छत्तीसगढ़ का सैला लोक नृत्य है परंपराओं को जीवित रखने और खुशी जाहिर करने का अच्छा जरिया
भारत के लगभग सभी त्योहार मौसम और फसलों के उत्पादन से जुड़े हैं। फसल पकने-कटने के बाद किसानों की खुशी का जरिया होता है गीत-संगीत और नृत्य। छत्तीसगढ़ का सैला नृत्य इसी का रूप है।
By Priyanka SinghEdited By: Updated: Tue, 16 Apr 2019 12:11 PM (IST)
लोक परंपराओं में हम अपने त्योहारों के असली स्वरूप को जीते और महसूस कर पाते हैं। कोई भी त्योहार हो, उसमें गीत-संगीत तो शुमार होगा ही। और ये सबसे ज्यादा आदिवासी इलाकों में देखने को मिलता है। जहां भले ही भौतिक साधनों की कमी हो पर जीवन का असल सुख वे अपनी परंपराओं में ढूंढ लेते हैं।
नृत्य, संगीत और रंग-बिरंगे परिधानों से ये अपनी ऊर्जा और उत्साह को बरकरार रखते हैं। इनमें से अधिकतर ने पोथियां तो नहीं पढ़ीं लेकिन जीवन का असल सार जीवनशैली के जरिए लोगों को समझा जाते हैं।छत्तीसगढ़ में गोंड जनजाति के लोग नृत्य और संगीत के शौकीन हैं और यह नृत्य आंचलिक जनजीवन का एक जरूरी हिस्सा है। ग्रामीण इलाकों के ज्यादातर त्योहार, फसलों से जुड़े होते हैं। इनकी कटाई के बाद ईश्वर को शुक्रिया कहने के लिए गीत-संगीत से बेहतर कोई माध्यम नहीं।
मेहनत से उपजी खुशी सैला छत्तीसगढ़ की गोंड जनजाति का आदिवासी नृत्य है, जो फसल की कटाई के बाद किया जाता है। जब अनाज घर में आ जाता है और मेहनत के रंग खेतों से होकर घर के आंगनों में बिखरने लगता है तो चारों ओर हर्ष उल्लास का माहौल होता है। ऐसे में एक गीत खुद-ब-खुद मुंह से निकलता है...ये जिंदगी रहेला चार दिन...। मतलब छोटी सी जिंदगी है तो क्यों न हंस-खेल कर बिताई जाए। कलाकारों के लाल-पीले कुर्ते - साडि़यां, काली जैकेट और धोती से एक खुशनुमा तस्वीर नज़र आती है। ढ़ोल, टिमकी और गुदुंब वाद्य यंत्रों से निकलती ध्वनियों पर उल्लास में थिरकते पैरों को मानो सारे जहां की खुशियां मिल गई हों। नृत्य में औरतें भी हिस्सा लेती हैं। नर्तकों के हाथ में स्टिक्स होती हैं, जिसे वे साथी कलाकार के साथ बजाकर नृत्य करते हैं। नृत्य के समापन पर अनाज दिया जाता है और उसी से सभी मिलजुल कर खाना खाते हैं और अगली फसल के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं।
सामूहिक भोज
होली के अवसर पर तो मस्ती का आलम ही अलग होता है। फागुन का महीना चढ़ा नहीं कि गांवों में टोलियां निकल पड़ती हैं घर-घर फाग गाने। चारों ओर मस्ती और उमंग के साथ हवा में घुलते गीत...आइला फागुन बड़ी खुशहाली हो, फागुन बड़ा रे त्योहार...ढोल की तान और बोलों की बान पूरी टोली की शान होती है। लोग टोली को पैसे, चावल और खाने का सामान देते हैं। पूरे सप्ताह जो अनाज और सामान इकट्ठा होता है उसी से होली पर गांव का सामूहिक भोज होता है। न बैर- न दुश्मनी, बस रंगों की उमंग।
छोटे-छोटे मनोरंजन
त्योहार न सिर्फ हमारी परंपरा का जरूरी हिस्सा हैं बल्कि जीवन जीने की कला भी हैं। मेहनत के बाद थके-हारे मन को आराम के साथ-साथ मनोरंजन भी चाहिए, वह भी ऐसा जो उसे अगले काम के लिए जोश और उमंग भर दे। आंचलिक जीवन की तमाम झलकियां जीवन की कठिनाइयों के बीच सादगी और सरलता को अपनाकर खुशी महसूस कर पाने की जरूरत पर जोर देती है।