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किताबघर और मयूरपंख की अगली कड़ी में पढि़ए राम होने का अर्थ व जगजीत सिंह पर आधारित किताबों की समीक्षा

विभिन्न कालखंडों में लिखे गए राम विषयक 20 ललित निबंधों का संचयन आर्ष परंपरा से जोड़ने के साथ वर्तमान में स्वयं को समझने की दृष्टि देता है। जगजीत सिंह की मनभावन तस्वीरों उनके संघर्ष और सफलता रेकार्ड डिस्कों की जानकारी और कुछ आत्मीयों के संस्मरणों को भी लक्ष्य करती पुस्तक

By Jagran NewsEdited By: Aarti TiwariUpdated: Sat, 22 Oct 2022 05:00 PM (IST)
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जन-जन के राम व कहां तुम चले गए: दास्तान-ए-जगजीत
 किताबघर

राम होने का अर्थ, अनुभूति और व्याप्ति

(यतीन्द्र मिश्र)

दीपावली के अवसर पर दैनिक जागरण के पाठकों के लिए आज का स्तंभ विद्यानिवास मिश्र की कृति ‘जन-जन के राम’ पर आधारित है। यह सनातन मान्यता है, जब श्रीराम लंका विजय के उपरांत अयोध्या लौटते हैं, तब अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत में घर-घर दीप जलाए थे। ऐसे मांगलिक पर्व की परिकल्पना ही असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई और क्रोध पर संयम की विजय के रूप में की गई। श्रीराम के विराट स्वरूप को इसी अर्थ में देखते हुए साहित्य में ढेरों विमर्श हुए, साथ ही हजारों साल से संतों, कवियों, निरगुनियों, बैरागियों और विचारकों ने विपुल रचनात्मक लेखन संभव किया। परंपरा में हमें वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास, भवभूति, केशव, कबीर, मीरांबाई से लेकर गुरु नानक देव, गुरु गोविंद सिंह और विभिन्न आंचलिक भाषाओं के रामायण कथाकारों की रामकथा की संपदा मिली है। आधुनिक काल में विद्यानिवास मिश्र के लेखन के अतिरिक्त कुबेरनाथ राय की ‘रामायण महातीर्थम्’, पांडुरंग राव की ‘रामकथा नवनीत’ और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की ‘दशरथनंदन राम’ जैसी कृतियां रामाभिप्राय को सार्थकता प्रदान करती हैं। विभिन्न कालखंडों में लिखे गए राम विषयक 20 ललित निबंधों का यह संचयन हमें आर्ष परंपरा से जोड़ने के साथ वर्तमान में स्वयं को समझने की दृष्टि देता है। आज के आपाधापी और कड़ी प्रतिस्पर्धा के युग में श्रीराम एक आदर्श उदाहरण बनकर उभरते हैं, जो त्याग, संयम, शील, दया, क्षमा, करुणा, मर्यादा और संतुलन की सीख देने का काम करते हैं। आधुनिक संदर्भों में यदि कहा जाए, तो वे ऐसे अनूठे महानायक का चरित्र धारण करते हैं, जो युवाओं को प्रेरणा देने के सबसे मुखर प्रतीक के रूप में सामने आते हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में रामकथा और कृष्णकथा को लेकर इतना कुछ लिखा गया कि भक्तिकाल का एक युग ही रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी शाखा के रूप में चिन्हित किया जाता है। विद्यानिवास मिश्र भी अपनी भारतीय चिंतना में वे सारे अवयव लेकर उपस्थित हैं, जिनके कारण रामकथा और श्रीराम का अभिप्राय भारतीय संस्कृति को सदैव पुनर्नवा करता रहता है। उनका सांस्कृतिक लेखन श्रीराम को प्रतीक रूप में चुनते हुए दरअसल भारतीयता की ही परिकल्पना का एक औजार बनता है। वैसा ही प्रतीक, जैसा महात्मा गांधी ‘रघुपति राघव राजाराम’ जैसे समावेशी भजन के द्वारा रामराज्य की परिकल्पना में देखते थे।

