हिमालय पार की धरती लद्दाख
यूं तो कई यात्रा वृतांत के अनुभवों को आपने पढ़ा होगा,लेकिन यह एक ऐसा यात्रा वृतांत है जिसे पढ़ते-पढ़ते आप खुद भी एक यात्री बन जाएंगे।
कुछ यात्राएं योजनाएं बना कर नहीं होती हैं, लेकिन इस तरह की यात्राएं ताउम्र यादगार बन जाती हैं।लद्दाख की अपनी रोमांचक यात्रा के अनुभवों के बारे में बता रहे हैं शेखर त्रिपाठी....
अभी भोर की उजास फूटी नहीं थी, मगर झिलमिलाते अनगिनत तारों और पश्चिम में साफ दिखती आकाशगंगा इसके “मूनलैंड” नाम को सार्थक कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि लगभग तीस हजार प्रकाशवर्ष दूर स्थित यह आकाशगंगा अपनी सम्पूर्ण आभा के साथ बर्फ से लकदक पर्वत श्रंखला की किसी चोटी पर धीरे से आकर अभी पसर जायेगी। उससे निकली एक एक रश्मि का चमचमाती रेत के कणों पर पड़ना और फिर किसी प्रिज्म पर पड़ी किरण सा परावर्तित हो जाना किसी सम्मोहन से कम नहीं था। इस नयनाभिराम के बावजूद यहां खड़ा होना दूभर था क्योंकि पारा शून्य से लगभग बारह डिग्री नीचे था और हवा का वेग मानों हडिडयां गलाने पर उतारू था। इस विचित्र कांपती हुई नीरवता में कई बार मन किया कि रजाई में दुबक जाना ही बेहतर है लेकिन पैगांग लेक की लहराती तरंगों पर अनगिनत तारों के बिम्ब से बना तिलस्म कदमों को जकड़े था।
थोड़ी देर इसी उहापोह में रहा तभी घड़ी की सुई ने बताया कि बाल रवि के उदय का प्रहर आ पंहुचा हैं। पूर्व में इसके संकेत भी मिलने लगे थे।बर्फ से लदी पर्वत चोटियों पर लालिमा छिटकने लगी और इनके बीच से रश्मियों की छनती कतारें इन्हे इन्द्रधनुषी बना रहीं थीं।तभी चटख नारंगी बालरवि उदित हुएऔर फुदक कर पर्वत के शिखर पर विराजमान हो गये। किसी शिशु की भांति हर क्षण अपनी भंगिमा बदलते भगवान सूर्य पूरी पर्वत श्र्ंखला को इंद्रधनुषी बना रहे थे। ऐसा लग रहा था कि कोई कुशल चित्रकार शून्य क्षितिज में कोलाज उकेर रहा हो।यही वो दुर्लभ द्श्य हैं जिसे देखने के लिए पयर्टक मीलों का सफर तय करके आते हैं।
पिछले अड़तालीस घंटे के सफर की थकान कब कपूर के मानिंद काफूर हो गई पता ही नही चला। रह गई तो प्रखर कंपन्न से उठी एक अनुभूति एक आकर्षण जो न टूटने वाले स्वर में मर्मभेदी आग्रह के साथ आपको इस बर्फीले रेगिस्तान में बार-बार आने का आमंत्रण देता है ओर सरसराती हवा मद्धिम सरगोशी से पूछती है ….फिर कब आओगे। पांच दिन पहले जब दिल्ली से चला था मौसम और रास्तों को लेकर एक अजीब से संशय था। पता नहीं मौसम साथ देगा भी या नहीं। लेकिन कहते हें कि जब नीयत ठीक हो तो सब ठीक रहता है।
