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युवाओं ने छेड़ रखी है जीवन बचाने की मुहिम, पर्यावरण दिवस पर हम भी शामिल हो जाएं इसमें

तापमान साल दर साल बढ़ रहा है। जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। प्रदूषण हवा जमीन और जल सबमें जहर घोल रहा है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि हम सब मिलकर धरती की रक्षा करें।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 03 Jun 2022 02:03 PM (IST)
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विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर मिलते हैं कुछ ऐसे युवाओं से
नई दिल्‍ली, अंशु सिंह। दोस्तो, जंगल को धरती का फेफड़ा कहा जाता है, क्योंकि पेड़ वातावरण में फैले कार्बन डाइआक्साइड को ग्रहण कर आक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं। इसी प्रकार वेटलैंड यानी नमभूमि पृथ्वी के लिए गुर्दे का काम करती है। आप इसे छोटे-बड़े तालाब, पोखर, झील और नदियों के रूप में देखते हैं। दरअसल, वेटलैंड उस स्थान को कहते हैं जहां पूरे वर्ष या कुछ खास महीनों में पानी इकट्ठा रहता है। इससे धरती की पानी की जरूरत पूरी होती रहती है। लेकिन बढ़ते शहरीकरण और प्रदूषण ने देश के करीब एक तिहाई से अधिक जैव-विविधता वाले वेटलैंड के अस्तित्व को मिटा दिया है।

वेटलैंड के संरक्षण के मुद्दे पर काम कर रहे केरल के आदर्श प्रताप की मानें, तो लोगों में जागरूकता का अभाव है। इसलिए उनका उद्देश्य वेटलैंड को पुनर्जीवित करने के साथ ही उसके प्रति जन-जागृति लाना है। समाज के अन्य वर्गों के अलावा उन्होंने स्कूली बच्चों को भी अपने मिशन से जोड़ा है। उनके लिए कैंप आयोजित किए जाते हैं, जिसमें वेटलैंड, उसकी जैव-विविधता आदि की विस्तार में जानकारी दी जाती है।

पर्यावरण दिवस की शुरुआत: संयुक्त राष्ट्र ने 5 जून, 1972 को पहली बार पर्यावरण दिवस मनाने का निर्णय लिया था। सबसे पहले स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में यह दिवस मनाया गया था। ह्यूमन एनवायरमेंट पर हुए संयुक्त राष्ट्र के इस पहले कांफ्रेंस का सूत्रवाक्य था- ‘ओनली वन अर्थ’। इस बार की थीम भी यही रखी गई है यानी सिर्फ एक धरती।

कछुओं के संरक्षण की मुहिम: हमारी धरती के करीब दो-तिहाई हिस्से पर पानी है, जो न सिर्फ मानव की जरूरतों को पूरा करते हैं, बल्कि उससे पशु-पक्षियों की आवश्यकताएं भी पूरी होती हैं। आपने कछुओं की एक विशेष प्रजाति ओलिव रिडली के बारे में सुना होगा। ये प्रशांत महासागर से बंगाल की खाड़ी में आते हैं और फिर तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश के तटों से गुजरते हुए ओडिशा के समुद्री तट पर प्रजनन करते हैं। वहां वे गंजम जिले की रुशिकुल्या नदी एवं पुरी जिले की देवी नदी के मुहाने पर अंडे देते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि ओलिव रिडली कछुओं की संख्या दिनोंदिन घट रही है। स्कूली दिनों से तटों की सफाई अभियान से जुड़े रहे पुरी के तटीय गांव गुंडलवा के 24 वर्षीय सौम्या रंजन को यह सच गहरे तक छू गया। तभी से वे ओलिव कछुए के संरक्षण के साथ स्थानीय जैव-विविधता (मैंग्रोव जंगल) को बचाने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं।

