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काकोरी ट्रेन एक्शन की आंखों देखी बता रहे हैं शचींद्र नाथ बख्शी, पुण्यतिथि (23 नवंबर) पर उनकी लेखनी का अंश

काकोरी ट्रेन एक्शन में अहम भूमिका निभाने वाले शचींद्र नाथ बख्शी इसको लेकर खासे उत्साहित थे। योजना बनाने से लेकर पूर्ण करने तक उनका हौसला सभी क्रांतिकारियों को प्रेरित करने वाला था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिवीर शचींद्र नाथ बख्शी की लेखनी से पढ़िए उस रोमांचकारी अनुभव का अंश...

By Aarti TiwariEdited By: Updated: Sat, 19 Nov 2022 06:38 PM (IST)
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काकोरी ट्रेन एक्शन में अहम भूमिका निभाने वाले शचींद्र नाथ बख्शी

 9अगस्त, 1925 के दिन 8 डाउन पैसेंजर ट्रेन गार्ड जगन्नाथ प्रसाद के चार्ज में थी। ट्रेन डकैती से संबंधित सरकारी गवाहों में जिसने सर्वाधिक समय तक क्रांतिकारियों को देखा था, वह गार्ड जगन्नाथ प्रसाद ही था। वह डकैती शुरू होने के वक्त से लगातार 35 मिनट तक घटना को देखता रहा। शेष गवाहों में से किसी ने भी हमें दो-चार सेकेंड से ज्यादा नहीं देखा था। हां, कुछ लोगों ने डकैती शुरू होने से पहले हमें साधारण मुसाफिर की स्थिति में कुछ क्षणों तक देखा था।

वस्तुत: घटना इस प्रकार थी-

वर्ष 1925 तक उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी संगठन मजबूत हो गया था और संगठन में तेजी भी आ गई थी। जुलाई के अंत में हमें खबर मिली कि जर्मनी से पिस्तौल का चालान आ रहा है। कलकत्ता बंदरगाह में पहुंचने से पहले ही नकद रुपया देकर उसे प्राप्त करना था। एतदर्थ काफी रुपयों की आवश्यकता पड़ी और पार्टी के सामने डकैती के अलावा कोई अन्य चारा नहीं था। चूंकि पार्टी निर्णय कर चुकी थी कि भविष्य में किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं लूटी जाएगी, इसलिए लखनऊ के पास ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई गई। इसकी रूपरेखा सुनकर नौजवानों की तबीयत फड़क उठी। उन दिनों नौजवान साथी बहुत चंचल हो उठे थे और कुछ कर गुजरने के लिए उतावले हो रहे थे। वे ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...’ गाने लग गए थे और उनका मन उसी ऊंचे सुर में बंध गया था। मुझे स्पष्ट याद है कि साथियों में मन्मथनाथ गुप्त, कुंदनलाल, चंद्रशेखर ‘आजाद’ आदि ने मेरे सामने प्रश्न उठाया था कि अगर रेल का गार्ड अंग्रेज हुआ तो क्या उसे जिंदा छोड़ा जाएगा?’ मेरा उत्तर था- ‘नहीं, उसके लिए एक कारतूस खर्च किया जाएगा।’ जब साथियों ने खुशियां जाहिर करनी शुरू कीं, तब मैंने अपने होंठों पर एक अंगुली रख उन्हें रोककर कहा था- ‘चुप, यह बात अपने में ही रखनी चाहिए। यदि रामप्रसाद (बिस्मिल) को इसका पता चल गया और उसने मना कर दिया, तो सब करा-कराया बंटाधार हो जाएगा।’ यहां पर मैं यह बता देना उचित समझता हूं कि हम क्रांतिकारी लोग इतने खूंखार नहीं थे। बात दरअसल यह थी कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हमारे मन में संवेदना इतनी तीव्र थी कि बदला लेने की भावना सदा जाग्रत रहती थी।

