सतोगुणी आचरण की विजय गाथा है राम और रावण का युद्ध, जिसका उत्सव है विजयादशमी का पर्व
राम-रावण युद्ध को रावण ने अपनी मायावी शक्तियों के सहारे लड़ा लेकिन अंतत वह पराजित हुआ। यह निशाचरी प्रवृत्तियों पर सतोगुणी आचरण की विजय गाथा है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की विजय विजय वर्तमान और भविष्य के कुछ प्रश्न हमारे समक्ष रखकर हमारा पथ-प्रदर्शन भी कर रही है...
By Jagran NewsEdited By: Vivek BhatnagarUpdated: Sat, 01 Oct 2022 09:46 PM (IST)
अशोक जमनानी। शारदीय वातावरण शक्ति उपासना से पवित्र होकर विजयादशमी का पथ प्रशस्त करता है। यह केवल एक पर्व या उत्सव भर नहीं है, बल्कि असत्य पर सत्य की, बुराई पर अच्छाई की, तमस पर प्रकाश की और निशाचरी प्रवृत्तियों पर सतोगुणी आचरण की विजय गाथा है। भगवान राम की रावण पर विजय कथा मात्र अतीत की अमर कथा भर नहीं है, बल्कि यह वर्तमान के उत्तर लिखती हुई भविष्य की दिशा सूचक कथा भी है। विजयादशमी के मूल में भगवान राम और रावण का युद्ध है। इस पर बात करने से पूर्व कुछ बात माया और मायावी की भी आवश्यक है। भारतीय आध्यात्मिक चिंतन ने सृष्टि के अस्तित्व में माया की भूमिका को बहुत अधिक महत्त्व दिया है, क्योंकि माया ही सृष्टि के विस्तार को संभव करती है। दर्शन का एक हिस्सा इस सृष्टि को एक महाभ्रम की तरह मानता है और माया के हटते ही सृष्टि के अस्तित्व का भी लुप्त हो जाना इस चिंतन के केंद्र में है। कबीर ने माया को महाठगिनी कहा तो उनके इस कथन के मूल में भी माया की भ्रम विस्तारक भूमिका ही है। लेकिन इसी माया को भारतीय चिंतन ने बहुत सम्मान भी दिया गया है। श्रीरामचरितमानस में जब ब्रह्म साकार होकर मनु और शतरूपा को वरदान देते हैं कि वे पुत्र रूप में उनके घर आएंगे तो वे अपने वरदान में यह भी जोड़ देते हैं कि उनके साथ-साथ माया भी आएंगी। तुलसी दास जी ने इसे वर्णित करते हुए कहा:
आदि सक्ति जेहि जग उपजाया।सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।
भारतीय चिंतन ने माया को आदि शक्ति होने का सम्मान भी दिया है और इसके अस्तित्व को श्रद्धा के साथ स्वीकार भी किया है। लेकिन यही माया सृष्टि के विस्तार के लिए सत, रज और तम के गुण-अवगुण को साधती है तो तमोगुण से एक शब्द प्रकट होता है-मायावी। वैसे तो मायावी शब्द माया का विस्तार ही लगता है, लेकिन अपनी तमोगुणी वृत्ति के कारण यह शब्द शुभ के विरुद्ध खड़ा होता है और जाकर जुड़ता है राक्षस राज रावण और उसकी निशाचरी शक्तियों से। क्या है यह मायावी विस्तार, जिसे खत्म करने के लिए स्वयं ईश्वर को अवतार लेना पड़ता है और कैसे राम-रावण युद्ध में यह मायावी माया वह रचती है, जिसकी केवल अभी कल्पना ही की जा रही है?
