अन्नपूर्णा देवी और जीने की जापानी तकनीक पर बात करती पुस्तकों की समीक्षा
आप जैसे कोई फिल्म देख रहे हों या पुराने समय को रजिस्टर करता हुआ कोई धारावाहिक पढ़ रहे हों... हर जगह सभी चीजें अपनी सहजता मगर उतनी ही विशालता में मौजूद भारतीय सांगीतिक परिदृश्य के सारे कहे-अनकहे आरोह-अवरोह को पूरी जटिलता के साथ विन्यस्त करती हैं।
By Aarti TiwariEdited By: Updated: Sat, 08 Oct 2022 07:27 PM (IST)
किताबघर
(यतीन्द्र मिश्र)जीवन संगीत के अकल्पनीय आरोह-अवरोह
लिखने-पढ़ने के समाज में ऐसा भी होता है कि कुछ किताबें ऐसी लिख दी जाती हैं, जिनमें समय अपनी पूरी विराटता के साथ समाहित हो जाता है। एक तरह से काल को एक पात्र में समा देने की असाधारण कोशिश.... ऐसे दस्तावेज रोज नहीं लिखे जाते, न ही उनसे संदर्भित इतिहास और समाजशास्त्र का आकलन ही हर किसी से संभव हो पाता है। ‘अन्नपूर्णा देवी: द अनटोल्ड स्टोरी आफ अ रेक्ल्यूसिव जीनियस’ एक ऐसी ही जीवंत जीवनपोथी है, जिसमें कालक्रम, सरोद के सुरों की भांति मंद गति से दर्ज होता रहता है। अन्नपूर्णा देवी के शिष्य अतुल मर्चेंट जटायु ने ऐसा अद्वितीय काम किया है, जिसे पढ़कर सबसे पहले यह आश्चर्य होता है कि जीवनभर एकांत साधना में डूबी और समाज के सम्मुख कभी न आने वाली मैहर के उस्ताद बाबा अलाउद्दीन खां की सुयोग्य सुर-साधिका पुत्री अन्नपूर्णा देवी ने कैसे अपना जीवन खोलकर रख दिया! यह शायद गुरु-शिष्य परंपरा की अपनी सौम्यता और समर्पण का प्रतिफल है कि नदी के जल-दर्पण सरीखा मूल्यांकन बड़ी तटस्थता से करते हुए लेखक ने अन्नपूर्णा देवी का जीवन उतारकर रख दिया। जीवन के अनसुलझे और तकलीफ भरे परदों के पीछे से भी वह सहजता झांकती है, जो अलाउद्दीन खां की वंशवेलि में गुंथी हुई है। उपन्यास के महाकाव्यात्मक कथानक सरीखे इस कथेतर गद्य का सबसे बड़ा हासिल यह है कि अतुल मर्चेंट जटायु और उनकी गुरु अन्नपूर्णा देवी बिल्कुल उसी तरह संवाद की हार्दिकता में रम गए हैं, जिस तरह रैदास ‘तुम चंदन हम पानी’ जैसी शब्दावली में प्रभु और भक्त की मनोदशा को व्यंजित करते हैं। पुस्तक के आरंभ से ही एक ईमानदार कथानक का सूत्रपात अपने बहाव में इस सम्मोहन से जकड़ता है कि इस जीवनी को समाप्त करने से पहले आप राहत महसूस नहीं कर सकते। बांसुरीवादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के आमुख से शुरू हुई इस किताब का हर अध्याय पठनीय, मननशील और ग्राह्य बन पड़ा है, जो सिर्फ संगीत प्रेमियों के लिए ही नहीं, बल्कि समाजशास्त्रीय अध्ययन में दिलचस्पी रखने वालों के लिए भी संग्रहणीय है।
लेखक ने अपने गुरु के बारे में यह संकेत दिया है कि मूल रूप र्से ंहदी और बांग्ला जानने वाली अन्नपूर्णा देवी उतनी ही दक्षता से अंग्रेजी बोल और समझ लेती थीं। इस बात से हैरान कि वे अंग्रेजी भाषा में भी दक्ष हैं, अन्नपूर्णा देवी ने बताया कि बचपन में ही पी.जी. वुडहाउस की किताबें पढ़ते हुए और बाद में पंडित रविशंकर के साथ इप्टा के दिनों में उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी और तालस्ताय का ‘वार एंड पीस’ भी अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ा। आरंभ में ही ऐतिहासिक तथ्यों से पुस्तक खुलती है, जब उदय शंकर 1934 में यूरोप और अमेरिका में 84 शहरों की अपने बैले गु्रप की यात्रा की योजना बनाते हैं। उनके साथ गु्रप के संगीतकार तिमिर बरन को जाना है, मगर वे न्यू थिएटर्स के साथ हुए अपने करार, जिसमें के.एल. सहगल की फिल्म ‘देवदास’ के लिए उन्हें संगीत रचना है, जाने में असमर्थता जताते हैं। उदयशंकर के पूछने पर- ‘उनका स्थानापन्न कौन हो सकता है?’ तिमिर बरन विनय भाव से कहते हैं- ‘मेरा स्थानापन्न कोई नहीं हो सकता, मगर मुझसे श्रेष्ठ संगीतकार मेरे गुरु बाबा अलाउद्दीन खां मैहर में हैं, उन्हें राजी करके, यह यात्रा संपन्न की जा सकती है।’ इस तरह बाबा अलाउद्दीन खां को न्यौतने से शुरू हुई यह यात्रा दरअसल अन्नपूर्णा देवी की खोज में बदल जाती है। आप, जैसे कोई फिल्म देख रहे हों या पुराने समय को रजिस्टर करता हुआ कोई धारावाहिक पढ़ रहे हों... हर जगह सभी चीजें अपनी सहजता, मगर उतनी ही विशालता में मौजूद भारतीय सांगीतिक परिदृश्य के सारे कहे-अनकहे आरोह-अवरोह को पूरी जटिलता के साथ विन्यस्त करती हैं। इस यात्रा में प्रतीक रूप में मैहर की शारदा मां उपस्थित हैं, जिनकी परोक्ष-अपरोक्ष उपस्थिति भी पाश्र्व में बजने वाले किसी संगीत की भांति पाठकों के अंतर्मन में लगातार बनी रहती है।
जीवनी के आंतरिक पृष्ठों पर अन्नपूर्णा देवी के बचपन, मैहर राजपरिवार के राजा बृजनाथ सिंह, बाबा का शिष्य समाज, पंडित रविशंकर, अली अकबर खां, उदय शंकर और कमला शंकर समेत पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, नित्यानंद हल्दीपुर, लता मंगेशकर, पंडित निखिल बनर्जी, सलिल चौधरी, आशीष खान और ढेरों किरदार उभरते हैं। अन्नपूर्णा देवी का एक संक्षिप्त, मगर बेहतरीन साक्षात्कार भी यहां मौजूद है। मैहर बैंड, मदीना भवन की यादें, घरानों के आपसी राग-द्वेष और अन्नपूर्णा देवी का बाद के दिनों में एकांत में चले जाने की दारुण सच्चाई का सजल गद्य इसे मार्मिक बनाते हैं। कुछ सवाल भी हैं, जिसमें यह भी शामिल रहा कि ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अभिमान’ क्या अन्नपूर्णा देवी को ध्यान में रखकर बनाई गई? एक दस्तावेजी आख्यान, जो संगीत घरानों के उस पक्ष की ओर इशारा है, जहां ताकझांक की हर एक को मनाही है। यह इसलिए भी एक मानीखेज किताब है, क्योंकि अपनी कला के शिखर पर पहुंची साधिका ने एकाएक दुनिया की सारी नेमतों से किनारा कर लिया। इसलिए जवाबदेही का पाठ कहीं न कहीं दर्ज अवश्य होना चाहिए था, वो सुखद रूप से हुआ है।
‘अन्नपूर्णा देवी: द अनटोल्ड स्टोरी आफ अ रेक्ल्यूसिव जीनियस’अतुल मर्चेंट जटायुनान फिक्शन/बायोग्राफीपहला संस्करण, 2021पेंगुइन रेंडम हाउस, इंडिया, गुरुग्राममूल्य: 699 रुपए--मयूरपंख(यतीन्द्र मिश्र)अपूर्णता का रचनात्मक विचार‘वाबी-साबी’ एक जापानी दर्शन है कि सभी चीजों को उसी तरह अधूरा, अपूर्ण और अस्थायी होना चाहिए, जैसी वे हैं- और इसमें जीवन के सभी आयाम सम्मिलित हैं, जिनमें रचनात्मक से लेकर आध्यात्मिक पहलू तक शामिल हैं। ‘वाबी-साबी: अपूर्ण होने का विवेक’ नोबुओ सुजूकी की प्रेरणास्पद पुस्तक है, जो जीवन की अपूर्णता को अपने व दूसरों के प्रति सदाशयी भाव से देखने की दृष्टि देती है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक संसार में हम जिन कठिनाइयों और संकटों से गुजरते हैं, उनमें राहत संजोने के लिए हमारी गतिविधियां और जीवन के वे प्रयोग क्या हों, जिनसे हम ऐसे संकटों से निपट सकें, सुजूकी की यह किताब आदर्श बन जाती है।
इसके अध्याय- कला, रचनात्मकता, जीवनशैली, अपने उद्देश्य की पूर्ति और जीवन में लचीलेपन की वकालत करते हैं, जिसमें सादगी और प्रसन्नता से रहने के सूत्र छिपे हुए हैं। सबसे उल्लेखनीय तर्क यह कि हमारे पास जो है, उसे स्वीकार करना और हम जैसे हैं, स्वयं को उसी तरह प्रेम करना, जैसा मंत्र सकारात्मकता के ढेरों सीमांत रचता है।वाबी-साबी: अपूर्ण होने का विवेकनोबुओ सुजूकीप्रस्तावना: हेक्टर गार्सिया
अनुवाद: रचना भोला ‘यामिनी’सेल्फ हेल्पपहला संस्करण, 2022मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपालमूल्य: 399 रुपए