केवल अकेले अशफाकउल्ला खां ने इस योजना का विरोध किया और आखिर तक करते रहे। उनका कहना था कि हमारा दल अभी इतना मजबूत नहीं है कि हम ब्रिटिश साम्राज्य को खुली चुनौती दे सकें, लेकिन कोई यह चेतावनी सुनने के मूड में नहीं था। नतीजा यह हुआ कि डकैती का काम शुरू करने का भार रामप्रसाद ने मेरे ऊपर डाला। जब मैंने काकोरी स्टेशन पर लखनऊ के लिए सेकेंड क्लास के तीन टिकट खरीदने के लिए नोट बढ़ाया, तब असिस्टेंट स्टेशन मास्टर घूमकर मेरे चेहरे को गौर से देखने लगा। उसे महान आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से स्टेशन से सेकेंड क्लास के तीन टिकट खरीदने वाला यह व्यक्ति कौन है! मेरे हाथ में रूमाल था और मैं अनायास दूसरी ओर मुंह फेरकर रूमाल से मुंह पोंछने लगा। जब उसने मुझे तीन टिकट और बचे पैसे लौटाए, उस वक्त भी वह मुझे घूर-घूरकर देखता रहा, किंतु मैंने उसे फिर भी मौका नहीं दिया। पैसेंजर ट्रेन आते ही हम तीनों सेकेंड क्लास का एक खाली डिब्बा देखकर उसमें बैठ गए। थोड़ी देर बाद मैंने अपने पास लटकती हुई जंजीर खींच दी। मेरे बाद राजेंद्र लाहिड़ी ने भी अपने पास की जंजीर खींच दी। गाड़ी रुक गई, हम तीनों उतर पड़े तथा काकोरी की ओर चल पड़े। तीन-चार डिब्बों को पार करने पर गार्ड साहब मिले, जो हमारी तरफ आ रहे थे। उन्होंने पूछा- ‘जंजीर किसने खींची?’

मैंने चलते-चलते बताया कि मैंने खींची है। गार्ड मेरे साथ हो लिया। तब मैंने उसे बताया कि काकोरी में हमारा जेवरों का बक्सा छूट गया है, हम उसे लेने जा रहे हैं। इतने में हम गार्ड के डिब्बे तक पहुंचकर रुक गए। तब तक हमारे अन्य साथी भी वहां पहुंच गए। हमने पिस्तौल के फायर के साथ मुसाफिरों को आगाह किया कि कोई मुसाफिर न उतरे, क्योंकि हम सरकारी खजाना लूट रहे हैं। इतने में मेरी निगाह गार्ड साहब पर पड़ी, जो मेरे बगल में ही खड़े थे और इंजन की तरफ नीली बत्ती दिखा रहे थे। मैंने उनकी पसली में पिस्तौल की नली लगा दी और एक हाथ से उनकी बत्ती छीन ली। गार्ड जगन्नाथ प्रसाद ने हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ाकर कहा- ‘हुजूर! मेरी जान बख्श दीजिए।’

मैंने उसे डांटकर जमीन पर लेट जाने को कहा। तभी रामप्रसाद ने एकाएक मेरा हाथ पकड़कर मुझे अंधेरे में खींच लिया ताकि गार्ड मुझे पहचान न पाएं। मैं गार्ड के डिब्बे में चढ़ गया और पिस्तौल के कुंदे से सारे बल्ब फोड़ डाले और नीचे उतर आया। असलहों से लदा लोहे का संदूक बड़ी मुश्किल से टूटा। यह अशफाकउल्ला खां की ताकत की करामात थी। एक्शन शुरू होने के पहले तक हर तरह से विरोध करने के बावजूद अशफाक ने डकैती शुरू होने पर पूरी तरह साथ दिया।

(शचींद्र नाथ बख्शी की किताब ‘वतन पर मरने वालों का...’ से साभार)