जीवन दर्शन : हनुमान जी से सीखें अपनी जीवन-यात्रा के लिए मंगलमय मंत्र
शरद ऋतु में ही रामभक्त श्री हनुमान जी ने समुद्र लांघ कर लंका की यात्रा की थी। उनकी यात्रा के अनेक निहितार्थ-संदेश हैं जिन्हें अंगीकार कर हम अपने जीवन की यात्रा को भी मंगलमय बना सकते हैं और एक सफल जीवन की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
By Jagran NewsEdited By: Vivek BhatnagarUpdated: Mon, 21 Nov 2022 04:43 PM (IST)
मोरारी बापू। शरद ऋतु में हनुमान जी ने जो लंका की यात्रा की, उसमें से यदि पांच बातों को अपना लिया जाए, तो जीवन में बहुत लाभ होगा। पहली वस्तु है विश्वास। हनुमान जी प्रभु में विश्वास के सहारे समुद्र को ही लांघ गए। विश्वास तीन प्रकार के होते हैं। पहला है आत्म-विश्वास। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के लिए आत्म-विश्वास बहुत जरूरी है। आत्म-विश्वास होगा तो कभी अवसाद नहीं घेरेगा। आत्म-विश्वासी किसी भी परिस्थिति में स्वयं को नुकसान पहुंचाने के बारे में नहीं सोचेगा। मैं हार गया, मेरा सब खत्म हो गया या मेरे पास है ही क्या, जैसे विचार शून्य हो जाएंगे। विचार आएंगे तो ऐसे कि मैं ईश्वर पुत्र हूं। मैं सामान्य नहीं, उसका अंश हूं। इसलिए सबसे पहले आत्म-विश्वास होना चाहिए। इसे आत्मबल भी कहते हैं। अकेला आत्म-विश्वास भी पर्याप्त नहीं है। सिर्फ अपने पर भरोसा करना, इस विचार में पूर्णता नहीं है। इसके साथ सर्वात्म-विश्वास भी चाहिए। सर्वात्म-विश्वास अर्थात सब पर भरोसा। हर व्यक्ति पर बार-बार शंका करेंगे तो ठीक से जी नहीं पाएंगे। संशय मृत्यु है। विवेकानंद जी ने कहा है कि विश्वास जिंदगी है। शंका करने वाला जल्दी आउट हो जाता है। वह टिक नहीं सकता। वह हारने का काम कर रहा है, जीतने का नहीं। अपने परिवार पर भरोसा करो। पत्नी-बच्चों पर भरोसा करो और मेरी तरह जीना हो तो दुश्मनों पर भी भरोसा करो। हां, थोड़ा कठिन है, मगर हो सकता है। सब पर विश्वास करो तो ही जी पाओगे, मगर कभी-कभी सर्वात्म-विश्वास भी परेशान करेगा। उसके बाद होता है परमात्म-विश्वास। हनुमानजी को परमात्म-विश्वास है। जो परमात्मा में विश्वास रखता है, वही सीता यानी भक्ति की खोज कर पाता है।
हनुमानजी लंका यात्रा में दूसरा संदेश देते हैं कि विश्राम ज़रूरी है, मगर विश्राम के नाम पर आलसी मत बन जाना। ध्यान देना, जीवन में कभी भी आलस्य नही आना चाहिए। वह कभी-कभी विश्राम के सुंदर कपड़ों में आ जाता है। उससे सावधान रहना है। तीसरी सीखने वाली बात है कामना पर नियंत्रण। इससे अहंकार न आ जाए, इसलिए कामनाओं पर विवेकपूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। चौथा है ईर्ष्या का त्याग। हनुमानजी की यात्रा में बाधा डालने वाली जो सिंहिका राक्षसी थी, वह ईर्ष्या थी। हनुमानजी ने उसे मार डाला। ईर्ष्या मरी और किनारा मिला। फिर एक कदम की भी यात्रा बाकी नहीं रहती। सीधे लक्ष्य मिल जाता है। पांचवां है सत्संग। जब भी अवसर मिले, सत्संग करो। इससे परमात्म-विश्वास बढ़ेगा, कामनाओं पर नियंत्रण आएगा, विश्राम के सुंदर वस्त्रों में आलस्य नहीं आ पाएगा और ईर्ष्या खत्म हो जाएगी। सत्संग का एक लाभ यह भी है कि इससे व्यक्ति का स्वभाव बदलने लगता है। हमारे सुख-दुख का