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मध्यप्रदेश का जबलपुर बेस्ट डेस्टिनेशन्स के लिए ही नहीं, स्ट्रीट फूड के लिए भी है मशहूर

गरम तेल से खौलती कढ़ाई में हाथ डालकर पहला समोसा और मंगोड़े निकालकर ग्राहकों को खिलाने की परंपरा भी इस शहर को अलग करती है।

By Pratima JaiswalEdited By: Updated: Fri, 29 Jun 2018 06:00 AM (IST)
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मध्यप्रदेश का जबलपुर बेस्ट डेस्टिनेशन्स के लिए ही नहीं, स्ट्रीट फूड के लिए भी है मशहूर
तमाम अनूठे रंगों के साथ जबलपुर शहर अपनी खानपान की समृद्घ परंपरा के कारण भी जाना जाता है। गक्खड़ भर्ता और खोए की जलेबी की खोज जबलपुर में ही हुई और यहां की दाबेली आपने एक बार चख ली तो लंबे समय तक न भूल सकेंगे इसके स्वाद। खानपान के प्रमुख अड्डे के रूप में सिविक सेंटर और कैंट की चौपाटी पर हर शाम सजती है महफिलें। यहां परांठा वाली गली भी है। और भी ऐसी कई गलियों के समोसे-कचौरी चटखारे लेकर खाए जाते हैं।

जलेबी के खास जायके 

1889 में पत्‍‌नी के साथ हरप्रसाद  जबलपुर में आकर बसे। पत्‍‌नी को खोए की जलेबी, सिंघाड़े के सेव (जो मूंगफली दाना के साथ मिलते हैं) और सिंघाड़ा पाक बनाने में महारत थी। जैन सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते और हिंदुओं में व्रत-त्योहार च्यादा हैं, इसलिए हरप्रसाद बडकुल ने कमानिया गेट के पास फेरी लगाकर इन्हें फलाहार के रूप में प्रसिद्धि दिलाई। 1916 में उनके बेटे मोतीलाल बडकुल ने इसका स्वाद देशभर में प्रसिद्ध कर दिया। उनके छह बेटों में से चार ने तो नौकरियों की राह पकड़ी लेकिन बड़े बेटे चंद्रप्रकाश और सबसे छोटे बेटे मनीष प्रकाश इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। मनीष बताते हैं, 'परिवार में कोई गमी होने पर ही बडकुल प्रतिष्ठान में जलेबी नहीं बनती। '

 

खौलते तेल से निकालते हैं पहला समोसा !

गरम तेल से खौलती कढ़ाई में हाथ डालकर पहला समोसा और मंगोड़े निकालकर ग्राहकों को खिलाने की परंपरा भी इस शहर को अलग करती है। ये हैं अतुल जैन जिन्होंने यह परंपरा शुरू की। शहर के फुहारा के समीप देवा के मंगोड़े-समोसे खिलाने की इस अनोखी परंपरा को 1 जनवरी, 2018 को 100 साल पूरे हो गये। उनके दादा मूलचंद कंछेदीलाल जैन मोहर्रम में अलाव कूदते थे और यहीं से उन्होंने इस परंपरा की शुरुआत की। बाद में इसे उनके पिता देवेंद्र जैन ने आगे बढ़ाया और मशहूर किया। सिर्फ मंगलवार को छोड़कर साल के बाकी दिन आप शाम 5.30 बजे खौलती कढ़ाई में से समोसे निकालते हुए इन्हें साक्षात देख सकते हैं। साथ ही, लंदन की एक टीम ने जबलपुर आकर करीब कुछ साल पहले कढ़ाई के तेल के 150 डिग्री सेल्सियस पर गरम होने की पुष्टि की थी। 'इंडिया गाट्स टैलेंट', 'शाबाश इंडिया' सहित कई कार्यक्रमों में इनकी प्रतिभा दिखाई जा चुकी है। एक फूड ट्रैवल टीम के सदस्य को खौलती कढ़ाई के तेल पर कुछ शंका हुई तो उन्होंने जोश-जोश में खुद हाथ डालकर समोसा निकालने की कोशिश कर ली। फिर क्या था। वे अपनी सभी अंगुलियां जला बैठे। दर्द के मारे उनका बुरा हाल हो गया। अतुल जैन को अफसोस है कि उस सदस्य की एक अंगुली इस कवायद में पूरी तरह खराब हो गई।

यहीं हुई स्नूकर की खोज!

एक टेबल पर पतली डंडी और छह रंगीन बालों के साथ खेला जाने वाले Fूकर का नाम शायद ही किसी ने नहीं सुना होगा। लेकिन इसकी खोज 19वीं सदी में जबलपुर में ही हुई थी। बताते हैं कि ब्रिटिश अफसरों में बिलियर्ड्स काफी लोकप्रिय था। 1875 में अफसरों ने इसमें बदलाव किया और Fूकर की खोज हुई। Fूकर अनुभवहीन कर्मियों को बोलचाल की भाषा में बोला जाता था। एक मैच में प्रतिद्वंद्वी ने असफल शॉट खेला तो डेवनशायर रेजिमेंट के तत्कालीन कर्नल सर नेविल चैम्बर्लन ने उन्हें Fूकर कह दिया। उसी समय से इस खेल का नाम भी Fूकर पड़ गया। हालांकि शहर में Fूकर को बिलियर्ड्स जैसी प्रसिद्धि नहीं मिल पाई।

