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यहां के सुंदर पहाड़ पढ़ाते हैं स्‍वच्‍छता के पाठ, नियम-कायदे जान रह जाएंगे हैरान

यहां हर सामान कागज के लिफाफे में ही दिया जाता है। आइसक्रीम, चॉकलेट अगर आप वहीं खोलते हैं, तो दुकानदार खुद आपसे उसका रैपर लेकर कूड़ेदान में डाल देता है।

By Pratibha Kumari Edited By: Updated: Mon, 17 Jul 2017 01:55 PM (IST)
यहां के सुंदर पहाड़ पढ़ाते हैं स्‍वच्‍छता के पाठ, नियम-कायदे जान रह जाएंगे हैरान

सुदूर उत्तर पूर्व का सिक्किम राज्‍य अपने सौंदर्य ही नहीं, स्वच्छता के संस्कार और नागरिक जागरुकता में भी आकर्षित करता है। महात्मा गांधी रोड पर लगी गांधी जी की बड़ी सी प्रतिमा जैसे हर आने-जाने वाले को इन घुमावदार रास्तों को स्वच्छ बनाए रखने के संस्कार सौंप रही है...एक व्यस्त सड़क जिस पर सैकड़ों गाडि़यां आ जा रही हैं तभी सिग्नल लाल होता है और हर गाड़ी बिलकुल एक के पीछे एक खड़ी हो, बिना हॉर्न बजाये तो इसे देख कर कौन अभिभूत नहीं होगा?

जी हां, यह है सिक्किम की राजधानी गंगटोक। धूल धुंए रहित, बिना शोर-शराबे का एक शांत पहाड़ी शहर। यहां हिन्दू और बौद्ध लोग बहुतायत में हैं। मिलनसार स्थानीय लोगों से बात करके मालूम हुआ कि यहां पब्लिक प्लेस पर हॉर्न बजाना और सिगरेट पीना मना है। पर लिकर (शराब) कोई भी, कभी भी, कहीं भी पी सकता है। ज्‍यादातर लोग पर्यटन पर निर्भर हैं। सिक्किम के चार जिलों में से गंगटोक पूर्वी जिला है। माल रोड यानी एमजी रोड पर महात्मा गांधी की बड़ी सी प्रतिमा है। जिसके लिए पत्थरों को बड़ा सा चौक बनाया गया है। इस रोड के दोनों तरफ सुसज्जित दुकानें और कई नई-पुरानी जगमगाती इमारतें हैं। बीच में डिवाइडर पर हरियाली बैठने के लिये बैंच और हर पचास मीटर पर डस्टबिन रखे दिखते हैं।

माल रोड के शुरुआत में ही टूरिस्ट इनफार्मेशन सेंटर है जहां से घूमने के लिए जानकारी जुटाई जा सकती है। इसी रोड पर दो वेज रेस्टॉरेंट हैं जो शाकाहारी लोगो के लिए बड़ी राहत हैं। एमजी रोड के लगभग आखिर में थोड़ा नीचे उतर कर लाल बाजार है। जगह की कमी के बावजूद दुकानें और उनके आगे के फुटपाथ सामानों से भरे दिखते हैं। यहां पॉलीथिन बैग पूरी तरह प्रतिबंधित हैं। यहां हर सामान कागज के लिफाफे में ही दिया जाता है। आइसक्रीम, चॉकलेट अगर आप वहीं खोलते हैं, तो दुकानदार खुद आपसे उसका रैपर लेकर कूड़ेदान में डाल देता है। सिक्किम में हर नागरिक अपने शहर, अपने राच्य की साफ-सफाई के लिये खुद को जिम्मेदार मानता है यह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। रात के आठ बजते-बजते यह साफ-सुथरा बाजार बंद होने लगता है।

