बंगाल विभाजन के विरोध में लड़ना राजद्रोह नहीं मानते थे लोकमान्य तिलक
बंगाल विभाजन (16 अक्टूबर 1905) के दंश के विरोध में बाल गंगाधर तिलक मुखर तौर पर स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उन्हें रोकने के एक प्रयास के दौरान उनके दो लेखों के विरुद्ध मुकदमा चलाया जा रहा था। पढ़िए इसके विरोध में उनके भाषण के अंश
मतवाले हाथी के समान कर्जन की सरकार लोकमत को हेय समझकर घास के समान उसकी उपेक्षा कर रही है, किंतु वह नहीं जानती कि यदि इस घास की रस्सी बना दी जाए तो इससे हाथी को भी बांधा जा सकता है। हजारों का जनसमुदाय यदि एक निश्चय के सू्त्र में न बंधा हो तो निरर्थक है। लोकमत की शक्ति निश्चय में है, समुदाय या संस्था में नहीं। केवल कथनी से नहीं, करनी से काम चलेगा। इसके साथ-साथ निश्चय भी आवश्यक है।
केवल मेरी टिप्पणी पर आरोप लगाना संकुचित मानसिकता का लक्षण माना जाएगा और इसके लिए दंडित करना क्रूरता कही जाएगी। इन लेखों का उद्देश्य देश की वर्तमान परिस्थिति का विवरण देकर उसके लिए सरकार को उचित पग उठाने की सलाह देना था।
वैधानिक आंदोलन से मैं पूरी तरह निराश हूं। एक हो जाओ, लगन से कार्य करो और स्वराज्य प्राप्त करो। उसी से हम निर्धनता, महामारी, अकाल और भुखमरी से लोगों की रक्षा कर सकते हैं। दादाभाई ने जब निश्चयपूर्वक सीधे-सादे शब्दों में स्पष्ट कहा कि स्वराज्य के अतिरिक्त हमारे उद्धार का दूसरा कोई मार्ग नहीं है तो क्षण भर के लिए ऐसा लगा, मानो कोई देवदूत हमारी वृद्ध पीढ़ी को अंतिम संदेश देने हेतु अवतरित हुआ हो।
अब राष्ट्रीयता का दमन नहीं किया जा सकता। वह अमर है, क्योंकि वह मानवरचित नहीं है। आज बंगाल में ईश्वर राष्ट्रीयता के रूप में कार्य कर रहा है। ईश्वर को मारा नहीं जा सकता और न उसे जेलों में बंद करके शांत ही किया जा सकता है।
जब एंग्लो इंडियन पत्र आवेश में आकर मनमाना लिखते हों, तब हमारे लिए उनकी दलीलों का खंडन कर सरकार को उचित राह दिखाना अपना कर्तव्य बन जाता है। मेरा यह दृढ़ मत है कि लोकमत की उपेक्षा करके बंगाल का विभाजन स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन उसी के परिणाम हैं। यदि सरकार यह सोचती हो कि आतंकवाद और बमबाजी जैसी अनर्थकारी प्रवृत्तियां स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन से पैदा होती हैं तो फिर उसके मूल कारण उस विभाजन को निरस्त क्यों नहीं करती। मुजफ्फरपुर में बम फेंका गया। यह मेरी दृष्टि में भी दुर्भाग्य है। एंग्लो इंडियन पत्रों का कठोर शब्दों में अनर्गल होकर टिप्पणियां करना भी एक दुर्भाग्य है। इन दुर्भाग्यों को दिखाने के लिए मैंने अपने लेख का शीर्षक ‘देश का दुर्भाग्य (देशांचे दुर्देव)’ रखा था।
मैं यहां दया की भीख मांगने नहीं, न्याय के लिए खड़ा हूं। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि सरकार मुझसे रुष्ट है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे न्याय नहीं मिलना चाहिए। सरकार क्या चाहती हैं, इसका विचार किए बिना आपको अपना मत स्पष्ट रूप से देना चाहिए। जिस प्रकार न्यायाधीश अपने निर्णय से कानून को विशिष्ट रूप देता है, उसी प्रकार जूरी भी कर सकती है। राजद्रोह का उद्देश्य था या नहीं, इसका निर्णय करना जूरी का काम है। सरकार की शासनप्रणाली के विषय में शिकायत करना और राजकाज में हिस्सा मांगना राजद्रोह नहीं माना जा सकता। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि यदि आपको सरकार को परामर्श देना था तो किसी सरकारी अधिकारी के पास जाकर अपनी बात कहते, किंतु पत्रकार का यह काम नहीं और न मैं यह जानता हूं कि यदि मैं उससे मिलने का प्रयत्न करूं तो वह मुझसे कैसा व्यवहार करेगा। विपक्ष के बैरिस्टर ने कहा है कि मैं सत्ता चाहता हूं। ठीक है मुझे अर्थात लोकपक्ष को सत्ता अवश्य चाहिए। यह बात मैंने शक्ति विभाजन आयोग के समक्ष भी कही थी। स्वराज्य के लिए लड़ना राजद्रोह नहीं है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी ऐसा निर्णय दिया है। कुछ लोगों का कहना है कि यदि मैं बमबाजी का विरोध करता हूं तो सरकार की दमन नीति के पक्ष में क्यों नहीं बोलता। जैसे और कोई मार्ग ही न रहा हो। यह नहीं कहा जा सकता कि बंगाल के युवक अराजकतावादी या विध्वंसक हैं। मैंने उनमें से कितने ही युवकों को जेलों में सड़ते हुए देखा है, किंतु मुझे एक भी ऐसा युवक नहीं दिखाई दिया जिसे स्वाधीनता से प्रेम न हो, कानून या व्यवस्था बिल्कुल पसंद न हो या सुनियंत्रित राज्य की आवश्यकता अनुभव न होती हो। प्रमाण के रूप में प्रस्तुत पोस्टकार्ड के विषय में कानून बना था, उस पर मुझे टिप्पणी करनी थी। इसीलिए किसी पुस्तक सूची से मैंने दो पुस्तकों के नाम मूल्य सहित लिख लिए थे। यदि इसके पीछे मेरा कोई गोपनीय उद्देश्य होता तो उस कार्ड को मैं इस तरह सामान्य कागजों में रखता। धारा 153 अ के अंतर्गत मुझ पर दो जातियों के बीच कटुता फैलाने का प्रयत्न करने का आरोप लगाया गया है, किंतु यह नहीं बताया गया है कि किन दो जातियों के बीच और किस उद्देश्य से मेरे कहने का आशय क्या था, इसका स्पष्टीकरण मैं ही अच्छी तरह दे सकता हूं। इसीलिए मैंने अपने मामले की पैरवी स्वयं की है। मुझे पूरा विश्वास है कि मैं निर्दोष हूं। मैं न्याय की प्रार्थना करता हूं। यह प्रार्थना मैं किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं कर रहा, अपितु जो काम मैंने अपने हाथ में लिया है, उसे सिद्ध करने के लिए कर रहा हूं। जिस काम के विषय में आपको अपना निर्णय देना है, वह बड़ा पवित्र है।
(डा. मीना अग्रवाल की किताब ‘लोकमान्य बालगंगाधर तिलक’ से साभार)