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हम भूल न जाएं उनको: क्रांतिवीर वारींद्र घोष जिन्होंने 11 साल काला पानी की सजा भुगती

भारत स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा हो और वारींद्र घोष की विप्लव गाथा याद न आए यह संभव ही नहीं। वारींद्र घोष ने क्रांतिकारी पत्रकारिता की शुरुआत की। 11 साल काला पानी की सजा भुगती और ‘द्वीपांतरेर कथा’ के रूप में उन अनुभवों का सच्चा दस्तावेज दिया।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sun, 12 Jun 2022 10:18 AM (IST)
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भारतीय पुनर्जागरण के भीतर छिपी हुई वैचारिक क्रांति और उसकी आग को छूकर देखना...
 डा. मुरलीधर चांदनीवाला। वर्ष 1893 में जिन दिनों श्री अरविंद पश्चिम से भारत लौट रहे थे, उन्हीं दिनों विवेकानंद भारत की ओर र्से ंहदू धर्म की ध्वजा फहराने के लिए पश्चिम जा रहे थे। ये दोनों आधुनिक भारतीय अध्यात्म के जनक समझे जाते हैं, लेकिन इनके छोटे भाइयों ने पुनर्जागरण के लिए क्रांति के जो बीज बोए, उसके परिणाम युगांतरकारी सिद्ध हुए। बंगाल में स्वतंत्रता संग्राम की आग प्रज्वलित करने वालों में जो दो नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं, वे हैं- वारींद्र घोष और भूपेंद्रनाथ दत्त। वारींद्र घोष श्री अरविंद के छोटे भाई थे, तो भूपेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद के। आग उगलने वाले अखबार ‘युगांतर’ की नींव रखने वाले युवा क्रांतिकारी ये दोनों ही थे। इनमें भी वारींद्र घोष का जीवन विकट संघर्षों से भरा हुआ था और उसमें हलचल कुछ ज्यादा ही थी।

राजनीतिक संन्यासियों के प्रशिक्षक

वारींद्र घोष का जन्म 1880 में इंग्लैंड में हुआ। पिता कृष्णधन के निधन के बाद उन्हें विवशता में भारत लौटना पड़ा। देवघर में रहकर उन्होंने प्री-यूनिवर्सिटी परीक्षा उत्तीर्ण की, कुछ समय पटना और फिर ढाका कालेज में रहकर पढ़ाई पूरी की। जिसके बाद वे अपने बड़े भाई श्री अरविंद के पास चले आए, जो तब बड़ौदा में थे। सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन वारींद्र घोष कुछ मामलों में अपने बड़े भाई से दो कदम आगे चल रहे थे। वारींद्र को लगता था कि क्रांति के लिए ऐसे युवा संन्यासी चाहिए, जो घर-बार छोड़कर संग्राम में कूद पड़ने को तैयार हों, जिनमें अध्यात्म की आग हो और शस्त्र उठाने का साहस भी। वे ‘आनंदमठ’ की कथा से उत्प्रेरित थे। वे सचमुच ऐसे निर्भय संन्यासियों की तलाश में थे, जो भारत माता के चरणों में बलिदान होने के लिए तत्पर हों। वारींद्र घोष ने राजनीतिक संन्यासियों का एक बड़ा आश्रम बनाया, जहां क्रांति का भलीभांति प्रशिक्षण दिया जा सके। यह केंद्र कलकत्ता के पास मानिकतला की दो एकड़ जमीन पर था, जहां एकांत में बम बनाने का अभ्यास कराया जाता था।

भाई को दिलाई गुरु की दीक्षा

श्री अरविंद ने अपने छोटे भाई के ही कहने पर ‘भवानी मंदिर’ की योजना बनाई थी। ‘भवानी मंदिर’ योजना के मूल में यह भाव था कि प्रत्येक भारतवासी स्वयं को भारत भवानी का मंदिर बना ले। इसी थीम पर श्री अरविंद ने संस्कृत में प्रसिद्ध काव्य ‘भवानी भारती’ की रचना की, जिसे प्रकाशन से पहले ही ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था। बड़ौदा में रहते हुए श्री अरविंद को विष्णु भास्कर लेले से जो आध्यात्मिक सहायता मिली, वह भी छोटे भाई वारींद्र के कारण थी। वारींद्र उनसे पहले ही लेले से दीक्षा ग्रहण कर चुके थे। उनकी गहन अनुभूतियां श्री अरविंद से छुपी नहीं रह सकीं। श्री अरविंद ने जब लेले से मिलने की इच्छा प्रकट की, तब वारींद्र ने ही लेले को तार भेजकर बड़ौदा बुलवाया था। इस बात के लिए श्री अरविंद जीवनभर अपने छोटे भाई के प्रति सदैव कृतज्ञ बने रहे।

