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भाषा विमर्श में जानिए 'डालडाÓ शब्द का अर्थ

आइए भाषा विमर्श की प्रथम कड़ी में जानते हैं एक शब्द के बारे में जिसने घर-घर में अपनी पहचान बनाई और खाद्य वसा का पर्याय बन गया। जानकारी कहती है कि बीसवीं सदी के आरंभ में भारत में हाइड्रोजेनरेटेड वनस्पति तेल का आयात डच कंपनी डाडा एंड कंपनी करती थी।

By Aarti TiwariEdited By: Updated: Sat, 08 Oct 2022 01:46 PM (IST)
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भाषा विमर्श की चर्चा में शब्‍द है डालडा
बु्द्धिनाथ मिश्र।

नई दिल्ली से ताशकन्द जाते समय, उज्बेक एयरलाइंस में जो गृह-पत्रिका हम यात्रियों को दी गयी थी, वह उज्बेक और अंग्रेजी में थी। मैं रूस में कुछ दिन रह चुका हूं, इसलिए रूसी लिपि (साइरिलिक, स्लाव वर्णमाला) को थोड़ा-बहुत पहचान लेता हूं। मैंने गौर किया कि उज्बेक भाषा की लिपि वही साइरिलिक है, जो रूसी भाषा की है। उज्बेक भाषा मूलत: तुर्की भाषा है, जिसको बोलनेवाले लगभग दो करोड़ लोग हैं। पहले उज्बेक भाषा का नाम 'चगताईÓ था, जो चंगेज खान के एक बेटे के नाम पर था। चौदहवीं सदी में जब यह साहित्यिक भाषा के रूप में उभरी, तब इसकी लिपि अरबी थी। सन् 1927 में अरबी की जगह लैटिन वर्णमाला का प्रयोग होने लगा, लेकिन सन् 1940 में उसकी जगह साइरिलिक वर्णमाला ने ले ली। फिलहाल, पूरे उज्बेकिस्तान में उज्बेक और रूसी दोनों भाषाओं का प्रयोग होता है।

हमारी भारतीय भाषाओं में अरबी-फारसी के शब्दों के साथ-साथ इन पड़ोसी देशों के न जाने कितने शब्द घुल-मिल गए हैं। भारत में जितने वर्षों तक अंग्रेजों ने राज किया, उससे कई गुना ज्यादा वर्षों तक मंगोलों (मुगलों) ने राज किया। कई सदियों तक भारत पर राज करनेवाले मंगोलों के मूलस्थान, वहां की संस्कृति, वहां की सामाजिक रीति-रिवाज और वहां की भाषा के बारे में हमलोग कितना कम जानते हैं!

'उर्दूÓ का शब्दार्थ हम लगाते रहे हैं 'सैनिक छावनी की भाषाÓ। मगर यह जिस उज्बेक शब्द से बना है, वह है तुर्की-मंगोल परंपरा का 'ओर्दाÓ, जिसका अर्थ है वह 'दुर्गÓ जहां सैनिकों के रहने का बंदोबस्त किया जाता था। हमारे देश के दुर्ग में राजा, उसका परिवार और उसके परिचर भी रहते थे, मगर 'ओर्दाÓ में केवल सैनिक रखे जाते थे,जो विभिन्न स्थानों के होते थे, इसलिए उनकी भाषा भी खिचड़ी होती थी। एक ओर्दा में दस हजार सैनिक और उनके 'हाकिमÓ रहते थे। वहां हमारी तरह ही मुहल्ला और मौजे हैं। बल्कि वहां का 'महल्लाÓ ही हमारे यहां 'मुहल्लाÓ या ' महालÓ बन गया है। इन मुहल्लों में हमारे मुहल्लों की तरह ही पूरी सामाजिक संरचना होती थी। हर मुहल्ले में गुजर (आवास), मस्जिद और उससे संलग्न मदरसे, चायखाना और हौज (कुंड) होते थे। दूकानों पर नोवोय (नान), कुर्त (चीज का बाल) नोस्वाय (तम्बाकू-चूना) जैसी दैनिक वस्तुएं उपलब्ध रहती थीं। वहां बैंक्वेट हाल को चायखाना कहते हैं। उज्बेक में 'बुलंदÓ का माने 'लंबाÓ होता है, जबतक यह नहीं जानेंगे, तबतक 'बुलंद दरबाजाÓ का अर्थ ही नहीं खुलेगा। रोज सबेरे की नमाज के बाद परिवार के बूढ़े लोग गप्पें लड़ाने चायखाना चले जाते हैं, जवान काम पर और बच्चे गलियों में 'ओशिकÓ और 'लंकाÓ खेल खेलते हैं। सूर्योदय से पहले ही घर की औरतें और लड़कियां झाड़ू-बुहारू, बर्तन-बासन, पानी लाना, रसोई बनाना आदि काम में जुट जाती हैं। दोपहर में सिलाई-फराई और फलों का रस निकालने का काम होता है। वहां भी दस्तरखान और पुलाव (पिलोव) है। अगर किसी घर के आगे कचरा पड़ा है तो इसका यही मतलब है कि या तो गृहिणी घर में नहीं है या बहुत फूहड़ है। ताशकन्द के शिल्पकार अतीत में 'कमानीÓ (वाण) बनाने के लिए प्रसिद्ध थे।