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जागरुक नागरिकों की राजधानी गंगटोक में एक दिन के स्थानीय टूर में सात या ग्यारह प्वाइंट घुमाये जाते हैं। इनमें व्यू प्वाइंट गणेश टोंक मंदिर और कुछ वाटर फॉल हैं। एमजी रोड के आसपास होटल काफी महंगे हैं पर जैसे-जैसे शहर से दूर होते जाएंगे, कम किराये में भी ठहरने की अच्छी जगह मिल जाएगी। टैक्सी हालांकि थोड़ी महंगी लगती हैं पर जिस तरह की चढ़ाई और घुमावदार सड़कों पर चलती हैं उतना पैदल चलना भी आसान नहीं है। नाथुला पास भारत चाइना बॉर्डर पूर्व सिक्किम गंगटोक जिले में गंगटोक से 80 किलो मीटर दूर लगभग 14740 फीट की ऊंचाई पर है। यहां जाने के लिये शेयर्ड और प्राइवेट दोनों तरह की टैक्सी मिलती है। लगभग हर होटल में मौजूद टूरिस्ट एजेंसी के एजेंट इन्हें बुक करते हैं। नाथुला पास जाने के लिए पहले परमिट बनवाना पड़ता है। इसके लिए बुकिंग के साथ ही दो फोटो और पहचान पत्र की एक कॉपी देना होती है।

पहाड़ों और खाइयों का सफर शहरी सीमा पार करते ही गाड़ी खुले पहाड़ी रास्ते पर बढ़ चलती है। एक ओर आसमान में फक्र से सिर उठाये ऊंचे पहाड़, तो दूसरी ओर अपनी विनम्रता की मिसाल देती गहरी खाईयां। ऊंचाई से गिरते पहाड़ी झरने अपनी ओर ललचाते हैं। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते हैं पानी की बोतल और खाने-पीने का सामान महंगा होता जाता है। सड़क किनारे जो झरने बहुत पास दिखते हैं उन तक पहुंचना आसान नहीं है। स्थानीय लोग इन झरनों के आसपास सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं क्योंकि यही उनके लिए पानी का स्त्रोत हैं। पूरे सिक्किम में पेड टॉयलेट हर जगह हैं। उसके अलावा कहीं गाड़ी रोकने से ड्राइवर मना कर देते हैं। अपने टूरिस्ट की बात के ऊपर अपने प्रदेश की साफ-सफाई को तरजीह देना बहुत बड़ी बात हैं।

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वैसे अपवाद सभी जगह देखने को मिलते हैं वही आदत से लाचार लोग। जवानों की सुरक्षा में साफ-सुथरी सड़कें, नीला आसमान, मिलिट्री एरिया की सुरक्षा मन मचल ही जाता है पैदल चलने को। रास्ते में कई जगह सेना के कैंप हैं जहां फोटोग्राफी निषिद्ध है। परमिट चेक करने के लिए गाडिय़ों को थोड़ी ज्‍यादा देर रुकना पड़ता है। पहाड़ों के बीच जहां भी थोड़ी जगह थी वहां टीन के शेड और बैरक बने थे। गाडिय़ां हथियार से लैस। कई जगह रास्ते में बोर्ड लगे थे चीनी निगरानी क्षेत्र। गलबंद गरम कपड़ों से लैस जवान मुस्तैदी से अपने काम में जुटे थे। लगातार ठंडी हवाओं ने चेहरे की त्वचा को झुलसा कर काला कर दिया था, लेकिन ड्यूटी के आगे इसकी चिंता किसे है?