भगवान राम और रावण के महायुद्ध में कुंभकर्ण और मेघनाद की मृत्यु के बाद जब रावण युद्धरत होता है तो कुछ समय बाद वह पाता है कि अब वह लगभग अकेला है, क्योंकि उसकी निशाचर सेना का अधिकांश हिस्सा मृत्यु की गोद में जा चुका है। ऐसे में रावण तत्पर होता है उस मायावी युद्ध के लिए, जहां सब कुछ मायावी खेल है। तुलसी दास जी ने इस प्रसंग को आरंभ करते हुए कहा:
रावण हृदय विचारा भा निसिचर संघार
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौ अपार।।अकेला रावण इस युद्ध में जो कुछ रचता है, वह अभी तो उन्नत विज्ञान के लिए भी संभव नहीं है। रावण के मायावी विस्तार में सब कुछ आभासी था। जिसे हम वर्चुअल कहते हैं, लेकिन रावण रचित आभासी संसार इतना अद्भुत था कि हर कोई उसकी इस मायावी रचना के प्रभाव में आ जाता है। वह शुरुआत करता है श्रीराम और लक्ष्मण जी की अनेक आभासी छवियों के निर्माण से। वानर और भालुओं के समक्ष अनेक राम व लक्ष्मण थे और वे रावण की सेना में खड़े थे। यहां से तो केवल शुरुआत होती है। रावण के जितने सिर कटते हैं, वे आकाश में छा जाते हैं, फिर रावण स्वयं को ही असंख्य रूपों में प्रकट करता है और प्रत्येक वानर अथवा भालू के सामने लड़ने के लिए एक रावण मौजूद हो जाता है। युद्ध के अंत में तो जब वह अपनी मायावी शक्ति का विस्तार करता है तो देवता तक भयभीत हो जाते हैं। वह मायावी विस्तार इतना भयंकर था कि तुलसी दास जी ने इस वर्णन को समाप्त करते हुए कहा कि सैकड़ों शेष, सरस्वती और कवि यदि इसे अनेक कल्प तक गाते रहें, तब भी इसका वर्णन संभव नहीं होगा।
वह एक अद्भुत युद्ध था, जिसे रावण ने अपनी मायावी शक्तियों के सहारे लड़ा, लेकिन अंतत: पराजित हुआ। भगवान राम की विजय ने हमारे लिए एक पर्व रचा है, जिसे याद करते हुए हम रावण का पुतला दहन करके उस महान विजय के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। लेकिन अतीत की वह विजय वर्तमान और भविष्य के कुछ प्रश्न भी हमारे समक्ष रख रही है। मनुष्य जाति सभ्यता के उस पड़ाव पर खड़ी है, जहां से आगे बढ़ने के लिए वह आभासी संसार को एक समाधान के रूप में देख रही है। एक स्तर तक आभासी संसार मनुष्य के जीवन में प्रवेश भी कर चुका है और महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रहा है। लेकिन इस आभासी संसार में मनुष्य स्वयं कहां खड़ा है? मनुष्य का मनुष्य से, मनुष्य का प्रकृति से, मनुष्य का स्वयं से और मनुष्य का परम चेतना से संबंध क्या अब भी शेष है? आभासी संसार में समाधान ढूंढ़ती मनुष्य जाति क्या एक ऐसा संसार संभव करने जा रही है, जिसमें सबसे अधिक उपेक्षित और कमजोर स्वयं मनुष्य होगा?
मानव सभ्यता का विकास हुआ तो मनुष्य महाबली बना, लेकिन वही मनुष्य अब एक ऐसा संसार रचने जा रहा है, जो अद्भुत शक्तिशाली तो लगेगा, लेकिन इसमें मनुष्य जाति अपना सब कुछ खो देगी। रावण ने राक्षस सभ्यता का विस्तार किया और मायावी सामर्थ्य ने उसे अपराजेय बना दिया, लेकिन भारतीय चिंतन कहता है कि पृथ्वी ने ईश्वर से प्रार्थना की और कहा कि वह मनुष्य रूप में आए, ताकि मनुष्य जाति अपना खोया हुआ सामर्थ्य पा सके।
विज्ञान का विस्तार यदि मनुष्य का रिश्ता मनुष्य, प्रकृति, स्व और परम् चेतना से समाप्त करके उसे किसी आभासी संसार में ले जा रहा है तो विजयादशमी पर हमें याद भी करना है और संपूर्ण विश्व के समक्ष उस कथा को दोहराना भी है, जो मनुष्य के सामर्थ्य को सबसे ऊंचे शिखर पर स्थापित करती है। जहां ईश्वर मनुष्य रूप में आकर उस मायावी विस्तार को नष्ट करते हैं, जो मनुष्य से उसका संपूर्ण सामर्थ्य ही छीन चुका था।