ताशकन्द के विभिन्न स्थलों को देखते हुए मुझे साइनबोर्ड पर जिस शब्द ने चौंकाया, वह था 'डालडाÓ शब्द। अंग्रेजी स्रोतों से मिली जानकारी यह कहती है कि बीसवीं सदी के आरंभ में भारत में हाइड्रोजेनरेटेड वनस्पति तेल का आयात डच कंपनी 'डाडा एंड कंÓ करती थी। सन् 1933 में जब ब्रिटिश-डच कंपनी लीवर ब्रदर्स इंडिया लि. (वर्तमान हिन्दुस्तान लीवर लि.) ने स्थानीय स्तर पर हाइड्रोनेटेड वनस्पति तेल का उत्पादन करना चाहा, तब उस कंपनी ने शर्त रखी कि इसके ब्रांड में उस कंपनी की झलक होनी चाहिए, सो 'डाडाÓ के बीच 'लीवरÓ का 'लÓ डाल दिया गया और इस प्रकार जो वनस्पति का उत्पादन शुरू हुआ, वह 'डालडाÓ था, जिसने अपने विज्ञापनों में अमृत-तुल्य देसी घी से ज्यादा दमखम रखने का दावा किया था। फल यह हुआ कि लोग घी को छोड़ 'डालडाÓ की ओर भागे और कुछ ही दशकों में 'डालडाÓ वनस्पति घी का पर्याय हो गया। बाद में और कंपनियां इस गैर-पारंपरिक क्षेत्र में आगे आयीं और भारतीय बाजार में 'डालडाÓ का वर्चस्व टूटा, जिसके बाद हिन्दुस्तान लीवर ने 'डालडाÓ ब्रांड विश्व की सबसे बड़ी बोतलबन्द तेल उत्पादक कंपनी 'बुंगे लिमिटेडÓ को बेच दिया और आज यही कंपनी भारत में 'डालडाÓ वनस्पति और तेल का उत्पादन करती है। लेकिन इस प्रकार तो 'डालडाÓ कोई अर्थ नहीं बनता है। 'डालडाÓ शब्द हमारे पड़ोसी देशों का एक बहुत पारंपरिक और लोकप्रचलित शब्द भी है। उज्बेक भाषा में इसका अर्थ 'प्रोत्साहनÓ और 'संवर्धनÓ होता है। चूंकि समरकन्द से अफगानिस्तान तक भाषाओं के बीच अंतर्संबंध है, इसलिए इस संपूर्ण क्षेत्र में 'डालडाÓ शब्द सदियों से इन्हीं अर्थों में प्रचलित रहा है और लीवर ब्रदर्स ने जब दक्षिण एशियाई देशों के व्यंजनों को नयी ऊर्जा देने के लिए नया उत्पादन शुरू किया, तब बहुत संभव है कि उसे इस क्षेत्र में प्रयुक्त 'डालडाÓ शब्द का अर्थ मालूम हो।