारतीय चित्रों की शैली को दोहराती है। इसमें शक राजकुमार का चित्रण, जिसकी आंखें तीन-चौथाई प्रोफाइल के भीतर हैं, स्पष्ट रूप से फारसी है। इस छवि को देखकर पता चलता है कि कलाकार को फारसी चित्रकला परंपराओं के बारे में स्पष्ट जागरूकता थी, जो तब तक भारत के कला-चित्रालयों में प्रवेश कर चुकी थी।

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जारी रहा क्रमिक विकास

15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दोनों संस्कृतियों के बीच परस्पर क्रिया का विकास जारी रहा। 1400 के आसपास के एक फोलियो की तुलना 1475 के आसपास की कालकाचार्य कथा पांडुलिपि के एक चित्रण से करने पर इसे और अधिक अच्छे ढंग से समझा जा सकता है। कालकाचार्य कथा पांडुलिपि के चित्रण में तीन भिक्षुओं को नदी पार करते हुए दिखाया गया है और इसमें फारसी प्रभाव साफ प्रदर्शित होते हैं। लिखाई में काली स्याही के बजाय सोने के रंग का उपयोग, लैपिस लाजुली पत्थरों से निर्मित अल्ट्रामरीन नीले रंग का अनुप्रयोग, जो पूर्ववर्ती लाल जमीन की जगह लेता है और पन्नों की सीमाओं पर जटिल ज्यामितीय पुष्प पैटर्न का उपयोग दिखाई देता है।

शैलियों पर स्थायी छाप

मुस्लिम सुल्तानों और जैन व्यापारियों दोनों के लिए काम करते स्थानीय कलाकारों ने अपने नए ग्राहकों के स्वाद और प्राथमिकताओं के अनुसार अपनी दृश्य भाषा को बदला, जिसके परिणामस्वरूप पश्चिम भारतीय जैन पांडुलिपि परंपरा ने अलंकृत और समृद्ध फारसी शैलियों से उधार लेते हुए काफी समृद्धि और विलासिता प्राप्त की। जैसे-जैसे 15वीं और 16वीं शताब्दी में जैन संरक्षण गुजरात और राजस्थान से लेकर मध्य और उत्तरी भारत तक बढ़ा, कलाकारों ने स्वदेशी परंपराओं को फारसी और क्षेत्रीय उत्तर भारतीय चित्रालयों की शैलियों के साथ संश्लेषित किया, जिसने मालवा और अन्य क्षेत्रों की दरबारी चित्रकला शैलियों पर स्थायी छाप छोड़ी।

( सौजन्य - mapacademy.io)

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