फौलादी इरादों वाली मैकेनिक
इन दिनों महिलाओं का हर प्रकार के छोटे-बड़े वाहनों पर नियंत्रण है। मोटर रैलियों में भी उनकी रफ्तार काबिल-ए-तारीफ है।
डीटीसी की पहली महिला बस ड्राइवर होने के नाते तेलंगाना की वी.सरिथा को फख्र एवं उम्मीद है कि अगर स्त्रियां अपनी क्षमता पहचान लें तो नामुमकिन कुछ भी नहीं। फिर कमान चाहे स्टेयरिंग पर हो या इंजन पर। उन्हें न कालिख लगने का डर सताता है, न ही चुभते हैं ताने...
बांग्लादेश में हुई शुरुआत
बांग्लादेश की खदीजा मोटरसाइकिल मैकेनिक्स का प्रशिक्षण ले रही हैं। सरकार द्वारा शुरू किए गए इस कार्यक्रम के तहत महिलाओं को साक्षर करने के अलावा कार्यकुशल बनाया जा रहा है। खदीजा कहती हैं, जब हमने जॉएन किया था तो लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा था कि लड़कियां ये सब कर सकती हैं, लेकिन लड़कियों ने खुद को साबित कर दिखाया। अब ग्राहक भी हम पर विश्वास करने लगे हैं।
‘दस वर्ष पहले लोगों के लिए महिला मैकेनिक को स्वीकार करना मुश्किल था। लेकिन आज विश्वास बढ़ चुका है। मेरा काम मुश्किल जरूर है, लेकिन घर बैठे रहने से बेहतर है,’ कहती हैं शांति देवी। कुछ साल पहले तक मध्य प्रदेश से दिल्ली आ बसीं शांति देवी देश की अकेली महिला मैकेनिक हुआ करती थीं, जो ट्रकों की मरम्मत का काम देखती हैं। आज पूनम सिंह, प्रिया दहिया, श्रुति, शिवांगी जैसी लड़कियां ट्रांसपोर्ट डिपो, ऑटोमोबाइल शॉप फ्लोर्स, कार प्लांट्स में मैकेनिक समेत तमाम वे जिम्मेदारियां संभाल रही हैं, जिन पर कुछ वर्ष पहले तक सिर्फ पुरुषों का दखल था। सुखद बदलाव यह भी है कि कंपनियां उन्हें प्रशिक्षित कर, अपने शॉप फ्लोर पर अवसर मुहैया करा रही हैं। फोर्ड इंडिया की चेन्नई एवं आणंद शाखा में काफी महिलाएं शॉप फ्लोर पर काम करती हैं। मिलती-जुलती कहानी मारुति सुजुकी, टाटा मोटर्स, महिन्द्रा आदि में इस तरह का काम करने वाले महिलाओं की भी है। महिन्द्रा लॉजिस्टिक्स में फोर्कलिफ्ट ऑपरेटर्स, लोडर्स जैसे मशीन आधारित कार्य महिलाओं के मजबूत कंधों पर हैं।
हम किसी से कम नहीं
ये कहना गलत नहीं होगा कि लीक से हटकर काम करने की अपनी चुनौतियां हैं। जयपुर की दो लड़कियों किरण दीप और शोमा रानी ने कल्पना नहीं की थी कि वे पुरुष प्रधान क्षेत्र में कौशल आजमाएंगी। आज दोनों श्रीगंगानगर स्थित राजस्थान स्टेट रोडवेज कॉरपोरेशन डिपो (आरएसआरटीसी) में बसों की मरम्मत, इंजन को असेंबल और वाहनों के कल-पुर्जों की देखरेख से लेकर तमाम अन्य कार्य करती हैं। किरण बताती हैं, ‘मेरे पिता वेल्डर हैं। बचपन में जब बाकी बच्चे खिलौनों से खेला करते थे, तब मेरे हाथों में रिंच और स्क्रू ड्राइवर होता। स्कूली दिनों में ही तय कर लिया था कि आगे चलकर मैकेनिक ही बनना है। किस्मत ने साथ दिया और 2013 में मुझे आरएसआरटीसी में बतौर डीजल मोटर मैकेनिक नौकरी मिल गई। शुरू में काम कठिन लगा था, लेकिन वरिष्ठजनों की सहायता से सब सीख लिया। मैं यही मानती हूं कि लड़कियां किसी से कम नहीं हैं।’
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यह मेरी चॉइस है
