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Air Pollution: इस साल भी सांसें छीन रहा प्रदूषण! आखिर क्यों फेल हो जाता है नियमों और पाबंदियों का ताना-बाना?

सब कुछ हर साल की तरह ही है। दीपावली बीत गई है पराली जल रही है दिल्ली में तमाम तरह की पाबंदियां (pollution control) लागू हैं और एक-एक सांस भारी पड़ रही है। इस मानवजनित विषाक्त वातावरण की कीमत चुकाता है पूरा जीवमंडल मगर किसी चीज में अगर सक्रियता दिखाई पड़ती है तो वह है केवल अंतहीन चर्चा पढ़िए डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का आलेख।

By Nikhil Pawar Edited By: Nikhil Pawar Updated: Mon, 04 Nov 2024 07:36 PM (IST)
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कब तक चलेगा यह प्रदूषण का खेल? (Image Source: jagran.com)
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, नई दिल्ली। यह एक और नवंबर है। हर साल की तरह, इस बार भी दिल्ली ने वायु गुणवत्ता को बेहतर बनाए रखने के लिए ताबड़तोड़ फैसले ले लिए हैं। नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करने के लिए तंदूरों पर पाबंदी से लेकर सड़कों की धूल, सफाई और निर्माण कार्यों पर सख्त निर्देश जारी कर दिए गए हैं, लेकिन सवाल वही है– यह पहले कब नहीं हुआ और इसके परिणाम क्या निकले?

ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इन उपायों का कोई असर नहीं हुआ, पर जिस तरह से प्रदूषण, बढ़ती भीड़ और मनमाने रवैये ने हमारे जीवन को प्रभावित किया है, यह उसी का नतीजा है कि हम इतने कड़े निर्देशों-कानूनों के बावजूद अब तक साफ हवा ही सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं!

हर साल होती है प्रकृति की अनदेखी

सांसों में घुलते इस संकट के बीच 3 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय बायोस्फीयर रिजर्व दिवस भी बीत गया। वास्तविक समस्या यह है कि हम दिवस पर दिवस तो मनाते रहे, पर हमने न तो पृथ्वी को समझा और न ही प्रकृति को। हमने जो कुछ भी सीखा, वह सिर्फ इंसान और उसकी इच्छाओं के इर्द-गिर्द घूमता रहा। पहले विलासिता के साधन जुटाने, फिर कड़े नियम बनाने और उनका पालन न करने की आदत हमारी फितरत बन गई है। बायोस्फीयर रिजर्व यानी संरक्षित जीवमंडल का विचार इसी उद्देश्य से आया था कि इस धरती पर जितने भी जीव-जंतु हैं, उनके संरक्षण को गंभीरता से लिया जाए। मतलब स्पष्ट था कि जीवमंडल व इसके आधार हवा, पानी, मिट्टी, जंगल इसके प्रमुख अवयव होंगे और एक का असर दूसरे के स्वास्थ्य पर पड़ता रहेगा। विडंबना यह हुई कि इसकी परिकल्पना करने वाले मनुष्य ने ही स्वयं को इससे अलग कर लिया और यह सोच पनपी कि वह इसका हिस्सा नहीं, बल्कि नियंत्रक है।

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विकास की कीमत पर प्रकृति का बलिदान

छोटे या बड़े, दुनिया में आज कोई भी बायोस्फीयर पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। समय-समय पर चर्चाएं अवश्य हुईं, जिनमें पेड़-पौधों और वन्यजीवों के संरक्षण की बात हुई। दुनिया में कई क्षेत्र चिन्हित भी किए गए जहां इनकी सुरक्षा हो सके। मगर जमीनी हालात ये हैं कि दुनिया से 25 प्रतिशत जीव प्रजातियां गायब हो गई हैं। 90 प्रतिशत कृषि वनस्पति प्रजातियों की विविधता खत्म हो चुकी है। पालतू जीवों की विविधता में ये कमी 50 प्रतिशत तक है। हद तो यह है कि हर वर्ष 15 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल हमारी विलासिता की भूख की बलि चढ़ते हैं।

क्या हमने त्योहारों का असली अर्थ खो दिया है?

जरूरी बात यह है कि हम प्रकृति का नुकसान शायद उतना नहीं कर पाएंगे जितना मनुष्य को उसके क्रोध को सहना पड़ेगा। यह हमारे दृष्टिकोण और समझ की कमी का ही नतीजा है कि जब भी हमने प्रकृति प्रबंधन की बात की, उसमें खुद के कृत्यों को अलग रखा। अपने त्योहारों को ही देखिए जिनका हमने रंग ही बदल दिया। हमारी परंपराओं में त्योहारों का एक बहुत बड़ा सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व था, जिसे हमने लगभग भुला दिया है। पहले त्योहार समाज को जोड़ने, उसे बेहतर बनाने और पर्यावरण तथा संस्कारों से जुड़ने के उद्देश्य से मनाए जाते थे, लेकिन आज ये ही उलट दिए गए और पूरे तंत्र को नुकसान पहुंचाने का बड़ा कारण बन गए हैं।

पहले दीपावली मनाने का उद्देश्य अंधकार पर विजय प्राप्त करना था पर आज यह पर्व प्रदूषण, धुंध व अंधेरा कर देता है। सरकारें भी इसे नियंत्रित करने में थकी साबित हो रही हैं। खासकर दिल्ली, जो प्रदूषण का केंद्र बन चुकी है, के लिए यह मुद्दा बहुत ही संवेदनशील हो गया है जिसमे राजनीतिक अखाड़ेबाजी भी जम कर होती है। दूसरी तरफ होली का उदाहरण लें। इसका संदेश भी प्रकृति और भगवान के प्रति आस्था का था लेकिन आज हम इसके लिए करोड़ों टन लकड़ी जलाते हैं और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा देते हैं। अब जब जंगल पहले ही मर रहे हों तब इन्हें जलाने को मानव की मूर्खता ही कहेंगे!

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दिल्ली-एनसीआर के लिए दोहरी चुनौती

दिल्ली को प्रदूषण के चलते ग्रेडेड रेस्पांस एक्शन प्लान (ग्रैप) लागू करना पड़ा है, जिसमें निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी गई है, गाड़ियों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगाए गए हैं और ऐसे सभी काम बंद कर दिए गए हैं जो हवा को अधिक प्रदूषित कर सकते हैं। पंजाब और हरियाणा की पराली जलाने की जिदबाजी इसे और मारक बना देता है। अगर हम इसी तरह चलते रहे, तो आने वाले समय में इस धुएं और प्रदूषण से बाहर निकलना हमारे लिए असंभव हो जाएगा। फिर भविष्य को जीवन नहीं मृत्यु के रूप में समझें और पृथ्वी को मृत्युलोक ही समझें क्योंकि फिर इसका हर इलाका बायोस्फीयर नहीं बल्कि डेथस्फीयर बन जाएगा!

भारत में ओजोन प्रदूषण से सबसे ज्यादा मौतें

स्टेट आफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में ग्राउंड-लेवल ओजोन से जुड़ी मृत्यु दर सबसे अधिक है। इस साल ओजोन प्रदूषण की बढ़ती समस्या 2020 में लाकडाउन के दौरान गर्मियों में पैदा हुई समस्या से भी कहीं व्यापक है। ग्राउंड-लेवल ओजोन एक अत्यधिक प्रतिक्रियाशील गैस है, जो स्वास्थ्य को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा सकती है।

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(लेखक पद्म भूषण से सम्मानित पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)