यात्रा का पहला पड़ाव था छंगू लेक (झील) जो 14310 फीट की ऊंचाई पर है। पहाड़ों से घिरी इस प्राकृतिक झील को जगह देने के लिए यहां पहाड़ भी पीछे खिसक गए हैं। इतनी ऊंचाई पर पहाड़ों पर वनस्पति कम होने लगी थी। झील में मछलियां हैं पर 51 फीट गहरी यह झील सर्दियों में पूरी तरह जम जाती है। यहां सजे-धजे याक लिये स्थानीय निवासी याक पर फोटो खिंचवाने का आग्रह करते हैं। आगे ऊपर बढ़ते हुए बार- बार झील दिखती है। साफ-सुथरे स्थिर पानी पर पहाड़ों का प्रतिबिम्ब मन मोह लेता है। पचास साठ फीट ऊपर से भी उथली सतह के पत्थर दिखते हैं। तब अनछुई प्रकृति की सुंदरता गहराई से महसूस होती है। दो देशों के दरमियान नाथुला पास करीब आ रहा था ठण्ड बढ़ने लगी थी गाड़ी में भी हाथ में मोबाइल और कैमरे की अनुमति नहीं थी। पास के करीब हर मोड़ पर चार बाय चार के केबिन के बाहर मुस्तैदी से मशीनगन थामे जवान खड़े थे। संभवत: लोगों को फोटो खींचने से रोकने के लिए यह तैनाती थी। यह इलाका चीनी निगरानी क्षेत्र में आता है, इसलिए यह सावधानी जरूरी है। पार्किंग से लगभग ढाई तीन सौ फीट चल कर बार्डर है। यहां ठंड बहुत बढ़ जाती है और हवा में ऑक्सीजन की कमी महसूस होने लगती है।

हमें अधिकतम एक घण्टे ही रुकने की अनुमति थी वरना तबियत खराब होने का डर था। कई महिलाएं और बच्चे हांफ रहे थे। कई अपर्याप्त गरम कपड़ों में थे, तो कइयों ने पर्याप्त कपड़ों के बावजूद उन्हें ठीक से नहीं पहना था। जैकेट की जिप खुली थी। सिर नहीं ढका था और मुंह पर स्कार्फ भी नहीं लपेटा था। सांस लेने में तकलीफ के बावजूद लोग बच्चों को चढ़ा रहे थे। जहां दोनो देशों के दरवाजे हैं उनके बीच महज पंद्रह-बीस फीट की दूरी है। इसे देखने के लिए खुली टैरेस जैसी जगह है। टैरेस पर दीवार ऐसी है जैसे दो छतों के बीच दीवार होती है। दो जवान दुश्मन देश पर ऩजर रखे थे, तो पांच-छह जवान भारतीय पर्यटकों पर ऩजर रखे थे। जिस ठण्ड में हम बमुश्किल घूम पा रहे थे और एक घंटे बाद वापस चले जाने वाले थे वहां उन जवानों की लोगों से बहस मशक्कत देख सिर शर्म से झुक गया। सिविलियन को सिविक सेन्स सीखने की बहुत जरूरत है। सिर्फ महंगे कपड़े, जूते गाडिय़ां इस्तेमाल करने से ही सभ्य नहीं कहलाया जा सकता। चाइना बॉर्डर में खामोशी छाई थी। उस तरफ कभी-कभी ही पर्यटक आते हैं। इस तरफ पर्यटकों की सुविधा के लिए सेना ने मेडिकल हेल्प और कैंटीन के दो टैंट बनाये हुए हैं। कैंटीन में गरमा गरम कॉफी समोसे और मोमोज का आनंद लिया जा सकता है।