दिल्ली से चले तो पांच घंटे के बाद पहला पड़ाव था गुरुदासपुर। दो घंटे का ठौर और पंजाबी तड़के वाला खाना। पांच सवारियों में तीन ड्राइविंग में धाकड़। जो स्टेयरिंग पर बैठा एक झटके में तीन चार सौ किलोमीटर खींच गया। सड़कें ऐसी उम्दा कि लगा ही नहीं पहाड नाप रहे हैं। कब जम्मू निकला और उधमपुर आ गया। आधे घंटे का ब्रेक और पेट पूजा और फिर निकल लिऐ पत्नीटाप के लिए। जगह-जगह अर्द्धसैनिक बलों ओर सेना की गस्त उनके वाहनों के काफिले अहसास करा रहे थे कि हम अब हम देश के एक अशांत क्षेत्र में हैं।
कुछ ही देर में पहुंच गये पत्नीटाप। अपने ऊंचे कद पर इतराते घने देवदार के आवरण में ढंका यह छोटा सा कस्बा किसी दूसरे पयर्टन स्थल की कोलाहल और आपाधापी से एकदम अलग है। घुमावदार पहाड़ियों पर बसा शांत और सुरम्य पत्नी टाप लुभावने दृश्यों के चलते एक आदर्श स्थल है।इसे अपने मीठे झरनों के लिए भी जाना जाता हैं। जब हम पहुंचे तो अस्ताचलगामी सूर्य मानों शरमाता सकुचाता चटक नारंगी गोले में तब्दील होकर सामने की पहाड़ी के पीछे छिप जाने को बेताब था। रुई के फाहों से उड़ते बादलों पर अठखेलियां करती उसकी किरणें पूरे क्षितिज को सुरमई बना रही थी। रंगों के इस तिलस्म को निहारते और फोटोग्राफी करते कब दो घंटे गुजर गए पता ही नही चला। भूख और थकान अब तारी होने लगी थी बढती ठंड ने भी हमें होटल की ओर जाने पर विवश कर दिया। अगले दिन जल्दी निकलना था। इसलिए खाना खाया और हो लिए रजाई के हवाले।
सुबह सात बजे सब अगले पड़ाव के लिए निकल पड़े। तय हुआ था कि नाश्ता पीरा में राजमा चावल का होगा। शायद ही कोई वहां के राजमा चावल (भद्रवाह के राजमा अपने स्वाद के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हैं) खाये बिना निकलता हो।हम सबने भी वहीं खाया और निकल पड़े सोनमर्ग के लिए। किसी कोबरा की कुंडली की तरह पहाड़ी के इर्द-गिर्द गुथी सड़क के चौड़ीकरण का काम चल रहा है और ट्राफिक भी रफ्तार की राह में रोड़ा था फिर भी हम सरपट निकले जा रहे थे। एक पहाडी के बाद दूसरी पार करने का सिलसिला जारी था। बनिहाल अनंतनाग अवंतीपुर पम्पोर होते हुए लगभग साढे ग्यारह बजे तक श्रीनगर की प्रसिद्ध डल झील के किनारे गाड़ी लगायी तो पुरानी यादों का पिटारा बरक्स किसी बाइस्कोप की तरह कौंध गया। न जाने कितनी रातें डल झील पर तैरते हाउस बोटों और शिकारों में बैठकर चांदनी रात में चांद को निहराते बीती हैं शायद गिन भी नहीं पाऊंगा। बर्फ से लदी पहाड़ियां,फूलों से गुलजार बाग-बगीचे, दिल को मोह लेने वाला ट्यूलिप गार्डन, हरी-भरी खूबसूरत वादियां, फूलों से घिरी पगडंडियां, झीलें और झरने, सब कुछ हवा के एक निर्झर झोंके की तरह आंखों के आगे सेऐसे गुजर गए मानों कल ही की तो बात है। सब कुछ एक स्वप्न जैसा। सामने सीसीडी का बोर्ड चमक रहा था यकीनन सभी को काफी की दरकार थी सो लपक लिए उस ओर।