‘पर्यावरण संरक्षण अभियान’ के ट्रस्टी के तौर पर सौम्या वालंटियर्स की सहायता से समुदाय को जागरूक कर रहे हैं। साथ ही, समुद्री तटों की सफाई के अभियान का नेतृत्व भी कर रहे हैं। उनके अनुसार, प्रदूषण एवं प्लास्टिक कचरे से जलीय जीवों के अलावा तटीय इलाकों की वन संपदा पर भी खतरा मंडरा रहा है। वह बताते हैं, ‘मेरा गांव समुद्र के समीप है। मैंने देखा है कि कैसे लोग नदी में हर प्रकार का कचरा प्रवाहित कर देते हैं। वे समुद्री तटों तक पर कचरा छोड़कर चले जाते हैं। वही फिर समुद्र में जाता है और उसमें रहने वाले जीव-जंतुओं को भी प्रभावित करता है। यही ओलिव रिडली कछुओं की प्रजनन प्रक्रिया पर भी असर डाल रहा है। देवी नदी के तट पर कछुओं का आना बहुत कम हो गया है। चिंता की बात यह है कि इन कछुओं के हजार बच्चों में से करीब एक ही युवावस्था तक पहुंच पाते हैं और वही फिर प्रजनन के लिए ओडिशा के तटों पर आते हैं। ऐसे में उन्हें सुरक्षित माहौल न मिलना मुश्किलें पैदा कर रहा है।‘इन कछुओं के संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने के मकसद से सौम्या अब तक दो साइकिल यात्रा भी कर चुके हैं। 2018 में इन्होंने 800 किलोमीटर और 2019 में 1200 किलोमीटर की साइकिल यात्रा की थी।

प्लास्टिक कचरे से मुक्ति का अभियान ‘चकाचक मार्केट’: किसी भी प्रकार का कचरा पानी में फेंका जाए या जमीन पर, नुकसान धरती वासियों और पर्यावरण को ही होता है। ज्यों-ज्यों शहरों की आबादी बढ़ रही है, घरों से निकलने वाला कचरा भी बढ़ रहा है। युवा पीढ़ी इस सच्चाई को समझ रही है, इसीलिए वह छोटे-छोटे स्तरों पर कुछ अनूठी मुहिम चला रही है। जैसे, नोएडा के हर्षद को ही लें। बीटेक (बायोटेक्नोलाजी) करने के बाद उन्होंने किसी बड़ी कंपनी को ज्वाइन करने की बजाय डेवलपमेंटल सेक्टर में काम करने का फैसला लिया। वह ‘दोज इन नीड’ नामक स्वयंसेवी संगठन से जुड़कर प्लास्टिक कचरे के प्रति जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे हैं। ‘चकाचक मार्केट’ अभियान के तहत इन्होंने नोएडा के पांच मार्केट को गोद लिया है, जहां वे कई प्रकार के नये प्रयोग कर रहे हैं। बताते हैं हर्षद, ‘ इस बार विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर हम ‘प्लास्टिक हीस्ट’ नाम से एक कैंपेन शुरू करने जा रहे हैं, जिसके तहत मार्केट में स्टैचू इंस्टाल किए जाएंगे।