सबसे बड़ा कारण है हमारा स्वभाव। अभाव इतना कारण नहीं है। अभाव में लोग खुशियां जी लेते हैं। अभाव को हम पुरुषार्थ करके थोड़ा कम कर सकते हैं। दूसरे का प्रभाव उधार है, मेरे किसी काम का नहीं, ऐसी समझ आने पर दूसरे का प्रभाव कम पड़ता है। हम अपने स्वभाव में जिएं। हमें दुनिया भर के स्वभाव का पता है और हम प्रमाण-पत्र भी देते हैं, लेकिन खुद के स्वभाव की तलाश नहीं कर पाते। कई लोग अंदर से समझते भी हैं कि जो कुछ हो रहा है, मेरे स्वभाव के कारण हो रहा है। स्वभाव खुद को तो दुख देता ही है, समाज को भी दुख देता है। यही स्वभाव यदि ठीक हो जाए तो बहुत सुख भी दे सकता है। भगवान राम के स्वभाव की इतनी महिमा क्यों गाई गई? तुलसीदास जी ने पूरे रामचरित्र में प्रभु के स्वभाव की बहुत चर्चा की। गोस्वामी जी राम के स्वभाव का इतना उल्लेख नहीं करते तो शायद हम उन्हें इतना समझ नहीं सकते थे। राम का स्वभाव दुश्मन को भी प्रिय लगता है। मेरी दृष्टि में स्वभाव का बहुत महत्व है। जीवन के सुख-दुख के बहुत से कारण ग्रंथकारों ने, मनीषियों ने, ऋषियों ने बताए हैं। मेरा कहना है हम अपने स्वभाव को प्रकृति और परमात्मा के अनुकूल रखें। न तो परमात्मा हमारा बैरी है, न प्रकृति। ये हमारा हित करने वाले मित्र हैं। उनके अनुकूल हमारा स्वभाव हो जाए तो कर्म के हिसाब से आए दुख, रोग व विपत्ति में भी बड़ी ताकत मिलेगी। मानस में आया है कि...
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा।हमारे साथ पांच चीजें जुड़ी हैं : पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु। इन पांचों से ही हमारा शरीर बना हुआ है। इनकी रक्षा कौन करता है यानी इनके जो गुण हमारे अंदर हैं, उनकी रक्षा कौन करता है? उन गुणों की रक्षा विवेक करता है और वह विवेक सत्संग से ही प्राप्त होता है। पृथ्वी की रक्षा भगवान वराह करते हैं। गोस्वामी जी ने विवेक को वराह कहा है। पृथ्वी का एक लक्षण है धैर्य रखना। क्षमा करना। सहन करना। जब मैं सहन करने की बात कहता हूं तो लोग कहते हैं - कब तक सहन करें या फिर हम कहते है कि कितनी बार क्षमा करें? सामने वाला तो बार-बार भूल कर रहा है। कब तक हम उसको क्षमा किए जाएं? जब धैर्य डगमगा जाए, जब सहनशीलता कमजोर होने लगे और जब क्षमा करने में अपने को असहाय समझने लगें, तब इन तीन में हमारी मदद एक विवेक ही करेगा। उस समय अगल-बगल वालों की सलाह काम नही करेगी। सत्संग से प्राप्त विवेक ही हमारी रक्षा करेगा। इसलिए विवेक की बहुत जरूरत है। इसके लिए सत्संग ही करना पड़ेगा, लेकिन अब यह प्रश्न उठता है कि सत्संग कैसे मिले?
जगद्गुरु शंकराचार्य कहते है कि जगत में तीन वस्तुएं अत्यंत दुर्लभ हैं। इनमें आखिरी दुर्लभता सत्संग की ही बताई गई है। सत्संग कैसे मिले? राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। यह राम कृपा से ही मिलता है। अब प्रश्न खड़ा होगा कि राम कृपा कैसे मिले? हम भजन तो करते हैं मगर स्वार्थपूर्ण होशियारी नही छोड़ते। भजन भी करें और स्वार्थ भी साधते रहें तो भला कैसे राम कृपा प्राप्त होगी? स्वार्थ छोड़कर भजन करें तो कृपा प्राप्त हो पाएगी। फिर उससे प्राप्त विवेक से धैर्य, क्षमा और सहनशीलता बरकरार रहेगी।
प्रस्तुति : राज कौशिकमोरारी बापूरामकथा वाचक