हमें अभी लंबा रास्ता तय करना था और पहले से तय था कि इस बार श्रीनगर के बजाय सोनमर्ग रुकेंगे। इसलिए निकल पड़े सोनमर्ग के लिए। गांदरबल पार करने में ही एक घंटा लगा, लेकिन अब ट्रैफिक भी कुछ कम हो गया था। पाइन के पेडों से अटें पहाड़ और नीचे घाटी में बहती सर्पीली नदी के किनारे बलखाती सडक पर हमने भी रफ्तार पकड़ ली। कहतें हैं कि समुद्र सतह से करीब 2740 मीटर की ऊंचाई पर स्थित सोनमर्ग वसंत ऋतु में जब यह खूबसूरत फूलों से ढंक जाता है तबसुनहरे रंग दिखता है। इसीलिए इसे सोनमर्ग कहते हैं। घाटी के चारों ओर बर्फ से ढंके पहाडों के बीच नीचे चौरस हरा भरा मैदान और कहीं कहीं देवदार की कतारें। सब कुछ सुरम्य। रात यहीं गुजारनी थी और होटल पहले से ही बुक था। होटल की दीवार के बाहर अभी भी बर्फ की जमी थी जो चुगली कर रही थी कि अभी हमें कितनी और सर्दी का सामना करना था। वैसे भी यह जगह अक्टूबर से मार्च तक बर्फवारी के कारण वीरान ही रहती है। कईवार तो यहां दस फुट तक बर्फ देखी गई है।
अगली सुबह अलसाई हुई सी थी। शायद ही कोई पयर्टक अभी रजाई से निकला था। खिड़की खोली तो सामने ऊंचें पहाड़ों की चोटियों पर बर्फ अभी भी सुनहरी आभा से ढंकी हुई थी जैसे पिघलता हुआ सोना या लावा बहता हुआ नीचे आ रहा हो। चारों ओर मनोरम ही मनोरम। खैर आगे बढना था तो फटाफट तैयार हुए नाश्ता किया और बढ चलेआगे। अभी कुछ किलोमीटर ही चले थे कि रुकना पड़ा। जोजिला का वनवे अभी जाने के लिए खुला नहीं था। पुलिस के जवान वाहनों को कतारबद्ध करने को जूझ रहे थे। कोई आधा घंटे बाद रास्ता खुला और हम भी आगे निकलने की आपाधापी में शामिल हो गये। रास्ता बेहद खतरनाक था। तीखे मोड़ लगभग खड़ी चढ़ाई और बर्फ के कारण फिसलन भरी पतली सी सड़क। हर ओर बर्फ ही बर्फ। बीस किलोमीटर की रफ्तार भी निकालनी मुश्किल थी। जरा सा चूके तो सैकड़ों फीट नीचे खाई में। यहां वास्तव में ड्राइविंग की कुशलता की परीक्षा थी। पूरी गाड़ी में सिर्फ ओर सिर्फ निस्तब्धता थी। तभी एक तीखा मोड़ काटते ही पहुंच गये जोजीला पास। चारों ओर मानों बर्फ का समंदर। कई-कई किलोमीटर तक फैली भांति भांति की बर्फ। कहीं चट्टान सी सख्त तो भुरभुरी बर्फ। वहां स्कीइंग भी हो रही थी और चहल कदमी भी।
ठंडी हवा के झोंके अपने पूरे शबाब पर थे। हाकर्स पर्यटकों को लुभाने की पूरी कोशिश में जुटे थे। फोटोग्राफर्स के एक झुंड ने हमें भी घेर लिया लगभग धमकाने वाले अंदाज में मोलभाव। मगर जब हमने अपने कैमरों की किट निकाली तोएक-एक कर सब खिसक लिए। खैर कुछ देर फोटोग्राफी की मैगी और कहवा का स्वाद लिया और बढ़ गये आगे। बर्फ के कारण अब रास्ता और भी कठिन ओर डरावना हो गया था। लगभग दस फुट चौड़ी सडक के दोनों ओर बारह-बारह फुट ऊंची बर्फ ही दीवारके बीच गाड़ी रपटती हुई सी आगे बढ रही थी। ठंड इतनी कि अगर हाथ गाड़ी के शीशे से छू जाएं तो पूरा शरीर सिहर जाए। लगभग बीस किलोमीटर का ऐसा ही रास्ता औरबर्फ के तिलस्म कोपार कर करने के बाद हम मनोरम घाटी में उतर चुके थे। सड़क भी कमोबेश बहुत अच्छी थी और वैसे तीखे मोड़ भी नहीं थे। यही मौका था रफ्तार पकड़ने का।