मूविंग आर्टिस्ट सिंगल यूज प्लास्टिक की ड्रेस पहनकर एक स्थान पर खड़े होंगे। इसके बाद वेस्ट आर्ट इंस्टालेशन होगा, जिसमें सिंगल यूज प्लास्टिक से बने कैनपी लगाए जाएंगे। बार्टर सिस्टम के तहत 10 प्लास्टिक की बोतलें लाने वाले को बदले में बैंबू की बोतल, जूट के बैग आदि दिए जाएंगे। वेस्ट मैनेजमेंट क्विज आयोजित की जाएगी। इन सब कार्यक्रमों का एक ही मकसद है कि लोग प्लास्टिक के विकल्प के बारे में गंभीरता से सोचें। क्योंकि आने वाले दिनों में वैसे भी प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगने जा रहा है। इससे दुकानदारों के सामने फिर से एक बड़ी चुनौती आने जा रही है।‘ कालेज के दिनों से वेस्ट सेग्रीगेशन के मुद्दे पर काम कर रहे हर्षद की मानें, तो सभी लोग सस्टेनेबल लिविंग, एक्टिविटीज की बातें करते हैं, लेकिन उसे अमल में नहीं ला पाते। मसलन, आज भी लोग सूखे एवं गीले कचरे में अंतर को नहीं समझ पाए हैं। घरों से निकलने वाला 60 से 70 प्रतिशत गीला कचरा होता है, जिसमें 30 प्रतिशत प्लास्टिक कचरा होता है। इससे जिन प्लास्टिक को रीसाइकिल किया जा सकता था, वह भी नहीं हो पाता है। इसलिए जरूरी है कि व्यक्तिगत, संस्थागत एवं सरकारी स्तर पर वेस्ट सेग्रीगेशन एवं वेस्ट मैनेजमेंट को लेकर जागरूकता लाने के प्रयास बढ़ाए जाएं।

कचरे से तैयार किया उद्यान: हम सभी चाहते हैं कि हमारी धरती की नैसर्गिक सुंदरता बनी रहे। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, इंसान सब मिलकर रहें। हर किसी को आश्रय मिले। दिल्ली की औरा भंडारी को भी जितना प्रकृति, हरियाली से प्रेम है, उतना ही पशुओं से लगाव। इसलिए जब जहां मौका मिलता है, वह पौधारोपण करने से नहीं चूकतीं। किसी जानवर को तकलीफ में या भूखा देखती हैं, तो उन्हें भोजन देने से लेकर अन्य मदद करने में तत्पर रहती हैं। एक दिन उन्होंने देखा कि घर के समीप खाली जमीन थी, जिसमें बेतरतीब झाड़ियां उग आई थीं। अकसर वहां से सांप आदि निकल आते थे। वह नशेड़ियों का अड्डा बन गया था। बच्चे आसपास खेलने से डरते थे। तब उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर न सिर्फ जमीन के उस टुकड़े की सूरत बदल डाली, बल्कि वेस्ट से उसे एक खूबसूरत पार्क में तब्दील कर दिया।

औरा ने बताया, ‘छह महीने लग गए हमें वहां की झाड़ियों आदि को साफ करने में। फिर हमने प्लास्टिक वेस्ट, प्लास्टिक की बोतलों आदि का इस्तेमाल कर उनसे स्ट्रीट डाग्स के लिए छोटे-छोटे घर बनाए। पक्षियों को दाना देने, उनके लिए पानी का इंतजाम किया। घास लगाए, पौधे उगाए। आज इस पार्क में पशु-पक्षी और स्थानीय लोग सभी प्रकृति का आनंद लेते हैं।‘ वह आगे कहती हैं, ‘हमने कई बार सड़क किनारे गायों को कूड़े में से भोजन खाते, उन्हें बीमार एवं लावारिस पड़े देखा होगा। क्या कभी सोचा है कि उनके पेट में क्या जा रहा है? वे क्यों बीमार पड़ती हैं? हम एक ऐसी ही गाय को जब अस्पताल लेकर गए, तो उसके पेट में से 90 किलो प्लास्टिक कचरा निकला। इसी से स्थिति का भयावहता का पता लगाया जा सकता है।‘ औरा के अनुसार, प्लास्टिक को डिस्पोज करना एक बड़ी चुनौती है। लेकिन उसके उपयोग को कम कर, उसे पुन: उपयोग लायक बनाकर प्रदूषण की समस्या को विकराल होने से बचाया जा सकता है। इससे धरती पर रहने वाले इंसान ही नहीं, बल्कि तमाम जीव-जंतु, जलीय जीव, पशुओं के जीवन को सुरक्षित रखा जा सकता है।