कबीर का महत्व: संत कबीर सिर्फ कवि ही नहीं, बल्कि कुशल शिल्पकार भी थे
संत कबीर सिर्फ एक कवि ही नहीं बल्कि शिल्पकार भी थे। शिल्पकार से अधिक उनका मन अभिभावक शिक्षक और आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होता दिखाई पड़ता है। अभिभावक और शिक्षक किसी बच्चे को आरंभिक शिक्षा देते समय डांटते हैं और कभी-कभी शारीरिक रूप से दंडित भी करते हैं।
By Ruhee ParvezEdited By: Updated: Tue, 14 Jun 2022 12:21 PM (IST)
नई दिल्ली, सलिल पांडेय। कुछ शिल्पकार भौतिक पदार्थों से आकृतियों को आकार देते हैं, तो कुछ नैतिक मूल्यों तथा संस्कारों से उन्नत चरित्र के निर्माण का आधार तैयार करते हैं। संत कबीर ऐसे ही एक शिल्पकार रहे।
शिल्पकार से अधिक उनका मन अभिभावक, शिक्षक और आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होता दिखाई पड़ता है। अभिभावक और शिक्षक किसी बच्चे को आरंभिक शिक्षा देते समय डांटते हैं और कभी-कभी शारीरिक रूप से दंडित भी करते हैं। यह डांटना तथा प्रताड़ना छेनी-हथौड़े से पत्थर को गढ़कर मूर्ति बनाने की प्रक्रिया जैसा ही है। इसके अलावा मिट्टी, लकड़ी, धातु की मूर्ति या पात्र में शिल्पकार अपने-अपने ढंग से आघात कर ही उन्हें आकार देता है।
कबीर की चक्की बाह्य जगत और अंतर्जगत के दो पाटन पर है। कबीर को जिस ब्रह्मानंद की अनुभूति आंतरिक जगत में होती है, वहां उन्हें बड़े स्तर पर अमूल्य रत्न दिखाई पड़ते हैं। ये रत्न प्रेम, करुणा, स्नेह और अपनत्व आदि में डूबे हुए हैं। मां के गर्भ में शिशु की स्थिति भी कुछ इसी परिवेश के समान होती है। जब बच्चा जन्म लेता है और संसार में आता है तो रो पड़ता है। कबीर भी चलती चक्की देखकर इसीलिए रो पड़ते हैं, क्योंकि जीवन की चादर को ओढ़कर मनुष्य उस पर स्वार्थ का दाग लगा देता है। जबकि वही कबीर ‘दास कबीर जतन से, ओढ़ी जस की तस धर दीनी चदरिया’ के माध्यम से यह निर्णय देते हैं कि मां के गर्भ में मिली चादर की कीमत जो समङोगा, उसके जीवन की चादर कभी मैली नहीं हो सकती।
वास्तव में कबीर केवल कवि नहीं, बल्कि कुशल शिल्पकार, सुयोग्य अभिभावक एवं शिक्षक के साथ जीवन की वास्तविकता एवं सत्यता का मार्ग दिखाने वाले आध्यात्मिक महापुरुष हैं। कथनी और करनी के द्वंद्व रूपी पाटन में फंसे मनुष्य को साबुत बचाने का उपक्रम करते हैं। चक्की तो अनाज को पीसती है, लेकिन कबीर की चक्की मनुष्य को पशुता से बचाकर देवत्व की ओर ले जाती है।