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शक्तिप्राप्ति का मार्ग हैं शिव और शिवप्राप्ति का मार्ग हैं शक्ति, दोनों हैं एक दूसरे के पूरक

नौ पूर्णांक है। नवरात्र में साधक अपनी साधना एक से प्रारंभ कर नौ तक सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। शक्ति जब शिव केंद्रित होती है तभी स्वयं भी पूर्णांक को प्राप्त होती है। शक्ति को पाने का मार्ग शिव हैं और शिव को प्राप्त करने का मार्ग शक्ति है।

By JagranEdited By: Vivek BhatnagarUpdated: Mon, 26 Sep 2022 05:23 PM (IST)
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विरोधी गुणों का संसार के कल्याण के लिए उपयोग करना ही दुर्गा की पूर्णता है।
 संत मैथिलीशरण। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा,कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री वस्तुत: एक ही शक्ति के विभिन्न रूप हैं। जैसे एक कन्या पिता के यहां जन्म लेकर क्रमश: बढ़ते हुए अलग-अलग प्रकार की शिक्षा, योग्यता और आवश्यकता विशेष के अवसर पर अलग-अलग नामों और संबंधों से जानी जाती है, उसी प्रकार नौ दुर्गा साधकों की विभिन्न मन:स्थितियों और और परिस्थितियों को पूर्ण करने के लिए अलग-अलग रूपों में कृपापूर्वक भिन्न और विरोधी रूप धारण करके कार्य सिद्धि में सक्षम हैं। साधना से कृपा को प्राप्त करना ही नवरात्र का चरम लक्ष्य है।

शक्ति रूप देवी का गौरवपूर्ण पूज्य पक्ष यह है कि वे एक ही शिव के प्रतिनिष्ठ हैं और शक्तिमान शिव ही उनके परमाराध्य हैं। शक्ति जब शिव केंद्रित होती है, तभी स्वयं भी पूर्णांक को प्राप्त होती है और साधक को भी व्यापक शिव में ही केंद्रित करती है। शक्ति को पाने का मार्ग शिव हैं और शिव को प्राप्त करने का मार्ग शक्ति है। यही हमारी संस्कृति का पूरक और विराट स्वरूप है। रावण सहित अधिकांश असुर इसी अज्ञानता के कारण मारे गये कि वे स्वयं शक्ति के स्वामी बनना चाहते थे। यह उसी प्रकार की घृणित और अधोगामी साधना है कि कोई अपनी ही मां के गर्भ से जन्म लेकर, उसी से सारी योग्यताएं प्राप्त कर फिर उसी विधात्री का पुत्र न बनकर स्वयं उसका स्वामी बनने का प्रयास करे। साधना का पुरुषार्थ जब अपनी साधना के फल को प्रतिग्रहीता बनकर अपने परम साध्य के प्रति समर्पित कर देता है, तब उसको अपनी साधना का चरम फल प्राप्त होता है। नवदुर्गाओं में कोई विरोधी गुण ऐसा नहीं है, जिसको देवी ने स्वीकारा न हो। विरोधी गुणों का संसार के कल्याण के लिए उपयोग करना ही दुर्गा की पूर्णता है। वही उसका सिद्धिदात्री स्वरूप है।

शंकर जी स्वयं पार्वती जी के संबोधन के लिए ऐसे दिव्य विशेषणों का प्रयोग करते हैं, जो परस्पर विरोधी गुणों से युक्त हैं, पर वे विशेषण शब्दार्थ के रूप में विरोधी होते हुए भी तत्त्व और भाव की दृष्टि से एक दूसरे के पूरक हैं। गाय में वात्सल्य भी है, दूध है तो उसके पास आत्मरक्षा के लिए सींग भी हैं, शरीर से मक्खी मच्छर हटाने के लिए पूंछ भी है, यही जीवन-वाणी और योग्यता का पूरक तत्त्व है।

शंकर जी पार्वती जी को एक ओर हे कमलानयने! कमल के समान नेत्रों वाली कहते हैं, भवप्रीता कहते हैं, भाव्या (ईश्वर का भाव हृदय में धारण करने बाली), भव्या (सदा कल्याण भाव में स्थित रहने वाली), अभव्या (तुमसे बढ़कर संसार में भव्यता और कहीं नहीं है) पर साथ में उन्होंने अहंकारा भी कहा। मनो बुद्धिरहंकारा अर्थात तुम अहमता का आश्रय हो। शंकर जी कहते हैं कि तुममें ही अहंकार बसता है। यह पार्वती जी की आलोचना नहीं है, अपितु भाव्या, भव्या, अभव्या आदि विशेषणों का पूरक भाव है। यह व्यष्टि अहं नहीं है। वे समष्टि अहं का आश्रय हैं कि मैं शिव की हूं और शिव मेरे हैं, शिव के अतिरिक्त न मेरा कोई भाव है और न मेरी कोई भव्यता है, वे शिव को ही अभव्य मानती हैं कि शिव के अतिरिक्त भव्यता और व्यापकता विभुता और कहीं नहीं है।

श्रीरामचरितमानस में शिव को ही समष्टि का अहंकार बताया गया है। अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।। शक्ति ही तो शक्तिमान का आश्रय है और शक्ति का आश्रय शक्तिवान है। जिन 108 विशेषणों से भगवान शंकर ने शक्ति स्वरूपा पार्वती को संबोधित किया, वे सारे विशेषण शिव में पहले से स्वयं सिद्ध और चरितार्थ हैं। शंकर जी पार्वती जी की प्रशंसा करके उनसे अपनी एकरूपता सिद्ध कर रहे हैं, न कि भिन्नता।

नारी की शक्ति, नारी का ऐश्वर्य, नारी का सुयश, नारी का सम्मान किसी एक अधिष्ठान में केंद्रित हुए बिना असुरों या असुर वृत्ति के अधीन हो सकता है, क्योंकि द्वितीय में अद्वितीय भाव लाये बिना अद्वितीय की सिद्धि ही नहीं होगी।

शक्ति पुरुषार्थ साध्य न होकर कृपा साध्य है। नारी भी कृपा साध्य है। उसे पुरुषार्थ से प्राप्त करने की बात करना आसुरी वृत्ति है, वहीं कृपा से प्राप्त करना शिव दृष्टि है। नारी का स्वातंत्र्य तभी सिद्ध और महिमामंडित होगा, जब वह शिव को अर्पित होगी अर्थात अद्वितीय की परतंत्रता को शिरोधार्य कर लेगी। नारी शक्ति किसी से दान में पाने या किसी के अनुग्रह की मोहताज नहीं है। नारी शक्ति स्वयं सिद्ध है, क्यों कि वह शिव की शक्ति है। शिव स्वयं सिद्ध हैं, क्योंकि उनके जीवन में पार्वती का कोई विकल्प नहीं है।