‘ हम इस सच से वाकिफ थे कि इसमें लड़कियों की संख्या नगण्य है। उस पर से समाज की धारणाएं, तमाम सवाल थे। मैकेनिक बनेंगी तो हाथ काले हो जाएंगे, चोट लगने का खतरा रहेगा, शादी कैसे होगी आदि-आदि, लेकिन मैंने स्नातक करने के बावजूद आईटीआई से डीजल मैकेनिक्स का कोर्स किया और फिर नौकरी। मेरे लिए रिश्ते आते हैं, लेकिन मेरा इस तरह का काम उन्हें मंजूर न होने के कारण बात आगे नहीं बढ़ती। मैं काम छोड़ नहीं सकती, क्योंकि वह मेरी अपनी चॉइस है।’ कहती हैं डीजल मैकेनिक शोमा। शोमा को करीब तीन वर्ष हो गए हैं इस पेशे में। शुरू में हालात थोड़े डराते थे। नकारात्मक बातें होती थीं, लेकिन शोमा ने खुद को अंदर से मजबूत कर लिया, यह सोचकर कि जब लोहे के हथौड़े चला सकती हैं तो अपनी सुरक्षा क्यों नहीं कर सकतीं? वह कहती हैं, ‘वक्त के साथ लोगों का व्यवहार भी बदलता गया। दिन हो या रात, ड्यूटी से कभी पीछे नहीं हटती। अब न ड्राइवर का खौफ सताता है, न कंडक्टर का। हमें अपने पर भरोसा रखना होता है।’
फोर्कलिफ्ट से नहीं लगता डर
सवाल मैकेनिक बनने या मशीन से संबंधित अन्य तकनीकी कार्य करने का नहीं। इसमें शारीरिक श्रम की आवश्यकता अधिक होती है। इसलिए इस क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व था। कम ही लोगों को उम्मीद थी कि कार निर्माता या लॉजिस्टिक कंपनियों में इस्तेमाल होने वाले विशाल औद्योगिक ट्रक यानी फोर्कलिफ्ट का संचालन महिलाओं के हाथों में होगा। आज महिन्द्रा लॉजिस्टिक्स के पुणे प्लांट में सात फोर्कलिफ्ट महिला ऑपरेटर्स कार्य कर रही हैं। फोर्कलिफ्ट ड्राइवर शिवांगी गायकवाड़ कहती हैं, ‘लोडिंग एवं अनलोडिंग करना आसान नहीं था। मशीन से जान-पहचान नहीं थी, लेकिन दो महीने के प्रशिक्षण से ऐसा आत्मविश्वास बढ़ा कि अब डर नहीं लगता।’ वहीं, सुलभा कहती हैं कि शुरू में थोड़ी घबराहट होती थी कि कैसे करूंगी? लेकिन वरिष्ठजनों एवं सहयोगियों के अच्छे बर्ताव, काम के सुरक्षित माहौल एवं पति के सहयोग ने उनके तमाम संशय को मिटा दिए।
मशीन से प्यार में चुना पेशा
बात शिवांगी की हो, शोमा या किरण की। ये सभी समाज के उस तबके की प्रतिनिधि हैं, जहां बेटियों के आचारविचार-व्यवहार पर कड़ी बंदिशें होती हैं। पहनावे एवं पेशे का चुनाव उनके अधिकार में नहीं होता। बावजूद इसके आज लड़कियां अपनी लकीर खुद खींच रही हैं। पूनम सिंह उनमें से एक हैं। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के छोटे से गांव तिमकिया की यह बेटी अपनी मर्जी से मेरठ स्थित ऑटोमोबाइल सर्विस सेंटर में बतौर सुपरवाईजर कार्य कर रही है। पूनम कहती हैं, ‘ मैं पैंट-शर्ट पहनती हूं। बिना सिर ढके काम पर जाती हूं। यह उस पेशे की जरूरत है, जो मैंने पसंद से चुना है।’ ये न सिर्फ देश की पहली लड़की हैं जिन्होंने ऑटोमोबाइल मैकेनिक कोर्स करने के बाद आईटीआई से अप्रेंटिसशिप किया है, बल्कि किसी कंपनी में नौकरी करने वाली परिवार की पहली सदस्य भी हैं। ‘मुझे हमेशा से मशीन में दिलचस्पी रही है। नौकरी करते हुए गाड़ियों और मशीनरी के प्रति जिज्ञासा बढ़ती गई। अब इसी में आगे बढ़ना है।’
प्रस्तुति- अंशु सिंह
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