Dussehra 2019: भारत की इन जगहों पर आकर देखें दशहरे की अलग धूम
Dussehra 2019 दशहरे का महत्व होली-दीवाली से कम नहीं और बात जब इसकी रौनक देखने की हो तो कोलकाता का ही नाम जेहन में आता है लेकिन और भी कई जगहें हैं जहां देख सकते हैं इसकी धूम।
By Priyanka SinghEdited By: Updated: Tue, 08 Oct 2019 12:16 PM (IST)
दशहरे और नवरात्रि की रौनक वैसे तो पूरे देशभर में देखने को मिलती है लेकिन इनमें से कुछ एक जगहें ऐसी हैं जहां रीति-रिवाजों से लेकर दशहरा मनाने तक में कई सारी विविधताएं देखने को मिलती है और ये सारी चीज़ें ही इसे खास बनाती हैं। तो कहां जाकर इन खास परंपरा को देख सकते हैं। आइए जानते हैं इनके बारे में....
भागलपुर रेशमी शहर के कर्णगढ़ मैदान और गोलदारपट्टी में रामलीला का डेढ़ सौ साल पुराना इतिहास है। यहां पहले भजन-कीर्तन और रामचरित मानस के पाठ से शुरुआत हुई थी। कुछ सालों बाद कलाकारों ने रामलीला का नाट्य मंचन शुरू कर दिया। रामलीला समिति ने आधुनिक दौर में भी अपनी परंपरा को नहीं बदला है। रामलीला मैदान तक आने के लिए कलाकारों को टमटम से लाया जाता है। रावण और राम की सेना के बीच दर्शकों के आकर्षण का केंद्र रहता है। शहर में और कहीं ऐसे आयोजन नहीं होते हैं। इसी तरह गोलदारपट्टी रामलीला समिति ने अपनी डेढ़ शताब्दी प्राचीन परंपरा को बरकरार रखा है। यहां रावण दहन को देखने के लिए दूर-दराज से लोग कर्णगढ़ मैदान पहुंचते हैं। दो दशक पूर्व तक दर्शक बैलगाड़ी और तांगे पर सवार होकर विजयदशमी की सुबह को जुटते थे।
अहमदाबाद गुजरात में होली-दीवाली से ज्यादा लोगों को नवरात्रि का इतंजार रहता है। नौ दिनों तक चलने वाला गरबा डांस यहां का सबसे बड़ा आकर्षण होता है। ढोल-नगाड़ों पर डांस करते पुरुष-महिलाओं को देखकर आपके कदम भी थिरकने लगेंगे। नवरात्रि में गुजरात आकर आप कई सारे नजारे देख सकते हैं। जिसमें खास है आरती डांस, जो मां दुर्गा के सम्मान में किया जाता है। हजारों की संख्या में लोग गोल घेरे में नाचते हैं।
कोटा दशहराकोटा में दशहरे के मौके पर लगने वाला मेला बहुत ही खास होता है जिसमें कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा हस्तशिल्प और तरह-तरह के स्वादिष्ट जायकों का मजा ले सकते हैं। दशहरे का ये मेला पूरे 25 दिनों तक लगता है। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरूआत महाराज दुर्जनशाल सिंह हांडा ने 1723 में की थी। बस्तरछत्तीसगढ़ में पूरे 75 दिनों तक इस त्योहार की रौनक देखने को मिलती है। यहां दशहरे में देवी दंतेश्वरी की पूजा होती है और हां, यहां रावण का पुतला दहन नहीं होता। आदिवासियों के योगदान की वजह से ये पर्व और भी खास बन जाता है। पुराने समय में आदिवासियों ने बस्तर के राजाओं की हर संभव मदद की थी। जिसके फलस्वरूप बस्तर दशहरे की शुरूआत ऐसी परंपरा के साथ हुआ कि उसमें सबसे ज्यादा योगदान उन्हीं का होता है।