लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के द्वंद्व और उनके त्याग को प्रस्तुत करती पुस्तक
रामकथा की पात्र उर्मिला के जीवन पर आधारित यह पुस्तक संदेश देती है कि किसी भी परिस्थिति में कभी निराश नहीं होना चाहिए। जीवन में संतुलन और अनुपात हो तो किसी भी परिस्थिति का सामना किया जा सकता है।
By JagranEdited By: Vivek BhatnagarUpdated: Sat, 24 Sep 2022 09:32 PM (IST)
ब्रजबिहारी। रामकथा उसके चरित्रों के त्याग से भरी हुई है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का त्याग उनमें सर्वोपरि है, लेकिन लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला का त्याग किसी से कमतर नहीं है। उनकी वेदना इस मामले में विशिष्ट है कि उसमें आंसुओं के निकलने की मनाही भी शामिल है। इसके बाद भी उर्मिला को वह प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसकी वह अधिकारिणी हैं। लेखिका आशा प्रभात ने अपने उपन्यास `उर्मिला' में लक्ष्मण से दीर्घ और दारुण विरह के समय अपने कर्तव्यों का उदात्त भाव से पालन करने वाली इस अद्भुत नारी के चरित्र को पर्याप्त विस्तार देकर इस कमी को पूरा करने का एक और प्रयास किया है।
गौर से देखा जाए तो उर्मिला जैसी रचनाओं से भारत और हिंदुओं को स्त्री-पराधीनता का गढ़ और पोषक कहने वालों की आंखें खुल जानी चाहिए। विदेशी आक्रमणकारियों के दुष्प्रचार के कारण यह गलत धारण बन गई है कि भारत में महिलाएं दोयम दर्जे की हैं। यह सच से परे है। उर्मिला को देखिए। वह गुणों की खान है। उसका चरित्र इतना वैविध्यपूर्ण है कि उसमें एक आधुनिका की छवि दिखती है। वह पति के वियोग से विचलित नहीं होती है। उसका संघर्ष साधनापरक है। वह डरकर पलायन नहीं करती। किसी स्थिति से समझौता भी नहीं करती, बल्कि एक संन्यासी की तरह तपस्या में लीन रहती है। इस उम्मीद में कि 14 वर्ष बाद प्रियतम का आगमन होगा और उनसे मिलन होगा। उर्मिला इस देश की महिलाओं को संदेश देती है कि कभी निराश नहीं होना चाहिए। जीवन में संतुलन और अनुपात हो तो किसी भी परिस्थिति का सामना किया जा सकता है।
इस उपन्यास का पाठक उर्मिला को श्रीराम के समक्ष अपने तर्कों के साथ मजबूती के साथ खड़ा पाता है। जब श्रीराम अपने भ्राता लक्ष्मण को त्याग देते और वह इस वियोग में जलसमाधि ले लेते हैं तो उर्मिला प्रभु से पूरी दृढ़ता से पूछती है कि वचन मनुष्य के लिए हैं या मनुष्य वचन के लिए। वचन इतना भी महान नहीं, जिसके लिए आत्मघात कर लिया जाए...। दिए हुए वचन से यदि किसी का अहित नहीं होता हो तो उसे तोड़ देना ही श्रेयस्कर है। विधान समाज को संतुलित रखने के लिए बनाए जाते हैं, स्वयं की बलि देने के लिए नहीं।
यह रचना हमें पुनः यह स्मरण कराती है कि हमारी सभ्यता की अवधारणा सभा से, समाज से तथा अनुशासन से जुड़ी है, लेकिन पश्चिमी सभ्यता धीरे-धीरे हमारे मन-मस्तिष्क को जकड़ती जा रही है। हम अपने समृद्ध इतिहास को विस्मृत करते जा रहे हैं। पश्चिमी सभ्यता के मूल में विनाश है, जबकि हमारी संस्कृति जियो और जीने दो पर आधारित है। हमारी यह सद्भावना हमारी कमजोरी बन गई। ऐसी रचनाओं के माध्यम से मूल्यों से समृद्ध अपने अतीत को सामने लाना आवश्यक है।
इस उपन्यास का कथानक श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण के वनगमन से लेकर लक्ष्मण की जल समाधि लेने तक फैला हुआ है। हालांकि इसकी नायिका उर्मिला है, लेकिन उनके चरित्र के साथ पूरी रामकथा भी साथ-साथ चलती है। पुस्तक की शैली आकर्षक है। लेखिका ने भाषा को उस युग के हिसाब से रखने की भरपूर कोशिश की है। इसकी सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने भाषा को युगीन रखने का प्रयास किया है, लेकिन बीच-बीच में `नेस्तनाबूद' ` पनाह' `परवान' और `कतई' जैसे शब्दों के उपयोग खटक रहे हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि लेखिका ने रामकथा की एक अपूर्व चरित्र के अनन्य प्रेम और अलक्षित त्याग को अपनी रचना का विषय बनाकर हिंदी साहित्य की बड़ी सेवा की है, लेकिन यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता है कि रामायण से इतर उनके विषय में कहीं कुछ प्राप्त नहीं होता। 20वीं सदी की शुरुआत में हिंदी साहित्य के मनीषियों द्वारा उर्मिला को प्रतिष्ठित करने के प्रयास शुरू हो गए थे। किस्सा मशहूर है कि कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने उर्मिला के विरह पर एक निबंध लिखा था, जिसे पढ़कर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को इस चरित्र को आधार बनाकर रचना करने की प्रेरणा दी थी। इसका परिणाम महाकाव्य `साकेत' के रूप में आया। इसके अलावा बालकृष्ण शर्मा नवीन ने आचार्य की प्रेरणा से अपने जेल जीवन के दौरान खंडकाव्य `उर्मिला' की रचना की। इसके बाद भी डा. नगेंद्र जैसे लेखकों और समालोचकों ने उर्मिला की चारित्रिक विविधता को रूपायित करने के प्रयास जारी रखे। प्राक्कथन में इन प्रसंगों का उल्लेख करने से पुस्तक की उपयोगिता ही बढ़ती।
--------पुस्तक का नामः उर्मिलालेखिकाः आशा प्रभातप्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्समूल्यः 299 रुपये-------