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अहंकार शमन के देवता हैं भगवान वामन, जो देते हैं देवत्व का संदेश

भगवान विष्णु के पांचवें अवतार वामन भगवान की जयंती भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को मनायी जाती है। इस तिथि के श्रवण नक्षत्र के अभिजित मुहूर्त में भगवान भास्कर जब आकाश के मध्य में थे उस वक्त वामन भगवान प्रकट हुए थे।

By Vivek BhatnagarEdited By: Updated: Sun, 04 Sep 2022 05:50 PM (IST)
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वामन भगवान की कथा से लौकिक जीवन में घटित होने वाली सारी बातें दिखाई पड़ती हैं।

 सलिल पांडेय। भगवान विष्णु के पांचवें अवतार वामन भगवान की जयंती भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को मनायी जाती है। इस तिथि के श्रवण नक्षत्र के अभिजित मुहूर्त में भगवान भास्कर जब आकाश के मध्य में थे, उस वक्त वामन भगवान प्रकट हुए थे। मान्यता है कि चातुर्मास की अवधि में इस तिथि को क्षीरसागर में योगनिद्रारत भगवान विष्णु करवट बदलते हैं। चार माह (लगभग 120 दिन) की अवधि का दो माह (60 दिन) का समय इस दिन पूरा होता है। इस तिथि और समय पर मनन किया जाए तो द्वादशी तिथि द्वादश ज्योतिर्लिंगों का प्रतीक है। ज्योतिर्लिंग का आशय ही मनुष्य को प्रकाश देना है। वामन भगवान नृसिंह अवतार के बाद प्रकट होते हैं। इसका अर्थ यही है कि शरीर धारण करने के बाद आधा देवत्व और आधा पशुत्व, दोनों भावों की संभावनाएं विद्यमान रहती हैं। इस द्वंद्वात्मक स्थिति से मुक्त होना ही वामन अवतार का संदेश है। वामन भगवान के अवतार के पीछे असुरों के आतंक को समाप्त करना प्रमुख था। श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध के 17 से 22वें अध्याय के अलावा वामन पुराण के 23 से 31वें अध्याय में भगवान वामन के अवतार के क्रम में असुरों के राजा बलि से तीन पग धरती मांगने की कथा विस्तार से है। असुरों के गुरु शुक्राचार्य के मना करने के बावजूद राजा बलि वामन भगवान को तीन पग भूमि दान करने के लिए मना नहीं कर सके। कारण यह कि राजा बलि यद्यपि असुरों के राजा थे, लेकिन भक्त प्रह्लाद के पौत्र होने के कारण उनमें भक्ति का वंशानुगत प्रभाव भी था। वे यज्ञ, पूजन, दान आदि में दत्तचित्त भाव से लगे रहते थे। वे जानते थे कि शक्ति-सामर्थ्य के लिए सत्य के देवता श्रीहरि को प्रसन्न करना जरूरी है। इसीलिए ब्राह्मण वेश में आए नारायण के पालनकर्ता भाव तथा सदाचार के तेज के चलते वामन भगवान ने यज्ञ-अनुष्ठान के लिए जैसे ही संकल्प लिया, राजा बलि तत्काल तैयार हो गए। सदाचार के सूर्य की आभा जब भी कहीं पड़ती है तो अंधकार तिरोहित हो जाता है और देवत्व का दिवस आ जाता है। इसके अलावा, वामन भगवान ने राजा बलि को उनके पिता विरोचन, पितामह प्रह्लाद, प्रपितामह हिरण्यकशिपु तक के बारे में बताना शुरू किया। ब्राह्मण रूपधारी अत्यंत छोटे बालक सदृश वामन के मुख से पितृ-देवताओं के उल्लेख से राजा बलि अभिभूत हो गए। सनातन धर्म में पितरों के प्रति श्रद्धा का संदेश दिया ही गया है। इसके लिए 15 दिनों का पितृपक्ष पर्व निर्धारित किया गया है। इतने अधिक दिनों का कोई पर्व नहीं है। वामन द्वादशी के तीसरे दिन से ही पितृ-पक्ष शुरू हो जाता है। भगवान वामन के प्रति राजा बलि में आस्था की ज्योति जैसे ही जाग्रत हुई, वैसे ही वामन भगवान ने आगे की योजना के लिए के निज भूमि पर यज्ञ-अनुष्ठान के लिए प्रस्ताव रखा। निज भूमि का मतलब निजता से है। मनुष्य शरीर भी एक भूमि है। श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का उल्लेख भी है। इस भूमि में अनुष्ठान करने से ही देवत्व का वृक्ष लहलहाता है। यहां तीन पग का आशय त्रिगुणात्मक जीवन से भी लिया जाना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता के इसी अध्याय से 18वें अध्याय तक में अर्जुन को इसके बारे में श्रीकृष्ण ने विस्तार से बताया है। 13वें अध्याय के 19वें श्लोक में प्रकृति और पुरुष को प्रभावित करने वाले तीनों गुणों का उल्लेख है। आहार-विहार से लेकर दान, चिंतन आदि की पूरी व्याख्या श्रीकृष्ण ने की है। प्रह्लाद के पौत्र राजा बलि में नकारात्मकता के तामसिक गुणों को पाताल लोक में ले जाने की भगवान वामन की योजना भी थी। देवासुर संग्राम के दौरान तामसिक विष को भगवान शंकर ने कंठ में रोक लिया था और मन-मस्तिष्क में नहीं जाने दिया था। वामन भगवान ने पहले पग में पूरी धरती, दूसरे पग में आकाश नापने के बाद तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रख दिया और उन्हें पाताल लोक जाने का आदेश दिया। वामन भगवान की कथा से लौकिक जीवन में घटित होने वाली सारी बातें दिखाई पड़ती हैं। प्रथम तो जब व्यक्ति अहंकारग्रस्त होता है तो उसका सदाचार क्षीण हो जाता है और वह जनमानस में लघुता की स्थिति में आ जाता है, जबकि अहंकार शून्य होने पर दिखता तो वह बहुत छोटा है, लेकिन उसमें क्षमता और संभावनाएं अनंत और व्यापक होती हैं। वामन भगवान का यह चरण लघु से विराट होने की यात्रा है। भगवान वामन के जन्म जयंती पर भगवान विष्णु की प्रसन्नता पाने के लिए पूजन, व्रत, उपवास के साथ विष्णुसहस्त्र नाम का पाठ आदि का भी विधान है।