इन निबंधों में श्रीराम को विभिन्न दृष्टियों में देखने का अनुसंधान किया गया है। अनेक ऐसे स्फटिक गरिमा से चमकते स्थल बनते हैं, जहां विद्यानिवास मिश्र सूक्तियों में विशद ग्रंथों के भाव को सरल शब्दों में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं। कुछ सूक्तियां पढ़ने लायक हैं- ‘रामायण काव्य का बीज करुण है... यह कालिदास के रघुवंश में मिलता है और यही बात भवभूति में मिलती है। तो परंपरा कहीं इसका निरंतर स्मरण दिलाती है। काव्यशास्त्र के अधिकतर ग्रंथ इसका स्मरण कराते हैं कि रामायण करुणरस-प्रधान काव्य है।’, ‘उत्तररामचरितम राम के मन की बात करने के लिए है।’, ‘राम की कहानी स्मृति नहीं है, साक्षात्कार है..., जब तक वह कहानी साक्षात्कार है, तब तक राम भी सामने रहते हैं।’, ‘उनके बारे में तीन विशेषण बड़े महत्वपूर्ण हैं- वे कृतज्ञ हैं, वे साधु हैं और वे अदीन आत्मा हैं। कभी भी मन में वे दीनता का अनुभव नहीं करते। ये तीनों मानवीय गुण हैं। कोई कुछ भी भला करता है, तो श्रीराम उस उपकार को आजन्म याद रखते हैं।’ सुभाषितों की भाषा में लिखी गई श्रीराम की महिमा का बखान ही रचनाकार का अभीष्ट है, जिससे वे समाज को प्रकृति से और मनुष्य को उदारचरित से जोड़ने की बात करते हैं। इन निबंधों के विषय भी रामकथा वांङमय को हर कोण से स्पर्श करते हैं। ये विषय- ‘राम की भूमिका आज के संदर्भ में’, ‘लोकमानस में राम की व्याप्ति’, ‘सीता के निर्वासन में राम का निर्वासन’, ‘तुलसी के राम’, ‘राम होने का अर्थ’, ‘राम की अनुभूति’, ‘राममय संस्कृति’, ‘राम का अयन वन’, ‘धर्म के विग्रह राम’, ‘अयोध्या उदास लगती है’ और ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!’ में समाहित है। पुस्तक में निबंधों के चयन और संपादक की भूमिका में दयानिधि मिश्र यह संकेत करते हैं कि इनमें से अधिकांश मूलत: व्याख्यान हैं, जिसे अपनी अनूठी शैली में मिश्र जी ने संभव किया था। पढ़ते हुए इस बात पर आश्चर्य होता है कि इन लेखों का वैचारिक तत्व और भाषा संपदा इतनी समृद्ध है कि ये किसी व्याख्यान का आस्वाद देने से अधिक मूल रचना की अभिव्यक्ति करते हैं।

इन निबंधों की एक विशेषता ढेरों प्रसंगों को प्रामाणिकता देने के संदर्भ में विद्यानिवास मिश्र द्वारा उद्धृत किए गए वे मूल श्लोक और पदावलियां हैं, जिनका अर्थ विस्तार भी वे उतनी ही मार्मिकता से करते हैं। वाल्मीकि रामायण, उत्तररामचरितम, रघुवंश और श्रीरामचरितमानस के उदाहरणों से पाठ्य सामग्री के वैविध्य में अनूठापन आया है। ‘जन-जन के राम’ की अभिव्यक्ति ही इस संदर्भ में है कि हम अपनी क्षुद्रता की चुभन से उठ नहीं पाते और श्रीराम के स्वभाव को अंगीकार करने की चेष्टा करते हैं। ऐसे श्रीराम को पाने की कल्पना का यह वैचारिक गद्य अपने सम्मोहन में अर्थ की नई अभिव्यक्तियों के लिए हमेशा प्रेरित करता है।

जन-जन के राम

विद्यानिवास मिश्र

चयन एवं संपादन: दयानिधि मिश्र

आलोचना

पहला संस्करण, 2020

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य: 395 रुपए

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मयूरपंख

जगजीत सिंह से साक्षात्कार

(यतीन्द्र मिश्र)

गजल गायक जगजीत सिंह के जीवन और संगीत पर आधारित ‘कहां तुम चले गए: दास्तान-ए-जगजीत’ में राजेश बादल उनको स्मृतियों, संस्मरणों और जीवन के महत्वपूर्ण पायदानों पर ढूंढ़ते हुए दर्ज करते हैं। भूमिका में वे प्रश्न उठाते हैं कि हमने अपने कलाकारों के योगदान को नई पीढ़ियों तक ठीक से नहीं पहुंचाया। वे पाठ्यक्रमों, शोध प्रबंधों और अन्यान्य माध्यमों में कलाकारों के प्रति बरती गई उदासीनता को भी रेखांकित करते हैं। शायद इसीलिए वे इसे जगजीत सिंह का जिंदगीनामा कहते हैं, जहां उन्हें फुर्सत से देखने और समझने की कोशिश की गई है।

पुस्‍तक जगजीत सिंह की मनभावन तस्वीरों, उनके संघर्ष और सफलता, रेकार्ड डिस्कों की जानकारी और कुछ आत्मीयों के संस्मरणों को भी लक्ष्य करती है। यहां स्मृतियों की ढेरों कड़ियां हैं, जिनमें गंगानगर, लुधियाना, जालंधर और मायानगरी मुंबई, पत्नी और सहगायिका चित्रा सिंह, मदन मोहन, गुलजार, सुदर्शन फाकिर, रवींद्र कालिया समेत धारावाहिक मिर्जा गालिब और वे वाकये शामिल हैं, जो रुचिकर ढंग से एक जीवन की परतों को खोलने में सक्षम हैं।

कहां तुम चले गए: दास्तान-ए-जगजीत

राजेश बादल

जीवनी

पहला संस्करण, 2022

मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

मूल्य: 699 रुपए