धार्मिक केंद्र के रूप में भी मशहूर 

दसवीं शताब्दी में तत्कालीन राजपरिवार अपने शत्रुओं पर विजय पाने, स्वस्थ रहने और राच्य की सुरक्षा के लिए तंत्र साधना कर योगनियों की स्थापना करते थे। भेड़ाघाट के चौंसठयोगिनी मठ को इसी उद्देश्य के साथ 950 में कल्चुरि नरेश युवराजदेव प्रथम ने स्थापित कराया था। बाद में 1166 में मठ के बीच में जयसिंह की रानी गोसलदेव ने अपने पुत्रों को आरोग्य रखने की कामना से मंदिर बनवाकर उसमें भगवान गौरीशंकर की स्थापना की थी। यहां कल्याण शिव की दुर्लभ प्रतिमा भी है। इसका नाम भले ही चौंसठयोगिनी मठ है, लेकिन यहां 81 योगनियों की मूर्तियां हैं, जिन्हें मुगलकाल में विध्वंसकों ने खंडित कर दिया था। यह मंदिर 10वीं शताब्दी की बेमिसाल धरोहर है।

डायनासोर का वजूद!

किताबों के साथ ही जुरासिक पार्क जैसी फिल्मों के माध्यम से दुनियाभर में मशहूर हुए डायनोसोर अब भले ही विलुप्त हो गए हैं लेकिन जबलपुर में इसके निशान अंडों व हड्डियों के रूप में आज भी देखे जा सकते हैं। शहर की शिमला हिल्स में 1828 में कर्नल स्लीमन को कुछ अजीब आकार की हड्डियां दिखी थीं, जिन्हें परीक्षण के लिए लंदन भेजा गया और 1921 में इन हड्डियों के डायनासोर का होने की पुष्टि हुई। इनसे डायनासोर की 12 प्रजातियों के जबलपुर व आसपास के जंगलों में पाए जाने की जानकारी सामने आई। जबलपुर से 100 किमी. दूर घुघवा फासिल्स पार्क में आज भी प्रचुर मात्रा में जीवाश्म और डायनासोर के अंडे रखे हुए हैं, जिन्हें देखने बड़ी संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं।

रानी दुर्गावती समाधि

वीरांगना रानी दुर्गावती 24 जून, 1564 को अकबर के सेनापति आसफ खां से युद्ध के दौरान घिर गईं तो उन्होंने स्वयं अपनी कटार सीने में भोंककर वीरगति प्राप्?त कर ली थी। जबलपुर से 20 किमी. दूर स्थित बारहा ग्राम के पास उसी स्थान पर 1964 में नगर निगम ने समाधि का निर्माण कराया। गोंड जनजाति के लोग यहां अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर स्थित रानी दुर्गावती विश्र्वविद्यालय भी इन्ही रानी के नाम पर संचालित है।

आयुध निर्माणियां

कल्चुरि, गोंड राजाओं के बाद अंग्रेजों ने भी यहां सुरक्षा के साजो-सामान का न केवल निर्माण कराया, बल्कि उसका भंडारण भी यहीं पर किया। गन कैरिज फैक्टरी की शुरुआत 1864 में हुई। 1904 में यहां तोपगाडि़यां बनने लगीं। द्वितीय विश्र्व युद्ध के समय 1941 में आयुध निर्माणी खमरिया तथा 1940 में केन्द्रीय आयुध डिपो शुरू हुआ। इसके बाद वेहिकल फैक्टरी जीआईएफ की शुरुआत हुई। वर्तमान में सशस्त्र सेनाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति इन्हीं निर्माणियों से की जा रही है।

इन्हें भी जानें

-एक पहाड़ी पर मदन महल स्थित है, जो लगभग 1100 ई. में राजा मदन सिंह द्वारा बनवाया गया एक पुराना गोंड महल है। इसके ठीक पश्चिम में गढ़ है, जो 14वीं शताब्दी के चार स्वतंत्र गोंड राच्यों का प्रमुख नगर था।

-भेड़ाघाट, ग्वारीघाट और जबलपुर से प्राप्त जीवाश्मों से संकेत मिलता है कि यह प्रागैतिहासिक काल के पुरापाषाण युग के मनुष्य का निवास स्थान था।

-जबलपुर भेड़ाघाट मार्ग पर स्थित त्रिपुर सुंदरी मंदिर, हथियागढ़ संस्कृत के कवि राजशेखर से सम्बंधित है।

-सेना का सेंट्रल इंडिया का मुख्यालय भी जबलपुर में ही है।

-ईस्ट इंडिया कंपनी की पहली ट्रेन कोलकाता से इलाहाबाद होते हुए 1 अगस्त, 1867 को जबलपुर पहुंची थी। अब यहां चारों तरफ ट्रेनों का जाल बिछा हुआ है।

-जबलपुर को चचरें का शहर भी कह सकते हैं। मध्य प्रदेश में सबसे च्यादा चर्च जबलपुर में हैं। सेंट पीटर पाल चर्च को 1840 में बनाया गया। शहर में इस समय 20 से अधिक चर्च हैं।

कैसे पहुंचे

पश्चिम मध्य रेलवे का मुख्यालय होने के कारण देश के किसी भी प्रमुख शहर से यहां के लिए सीधी ट्रेनें है। साथ ही दिल्ली-मुंबई-हैदराबाद-पुणे और कोलकाता की सीधी उड़ानें यहां से आसानी से उपलब्ध हैं। सड़क मार्ग से भी यहां आसानी से पहुंच सकते हैं।