चार घंटे की अनवरत यात्रा के बाद पंहुचे द्रास। वार मेमोरियल में एक जवान अपनी ओजस्वी भाषा में कारगिल युद्ध की पूरी गाथा सुना रहा था। उसके ठीक पीछे गर्वोक्ति से तनी खड़ी थी तोलोलिंग तो दांईओर टाइगर हिल जिसके एक-एक इंच पर वीरता की दास्तानें चस्पा हैं। वहां अपने शहीदों और वीर सैनिकों को सलाम करते हुए हम चल पड़े कारगिल के लिए। ऊंचे बर्फीले पहाड़ों के बीच सुरम्य घाटी में बसा एक अलसाया सा कस्बा।सडक के किनारे एक ढाबे में चाय की चुस्कियों से थकान को रफा दफा किया चल पडे आगे।
निर्जन सी होती सर्पीली सड़क पर सरक्सक और हेन्सीबकोट होते हमने 103 किलोमीटर का रास्ता दो घंटे मे पार किया और पंहुचे लामायुरु। दोपहर के तीन बज रहे थे और समुद्रतल से लगभग 3510 मीटर की ऊंचाई और फातू ला दर्रे के पूर्व में स्थित लामायुरु बौद्ध मठ लद्दाख के प्राचीनतम बौद्ध मठों में से एक है। अपनी भव्यता और कुदरती बनावट के कारण अनूठा है यह बौद्ध मठ। प्रकृति की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक यह गांव अपनें अपने अप्रतिम सौन्दर्य के लिए भी प्रसिद्ध है। यहीं पर लद्दाख के पहले दीदार होते हैं। लद्दाख ऐसी जगह है जहां बर्फ से ढंके पहाड़ से लेकर वीरान रेगिस्तान तक घूमने की इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। अलछी, लिकिर औऱ लामायुरु कुछ ऐसे मठ हैं जहां टूरिस्ट बड़ी तादाद में जाते हैं। फोटोग्राफी के लिए तो यह जगह स्वर्ग है। दो घंटे लामायुरु में गुजार कर चल पडे लेह की ओर। बेतहाशा उम्दा सड़क ओर दोनों ओर बिखरे नयनाभिराम दृश्य। दो घंटे भी नहीं लगे और पंहुच गये लेह। इसे दुनिया की छत भी कहा जाता है। सुंदरता से परिपूर्ण लेह में रूईनुमा बादल इतने नजदीक होते हैं कि लगता है जैसे हाथ बढाकर उनका स्पर्श किया जा सकता है। गगन चुंबी पर्वतों पर ट्रैकिंग का यहां अपना ही मज़ा है।
समुद्र तट से11300 फुट की उचांई और तीन किलोमीटर प्रति व्यक्ति के हिसाब से जनसंख्या घनत्व वाला लेह। सुरम्य वादियों और लैंड स्केप के अलावा यहां का लेह पैलेस और शांति स्तूप प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। पर्वत की चोटी पर स्थित लेह महल को यहां के राजा सिंग्मे नामगयाल ने सन्1645 में बनवाया था। पैलेस के बाद शांति स्तूप भी गये। वहां से लेह की फोटोग्राफी का अपना ही मजा है।