इसके बाद अगला पड़ाव है बाबा मंदिर। बाबा हरभजन सेना में थे, जो रसद ले जाते हुए पहाड़ी झरने में बह गए थे और घटना स्थल से दो किलोमीटर दूर उनका शव मिला। कहते हैं उन्होंने अपने साथियों को सपने में दर्शन दे कर अपने शव की स्थिति बताई थी। सेना ही मंदिर की व्यवस्था देखती है। यहां पास की एक पहाड़ी पर एक बड़ी सी शिव प्रतिमा स्थापित है जिसके पीछे बड़ा सा झरना बहता है। पहाड़ों में जो जगह बहुत पास दिखती हैं वह पहुँचने में बड़ी दूर होती हैं। मंत्रों की झंडियां पहाड़ों पर कई जगह रंगबिरंगी झंडियां दिखती हैं, जो बौद्ध मतावलंबी लगाते हैं। मंत्र लिखी ये झंडियां जब हवा में लहराती हैं, तो मान्यता है कि इन पर लिखे मंत्र हवाओं के साथ दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं। एक पहाड़ पर एक कतार में सफ़ेद झंडे लगे थे। जब किसी की मृत्यु हो जाती है उसके नाम पर उसके परिवार वाले 108 सफेद झंडे लगाते हैं। इन पर लिखे मंत्र मृत आत्मा की शांति के लिये हैं। रंगीन झंडियां घर की शांति के लिए लगाई जाती हैं। बौद्ध धर्म में जीवन सरल है परंतु मरना बहुत मंहगा है। मरने के समय के अनुसार साइत देखी जाती है उसके अनुसार निर्णय होता है कि संस्कार कितने दिन बाद होगा। तीन, पांच, सात या ग्यारह दिन बाद या कभी-कभी तो महीने भर बाद। तब तक शव घर में रहता है बौद्ध भिक्षु को रोज बुलाकर मंत्र पाठ करवाया जाता है। दो से पांच सात भिक्षु रोज आते हैं। एक भिक्षु का एक दिन का खर्च दो से पांच हजार तक होता है। हां, शादी का खर्च च्यादा नहीं होता। शादी घर में या मोनेस्ट्री में हो जाती है। कोई जब तक साथ रहना चाहे ठीक है, नहीं तो अपना साथी बदल ले या अलग हो जाए।

दिसंबर में सिक्किम में बौद्ध उत्सव होता है जिसमे याक का गोश्त और वहाँ के अन्य व्यंजन बनते हैं। स्थानीय निवासी हिंदी, इंग्लिश, बंगाली और भूटिया भाषा बोलते और समझते हैं। रंगीन बिल्लियों का इलाकानार्थ सिक्किम के लिए पैकेज टूर तीन दिन और दो रातों का है। यहां भी परमिट बनवाकर प्राइवेट या शेयर्ड टैक्सी की सुविधा ली जा सकती है। जिसमें लाचेन और लाचुंग में रात्रि विश्राम है। यह बेहद खूबसूरत अनछुआ जिला है। विरल आबादी दूर-दूर बसे छोटे-छोटे गाँव, ऊंचे पहाड़ों के बीच से गुजरते रास्ते, घने जंगल और ढेर सारे झरने। हर मोड़ के बाद एक झरना, कांच सा स्वच्छ पानी और बस्तियों के पास के झरने के नीचे लगी पनचक्की जिससे बिजली बनती है। पहाड़ों पर पेड़ों के नीचे बमुश्किल साल के किसी दिन कुछ घंटों के लिए धूप पहुँचती होगी। जंगल में जानवर बहुत कम हैं। साँप नहीं हैं लेकिन बिल्लियां बहुत हैं। सड़कों के किनारे भूरी, सफेद, काली, पीली बिल्लियां दिख जाती हैं।

सड़कें ठीक हैं पर भूस्खलन के कारण लगातार काम चलता रहता है। कई जगह बड़े-बड़े पहाड़ ढहे मिले तो कहीं 2011 में आए भूकंप के निशान भी दिखे। पहाड़ों से गिरे पत्थरों को मजदूर महिलाएं हथौड़ी से तोड़ती दिखाई देती हैं। तीस्ता की लहरें लाचुंग से आगे युक्सूम में काफी दुकानें हैं, जहां बूट्स, दस्ताने किराये पर मिल जाते हैं। पैकेज टूर में शामिल चाय-नाश्ते के लिए हर गाड़ी की दुकान तय है। रास्ते से नीचे तीस्ता नदी बहती है। जैसे-जैसे ऊपर की और बढ़ते जाते हैं वनस्पति बदलती जाती है और फिर चारों तरफ सिर्फ क्रिसमस ट्री नजर आते हैं। भूकंप के कारण यहां सबसे ज्‍यादा नुकसान हुआ। कई पहाड़ पूरी तरह धराशायी हो गये और तीस्ता नदी का रास्ता अवरुद्ध हो गया। जिससे उस पर एक झील बन गई। अब उस झील में बतखें आ गईं हैं जो पहले नहीं थीं। बत्तखों का आकर्षक समूह बताता है कि तबाही भी किसी के लिए आशियाना बना देती है।

