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क्यों बचपन से ही जरूरी है कंसेंट की सीख देना, पेरेंटिंग काउंसलर से जानें इसका सही तरीका

बच्चों को छोटी उम्र से ही सहमति की अहमियत समझानी चाहिए। बचपन से ही यह पाठ पढ़ाना बेहद जरूरी है कि किसी भी काम के लिए अपने साथ-साथ सामने मौजूद व्यक्ति की भी सहमति होनी चाहिए। इससे बच्चे बड़े होकर एक अच्छा समाज बना पाएंगे। पेरेंटिंग काउंसलर रितु सिंगल बता रही हैं कि बच्चों को इतनी छोटी उम्र में यह बात कैसे समझाई जाए।

By Jagran News Edited By: Nikhil Pawar Updated: Sat, 14 Sep 2024 11:59 PM (IST)
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क्यों जरूरी है बचपन में ही कंसेंट की सीख देना, पेरेंटिंग काउंसलर से समझें (Image Source: Freepik)
नई दिल्ली, रितु सिंगल। Parenting Tips: स्कूल से लौटे 9 साल के बेटे तनय से शिखर ने शाम को बात करने के लिए कहा और अपने रूम में चले गए। तनय की मां स्नेहा भी परेशान थीं कि ऐसा क्या हुआ जो तनय ने अपने दोस्त अमन के साथ सिर्फ इस बात पर लड़ाई की क्योंकि अमन ने उसे साइकिल चलाने से मना किया। इसी वजह से पिता शिखर को स्कूल बुलाया गया। तनय तब सिर्फ इतना ही कह रहा था कि उसे इस बात पर गुस्सा आया कि अमन ने उसे साइकिल देने के लिए मना कैसे कर दिया। स्नेहा समझ रही थीं कि वे दोनों तनय को अपनी जिद के आगे सामने वाले की सहमति का सम्मान करने का सबक देना भूल गए थे। शाम को इसी सबक की क्लास थी। सहमति यानी कंसेंट सिर्फ वयस्कों का विषय नहीं। जरूरी है कि कम उम्र से ही बच्चों और खासकर घर के बेटों को सहमति लेने और रिजेक्शन को स्वीकार करने का सबक दिया जाए।

अभी से क्या जरूरत है?

कंसेंट लेने के बारे में बच्चों को समझाने की बात पर पहला विचार यही आता है कि यह सब बड़े लोगों की बातें हैं, बच्चों को अभी से क्या बताना। तो यह समझ लीजिए कि कच्ची मिट्टी पर पड़े थाप लंबे समय तक असरकारी रहते हैं। यह बहुत जरूरी है कि समय रहते बच्चों से धीरे-धीरे कंसेंट लेने के महत्व पर बात करें। यह सिर्फ रोमांटिक या सेक्सुअल कंसेंट तक ही सीमित नहीं है। किसी की बात का सम्मान करना, सीमाओं को समझना, किसी काम में पारस्परिक सहमति का होना और हर किसी का अपना चुनाव और मत हो सकता है, इन महत्वपूर्ण बातों को समझाने का यही समय ठीक है, बजाय इसके कि बात हाथ से निकल जाए। आम तौर पर घरों में विशेष तौर पर बेटों को कहीं न कहीं परोक्ष रूप से यह संदेश मिल जाता है कि उनकी हर बात मानी जाएगी। कब वे इस संदेश की गलत तरीके से व्याख्या कर लेते हैं, पता नहीं चलता।

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साधारण मगर महत्वपूर्ण

अब इसका यह कतई अर्थ नहीं कि आप भारी-भरकम शब्दों से बच्चों को इस जरूरी बात को समझाएं। बस रोजमर्रा की बातों में इस सबक को गूंथते जाएं। उदाहरण के लिए, उनसे पूछिए कि क्या वो दादी मां से गले लगना चाहते हैं? अगर वो हामी भरते हैं तो अब उन्हें कहिए कि वे दादी मां से भी पूछें कि क्या वो भी ऐसा ही चाहती हैं। ऐसे ही सामान्य तरीकों से उन्हें यह महत्वपूर्ण बात समझाएं। कभी-कभी उनके पूछने पर विपरीत उत्तर भी दीजिए, जहां उन्हें अपनी इच्छा को पूरा करने से रोका जाए। इससे वे ‘न’ सुनने के अभ्यस्त बनेंगे। गले लगना, साथ खेलना, चीजें साझा करना, कक्षा में साथ बैठना जैसी बातों के लिए भी अनुमति मांगना और मना होने पर सामने वाले की भावनाओं का सम्मान करते हुए पीछे हटना इस सबक का भाग है। टीनएज की ओर बढ़ रहे बच्चे सामाजिक और लैंगिक सहमति का सबक सीखने के लिए पर्याप्त समझदार होते हैं। उनसे बातें छिपाने या उन्हें इंटरनेट पर गलत तरीके से चीजें समझने से रोक लगाने का यही तरीका है कि माता-पिता स्वयं बच्चों से बात करें।

आप हैं असली रोल माडल

अगर आपको लगता है कि बच्चे ये सब कहां समझेंगे तो बच्चों को कमतर आंकना बंद कीजिए। घर के माहौल से मिलने वाला संदेश बच्चों को बहुत प्रभावित करता है। आप बच्चे को कंसेंट का सबक दे रहे हैं मगर स्वयं उसका उल्लंघन करते हैं तो यह भी बच्चों को समझ आता है। माता-पिता आपस में यह प्रक्रिया अपनाएं, साथ ही बच्चों की इच्छा का भी सम्मान करें। अगर वे किसी ऐसी बात को लेकर अनमने हो रहे हैं, जो भले ही आपके लिए छोटी है, फिर भी उनके फैसले का सम्मान करते हुए उन्हें पारस्परिक सहमति का सबक दें। जब हम घर के बेटों को सहमति लेना और उसका पालन करना सिखाते हैं, तो हम एक खुशहाल, स्वस्थ समाज की नींव रख रहे होते हैं। यह ऐसे युवाओं को समाज में लाने का तरीका है, जो न सिर्फ संवेदनशील, सहानुभूतिपूर्ण और आत्मविश्वासी होते हैं, बल्कि जो दूसरों की भावना का भी सम्मान करते हैं।

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