एक दिन और लेह में गुजारा ताकि आक्सीजन की कमी के अभ्यस्त हो जाएं। यहां हवा में आक्सीजन की मात्रा सिर्फ 35 फीसदी बतायी जाती हैं। फिर सफर शुरु हुआ हुंडर का। कभी चढाई तो कभी ढलान। एक के बाद दूसरा पहाड़ चढते कब श्याके के किनारे घाटी में उतर आये पता ही नहीं चला। लेह से चलने के दो घंटे बाद हम पहुचे खारदूंगला जो कि दुनिया मे सबसे ऊंचाई पर बनी सड़क है। करीब 18380 फीट पर है खारदूगला। यह दुनिया की सबसे ऊंची मोटरेबल रोड है। शायद यहां बर्फ कभी पिघलती ही नहीं हैं। बेहद ठंड पड़ रही थी और आक्सीजन की कमी साफ महसूस हो रही थी। पहले से ही हमें आगाह कर दिया गया था कि यहां 20 मिनट से ज्यादा नहीं रुकना हैं अन्यथा हाई एल्टीट्यूड सिकनेस की चपेट में आ सकते हैं। अभी भी हल्की बर्फ पड़ रही थी। यहां ठहरना वाकई दूभर था। यहां हमें पता चला कि आगे मौसम और भी खराब हो रहा है। कुछ देर यहां रुक कर हम आगे चल पड़े। आगे फिर घाटी आ गई।
140 किलोमीटर दोनों ओर चटक धूसियारे रंगों के पहाडों की श्रृंखला और साथ-साथ बहती श्योक नदी ओर उसके किनारे पसरा रेतीला रेगिस्तान। वनस्पतियां न जाने कब पीछे छूट चुकी थीं। पहाड़ भी रंग बिरंगें होने लगे थे। कत्थई, घूसर हरे नारंगी और न जाने कितने रंग के पहाड़। पहाडों की ऐसी खूबसूरती दुनिया में शायद ही कहीं हो। लगता है जैसे कुदरत नें बेमिसाल रंगों की कला कृतियां बनाई है। इसे लद्दाख का एक बर्फीला रेगिस्तान कहा जाता है। नुब्रा घाटी लगभग 10,000 फीट की ऊंचाई पर लद्दाख में स्थित है। घाटी के मुख्य स्थान या बड़े गांव हैं डिसकिट और हुन्डर जो लेह से 150 किमी दूरी पर है। यहां शयोक नदी और नुब्रा नदी की घाटियां हैं। नुब्रा घाटी का प्रशासनिक केंद्र डिसकिट है। गेस्ट हाउस पहुंचने पर नुब्रा के बारे में जैसा सुना था वैसा कुछ नहीं लगा एक पहाडी गांव और छोटी सी मार्केट, दोपहर का समय था ज्यादातर दुकाने बंद थीं।
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आते वक्त दूर से ही देखा था पर जैसे ही हम वहां पहुंचे तो लगा कि यह हुडंर में ही संभव है। चारों ओर पहाड़ जिनकी चोटियों पर बर्फ चमचमा रही थी बगल में श्योक दूर तक पसरा हुआ रेगिस्तान और बीच में बहता हुआ छोटा सा नाला उसके आस पास हरियाली। इसे रेगिस्तान कहें या नखलिस्तान या पहाड़ी इलाका, पानी भी था ही। सैंडड्यूनस तेज हवा में इधर से उधर जगह बदल रहे थे। सौ दो सौ लोगों का झुंड ऊंट की सवारी के लिए टिकट की मारामारी में मशगूल थे। पंद्रह मिनट की सवारी के दो सौ रुपये प्रति सवार। यहां ऊंट भी दो कुबडों वाले हैं। शाम होते ही हवा तेज होती गई और आसमान तारों से भर गया। वैसे भी एस्ट्रोह फोटोग्राफी के लिए इससे बेहतर स्थान एशिया में तो और कोई नहीं है। आकाशगंगाओं के अद्भुत नजारे कैमरे में कैद करने के लिए यहां देश विदेश के सैलानी आते रहते हैं। इतना साफ आसमान शहरों में तो कभी दिखता नहीं है। यही सोचते सोचते कब बिस्तर के हवाले हुए और नींद के आगोश मे गुम हो गये पता ही नहीं चला। सुबह हम फिर डिसकिट मोनेस्ट्री की तरफ चल पड़े जहां सौ फीट ऊंची बुद्ध की प्रतिमा लगी थी। अपनी ऊंचाई के कारण यह मूर्ति पूरे डिसकिट में आसानी से दिखती है और यहां से नुब्रावैली के फोटोग्राफ्र्स लेना किसी भी फोटोग्राफर के लिए सौभाग्य की बात ही होगी। वहीं से फिर श्योक के किनारे बढ़ते-बढते चल दिये पैंगांग के लिए।
