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पढ़ें- फिल्म अभिनेता गोविंदा की मां प्रख्यात गायिका निर्मला देवी की संघर्ष की कहानी

जन्मदिन विशेष निर्मला देवी उन बेहतरीन ठुमरी गायिकाओं में हैं जिन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को बुलंदियों तक पहुंचाया। 20वीं सदी के चौथे दशक में कई फिल्मों में अभिनय करने वाली प्रख्यात गायिका निर्मला देवी (जन्मतिथि 7 जून) पर आलेख...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 06 Jun 2022 04:17 PM (IST)
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निर्मला देवी के दोनों बेटे कीर्ति कुमार (फिल्म निर्देशक) और गोविन्दा (अभिनेता) सफल कलाकारों में गिने जाते हैं।
यतीन्द्र मिश्र/अयोध्या, उत्तर प्रदेश। निर्मला देवी या निर्मला अरुण, बनारस की उन सम्मानित गायिकाओं में रही हैं, जिनका सांगीतिक जीवन उत्तर भारतीय उपशास्त्रीय गायन के क्षेत्र में मानक के तौर पर याद किया जाता है। काशी के प्रख्यात तबला वादक वासुदेव जी के घर वर्ष 1927 में जन्मीं निर्मला देवी को एक कलाकार के तौर पर विकसित करने में उनके पिता का बड़ा योगदान रहा। सात साल की छोटी सी उम्र में उन्होंने पटियाला घराने के उस्ताद अब्दुल रहमान खां से संगीत की शिक्षा लेनी आरंभ की, जो चौदह बरस तक जारी रही। कम उम्र में ही उन्होंने बंबई (अब मुंबई) जाकर फिल्मों में किस्मत आजमाने का मन बनाया। यह वह दौर था, जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और ढेरों नामचीन गायिकाएं और तवायफें सिनेमा के रूपहले परदे पर अपना भाग्य आजमा रही थीं।

यह विषय सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन की एक बड़ी जमीन मुहैया कराता है कि हिंदी फिल्मों के आरंभिक दौर में स्त्री किरदारों का जो रंगपटल है, उसमें बनारस, कोल्हापुर, पटना, लाहौर, लखनऊ और कलकत्ता (अब कोलकाता) से आने वाली गायिकाओं ने बहुत से रंग भरे। निर्मला देवी के संदर्भ में यह देखने लायक है कि उन्होंने लगभग बीस फिल्मों में काम किया और उसी दौरान अभिनेता अरुण कुमार आहूजा के साथ उनकी जोड़ी चर्चित हुई, जिनसे बाद में उन्होंने शादी की। उनकी महत्वपूर्ण फिल्मों में 'सवेरा', 'शारदा', 'गाली', 'चालीस करोड़' और 'जन्माष्टमी' को याद किया जाता है। पति की असामयिक मृत्यु हो जाने के बाद उन्होंने अपने परिवार को बड़े जतन से संभाला और संघर्षरत रहीं।

निर्मला देवी के जीवन में करीब एक दशक का फिल्मी करियर उनकी समकालीन गायिकाओं- जहांआरा कज्जन, कमला झरिया, अंगूरबाला-अनारबाला के समकक्ष चमकता दिखाई देता है। बाद में उन्होंने दोबारा उस्ताद रहमान खान के साथ अपने संगीत की तालीम शुरू की, जो इस बार अधिक गंभीर, संयमित और साधनापरक थी। उन्होंने जल्दी ही एक ऐसा सांगीतिक विन्यास ख़ुद की कला के लिए गढ़ा, जिसमें बनारसी अंग की ठुमरी अदायगी के साथ पंजाब अंग की चपल और तेज तानों वाला संगीत मौजूद था। यह कहा जाना चाहिए कि उन्होंने ठुमरी गायन की अपनी एक नायाब तरकीब विकसित की, जो उनकी मौलिक देन है और जिसका कोई उत्तराधिकारी भी नहीं है। वे अपने संगीत की प्रेरणा के लिए उस्ताद बड़े गुलाम अली खां और उस्ताद अमीर खां के गायन को तवज्जो देती थीं। शायद इसी कारण उनकी गायिकी में जो ठहराव और चपलता एक साथ देखी जाती है, उसके लिए उस्ताद बड़े गुलाम अली खां और अमीर खां का शिल्प, आदर्श नजर आता है।

कण्ठधर्म को अपनी शैली में उतारते हुए उन्होंने गायिकी में गति, निरन्तरता और पुकार को बेहतरीन ढंग से आत्मसात किया। उनकी गायिकी की बानगियों में 'मैंने लाखों के बोल सहे', 'रो-रो नैन गवांए' और 'एहीं ठैंया मोतिया हेराय गइली रामा' असाधारण ढंग से चकित करते हैं। फिल्म 'बावर्ची' (1972) में मन्ना डे और किशोर कुमार के साथ उनका गाया 'भोर आई गया अंधियारा' हिंदी फिल्म संगीत में अनूठा है। लक्ष्मी शंकर के साथ एच.एम.वी. के लिए उनका उपशास्त्रीय गायन का रेकार्ड 'सावन बीता जाए' धरोहर जैसा है। उनके दोनों बेटे कीर्ति कुमार (फिल्म निर्देशक) और गोविन्दा (अभिनेता) सफल कलाकारों में गिने जाते हैं।

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