यहां कई लोग अपने प्रोफेशनल कैमरे के साथ फोटो खींचते दिखे। यह क्षेत्र भारत तिब्बत पुलिस की निगरानी में है। जीरो प्वाइंट से आगे भी चाइना बॉर्डर है पर उससे काफी पहले ही लोगों को रोक दिया जाता है। एक मोड़ लेते ही बर्फ से ढंके पहाड़ दिखने लगते हैं। इतने नज़दीक इतने छोटे कि दौड़ कर ऊपर चढ़ने का मन होने लगे पर वे इतने छोटे भी नहीं थे। रात में गिरी धवल बर्फ सूरज की रोशनी के साथ एक अलौकिक नजारा पेश करती है। इसी के आगे तीस्ता नदी का उद्गम है। इसलिए यहां तीस्ता नदी छोटी पहाड़ी नदी जैसी थी लेकिन उसके प्रवाह के तेवर सचेत कर रहे थे। एक कच्चा पुल पार करके हम बर्फ पर पहुँच गये। साल भर बनी रहने वाली नमी के कारण जमीन मॉस (एक प्रकार की वनस्पति) से ढंकी रहती है जिसके कारण कीचड़ नहीं होता और इतनी आवाजाही के बावजूद भी बर्फ गंदी नहीं होती। जैसे जैसे बर्फ पर ऊपर चढ़ते जाते हैं ठंडी हवा तीखी होती जाती है उसके साथ ही आवाज़ की लहरें भी च्यादा सुनाई देने लगती हैं। जहां मन अटका रह जाता है दूसरे दिन ही रात तक लाचेन पहुंच जाते हैं। गुरुडोंगमर झील यहां का आकर्षण है, जहां पहुंचने के लिए डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है, जो रात तीन बजे शुरू होता है और दिन में ग्यारह बारह बजे तक वापसी।

कड़ाके की सर्दी में रात का ये सफर कठिन जरूर है पर जब मंजिल पर पहुंचते हैं पहाड़ों के ऊपर नीले आसमान के प्रतिबिम्ब को समाहित किये इस अनूठे नज़ारे को देखते हैं, तो यात्रा का कष्ट छूमंतर हो जाता है। जो इतना कठिन सफर ना करना चाहे वह लाचेन में ही होटल में रुक सकता है। सुबह-सुबह गाँव लगभग खाली और शांत होता है। यहां किसी भी सड़क पर पैदल टहलना और मोनेस्ट्री में शांति से बैठना एक अद्भुत अनुभव है। नार्थ सिक्किम से वापसी एक उदासी से भर देती है। आप खुद तो लौट आते हैं पर आपका मन वहीं किसी झरने की फुहारों में भीगता किसी पहाड़ की चोटी पर अटका या किसी सड़क के मोड़ पर आपके फिर आने का इंतज़ार करता वहीं रह जाता है।

कैसे पहुंचे- करीबी एयरपोर्ट बगडोगरा अथावा रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी से प्राइवेट या शेयर्ड टैक्सी से गंगटोक पहुंचे।

दूरी- न्यू जलपाईगुड़ी से 120 किलोमीटर
समय- लगभग चार घंटे का रास्ता
ठहरने के लिए : शहर से दूर कम कीमत में कई होटल उपलब्ध।
खास बातें- पानी पीते रहें। नाश्ते में सत्तू, पॉपकॉर्न आदि हल्का भोजन लें। गरम कपड़े टोपा मफलर दस्ताने हमेशा साथ रखें। कपड़ों की कई लेयर पहनें। पहाड़ों पर रुकने वनस्पति छूने फूल तोड़ने के पहले ड्राइवर या स्थानीय लोगों से जानकारी जरूर लें, ये जहरीली या खतरनाक हो सकती हैं। मोनेस्ट्री, चर्च, मंदिर में शांति बनाये रखें।

कविता वर्मा