डेढ़ सौ किलोमीटर की सड़क अभी पूरी तरह से बनी है। लेकिन प्रकृति अलौकिक है ऐसा लगता है कि जैसे कुदरत ने अपनी पूरी कुशलता के साथ इस घाटी को गढ़ा है। साढे चार घंटे इस अद्भुत नजारे का दीदार करते हुए चलते रहें। तभी दूर से पैंगांग झील की एक झलक दिखी। अप्रतिम पहाडों की गोद में स्थित झील का स्याह नीला सा पानी कीछटा एकदम बिरली थी। अभी तो एक झलक दिखी थी और पूरा नजारा बाकी था। लिहाजा बिना रुके हम तब तक बढ़ते रहे जबतक झील का किनारा नहीं आ गया। झटपट गाड़ी से उतरे लेकिन कांप गये। ठंड जो इतनी ज्यादा थी। शाम चार बजे ही तापमान शून्य से नीचे जा चुका था। अस्ताचलगामी सूर्य की हर किरण चांदी से चमकते इन पहाड़ों पर रंगों की अठखेलियां खेल रही थीं। शायद यह रश्मिरथी का ही चमत्कार था कि हर बीस फुट पर झील भी किसी नवविवाहिता के परिधान की तरह अलग-अलग रगों में रंगी थी। अपनी हट मे गये सामान रखा कुछ गर्म कपड़े बदन पर और लादे और उठा लिया कैमरा और फिर पहुंच गये झील के किनारे।
जिधर नजर जायें एक नया नजारा। अब तक कैमरे का शटर पांच सात सौ बार तो दब ही चुका था। ठंड लगातार बढती जा रही थी और तापमान लगातार गिर रहा था। आकाश सितारों से पट चुका था और पश्चिम में निकली आकाश गंगा का प्रतिबिम्ब झील सेइस कदर एकाकार था मानों वह वहीं से निकलकर आकाश में पसर गयी हो। ठंड अब बर्दास्त के बाहर हो रही थी दांत बजने लगे थे। घड़ी देखी तो सन्न रह गया रात के दो बज चुके थे। लपक कर गाड़ी में बैठा और सरक लिया अपने काटेज की तरफ इस निश्चय के साथ कि भोर में भगवान भुवन भाष्कर के बाल रुप का दर्शन करेंगे। प्राताकाल फिर झील के किनारे थे। एक छोर पर हम और दूसरे पर चीन। एक तिहाई पैंगांग भारत में है तो दो तिहाई चीन में। दिल्ली से चले सात दिन हो चुके थे। अब वापसी की बारी थी इसलिये सामान तो बांधना ही था। लौटते समय फिर एक बार पेंगांग को जी भर कर निहारा। कभी न बुझने वाली अतृप्त प्यास के अहसासके साथ वहां से विदा हो चले।
रास्ते भर सोचते रहे कि इंडस नदी के किनारे बसे इस नखलिस्तान को, लास्ट संग्रीला, लिटिल तिब्बत, मून लैंड या ब्रोकन मून जैसे पाम यूं ही नही दिये गये हैं। क्यों, अलची, नुब्रा घाटी, हेमिस लमयोरू, जांस्कर घाटी, कारगिल, अहम पैंगांग त्सो, और त्सो कार और त्सो मोरीरी बार बार पूछंते है कि यहां से जा ही क्यों रहे हो।
विश्व धरोहर फूलों की घाटी के दीदार को पर्यटकों में है खासा उत्साह