मुखरता ही एकमात्र विकल्प

वारींद्र घोष ने अपने साथियों के साथ मिलकर जब साप्ताहिक पत्र ‘युगांतर’ निकालने की योजना बनाई, तब वे मात्र 25 वर्ष के थे और उनके सपने भी सचमुच युगांतरकारी थे। ‘युगांतर’ की गतिविधियां हल्की-फुल्की नहीं थीं, वह ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खुला विद्रोह था। वारींद्र घोष की स्पष्ट नीति यह थी कि ब्रिटिश साम्राज्य को पटखनी देने के लिए कोई शांतिपूर्ण तरीका काम में नहीं आ सकता। इसलिए वे साथियों के साथ दिन-रात ब्रिटिश अधिकारियों पर हमले कर उनकी हत्या की योजना बनाने लगे। धन की आपूर्ति के लिए लूट भी उनकी गतिविधियों में शामिल थी। वे जो करते थे, वह सब मुखरता से ‘युगांतर’ में छपता भी था। ‘युगांतर’ कार्यालय पर कई बार छापे पड़े, प्रेस जब्त कर लिया गया और ‘युगांतर’ के लेखक और संपादक भूपेंद्रनाथ दत्त को कठोर सजा हुई। अब वारींद्र घोष के सामने पत्र निकालने की जगह सीधे आक्रमण का ही विकल्प था।

कारनामे भी युगांतरकारी

वारींद्र घोष बहुआयामी व्यक्तित्व वाले असाधारण योद्धा थे। 1907 में सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में बंगाल से जो प्रतिनिधि पहुंचे थे, उनका नेतृत्व वारींद्र घोष ने ही किया था। वारींद्र घोष गरम दल की आवाज थे। सूरत में हुए कांग्रेस विभाजन के बाद वारींद्र घोष के काम करने के तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव आया। वे पूरी तरह से ‘युगांतर’ नाम के उस गुप्त संगठन के लिए काम करने लगे, जिसे बंगाल के युवा क्रांतिकारियों ने मिलकर बनाया था और जिसमें खुदीराम बोस जैसे निर्भीक क्रांतिकारी भी थे। इस संगठन ने डगलस किंग्सफोर्ड का वध करने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को चुना था। खुदीराम बोस को इसी के चलते फांसी की सजा हुई और श्री अरविंद और वारींद्र घोष सहित कई क्रांतिकारी अलीपुर जेल में डाल दिए गए थे। जहां वारींद्र घोष को पहले तो मौत की सजा हुई, फिर इसे आजीवन काला पानी की सजा में बदल दिया गया।

भारत माता को समर्पित जीवन

वारींद्र घोष ने 11 वर्ष तक पोर्ट ब्लेयर की सेल्यूलर जेल में रहते हळ्ए कठोर यातनाएं सहीं। ब्रिटिश सरकार ने सर्वक्षमा के तहत वारींद्र घोष को मुक्त कर दिया, जिसके बाद वे फिर क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गए। कुछ समय पांडिचेरी में श्री अरविंद के साथ रहने के बाद वे कलकत्ता लौट आए और ‘द डान आफ इंडिया’ साप्ताहिक शुरू किया। वे ‘स्टेट्समैन’ से भी जुड़े रहे। इनके ही संपादन में ‘दैनिक वसुमति’ अखबार निकाला गया। वारींद्र घोष निर्भीक पत्रकार होने के साथ-साथ उच्चकोटि के साहित्यकार और चित्रकार थे। इनकी लिखी हुई मार्मिक आत्मकथा और दूसरी कई पुस्तकों में काला पानी के वे असंख्य अनुभव शामिल हैं, जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वारींद्र घोष का निधन 18 अप्रैल, 1959 को हुआ। अंतिम सांस तक उनका जीवन भारत माता के लिए समर्पित था।

(लेखक भारतीय संस्कृति के अध्येता हैं)