19वीं सदी की धरोहर तिजारा किला, जिसके पीछे छिपी है एक रोमांचक कहानी
ऐसा लग रहा था जैसे हमारे सामने एक मनमोहक चित्र है, जिसमें किसी ने ऊंची पहाड़ी पर रातोंरात एक सुंदर महल लाकर टिका दिया हो।
एक बार फिर किसी नए स्थान की ओर जाने के लिए के लिए पांव मचल रहे थे, लेकिन इस बार दिल्ली से बहुत दूर जाने का मन भी नहीं था। बस झटपट इंटरनेट की सहायता ली और काफी कुछ ढूंढ़ने पर मिला एक बिल्कुल अनसुना और अनदेखा ‘तिजारा का किला’। यह सैलानियों की भीड़भाड़ से बचा हुआ एक शाही महल है। बस फिर क्या था। गाड़ी से निकल पड़े, लगभग सौ किलोमीटर दूर अपनी मंजिल की ओर।
कुछ घंटों की ड्राइविंग के बाद हम तिजारा जा पहुंचे। नगर में प्रवेश करने के बाद तिजारा को पार किया और शीघ्र ही तीन-चार किलोमीटर पर हमारा गंतव्य एक ऊंची पहाड़ी पर दिखाई पड़ गया। ऐसा लग रहा था जैसे हमारे सामने एक मनमोहक चित्र है, जिसमें किसी ने ऊंची पहाड़ी पर रातोंरात एक सुंदर महल लाकर टिका दिया हो। इसी कल्पना में खोए हम मुख्य मार्ग से बायीं ओर मुड़े और किले को जोड़ने वाली एक सड़क पर बढ़ चले। यह मार्ग कच्चा और ऊबड़-खाबड़ था, लेकिन किले के भव्य स्वागत द्वार के सामने आते ही लगा जैसे हम इतिहास के एक सुंदर और पुराने पन्ने को जीवंत देख रहे हैं। रिसेप्शन की औपचारिकता पूरी होते ही सम्मानपूर्वक हमें हमारे रानी महल में स्थित कक्ष में पहुंचाया गया। ऐसा लगा कि हम उसी राजकीय ठाठबाठ में पहुंच गए हैं, जो केवल कभी पुस्तकों में ही पढ़ा था। इस तिमंजले भवन में बीस कक्ष हैं, जिनकी साज-सज्जा और सुरचना भवन-कला क्षेत्र के जाने-माने विशेषज्ञों के हाथों से की गई है।
किले की कहानी
इस किले के पीछे एक रोमांचक कहानी है। कहा जाता है कि इस किले का निर्माण राजा बलवंत सिंह ने अपनी माता की स्मृति में किया था, जो अलवर की मौसी महारानी के नाम से जानी जाती थीं। किले का निर्माण वर्ष 1836 में आरंभ किया गया। मौसी महारानी वास्तव में अलवर राज्य में एक गांव की साधारण लड़की थीं, जिनको अलवर राज्य के महाराजा बख्तावर सिंह ने अपने राज्य के ग्रामीण दौरे के अवसर पर देखा। देखते हुए वे उन पर मोहित हो गए थे। बस फिर क्या था, बख्तावर सिंह उन्हें सम्मान के साथ पालकी में बैठाकर अपने महल ले आए और उन्हें मुख्य उपपत्नी बनाया। शीघ्र ही वह मौसी रानी के नाम से जानी जाने लगीं। मौसी रानी ने अपने बेटे बलवंत सिंह और बेटी का विवाह सम्मानित राजपूत घरानों में सुनिश्चित करवाए, जो उनकी समझदारी और दूरदर्शिता की पहचान थी। महाराजा बख्तावर सिंह की मृत्यु पर वह उनके साथ सती हो गईं। यह बख्तावर सिंह के प्रति उनकी निष्ठा और प्रेम का पबरिचायक है, इसीलिए जनता उन्हें मौसी महारानी के रूप में जानने और मानने लगी। ब्रिटिश तो चाहते ही थे कि अलवर पर उनका प्रभुत्व और मजबूत बने।
बख्तावर सिंह की मृत्यु के पश्चात उन्होंने अलवर के बंटवारे को प्रोत्साहित किया, जिसमें राज्य का एक तिहाई भाग जो कि तिजारा के आसपास का था, बलवंत सिंह के हिस्से में आया और उन्होंने इस किले और महल का निर्माण आरंभ किया, लेकिन बलवंत सिंह के बाद इस किले का सूर्य अस्त होने लगा और देखरेख के अभाव में यह किला लगभग ध्वस्त होता चला गया। रात भर इस किले की कहानी मेरे मन में गूंजती रही। इस किले और महल के बनाने में कई वर्ष लग गए थे, लेकिन धीरे-धीरे समय की आंधियों के सामने इसकी भव्यता तथा सौंदर्य टिक नहीं पाए। लेकिन कुछ वर्ष पूर्व इसको पुनर्जीवित करने का कार्य आरंभ हुआ था। आज फिर इस धरोहर ने अपनी भव्यता को फिर से पा लिया है। यह अब किला सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है।
खूबसूरत दृश्य
पूरे किले का दृश्य बेहद खूबसूरत है। दायीं ओर कुछ ही दूरी पर मर्दाना महल है, जिसमें लगभग चालीस कमरे होंगे, जिनकी साज सज्जा विशिष्ट शैली की है। मर्दाना महल के मध्य में एक विशाल प्रांगण है, जो विवाह आदि कार्यक्रमों के लिए है। रानी महल से कुछ ही दूरी पर विशाल हवा महल है, जिसमें मुख्य डाइनिंग हॉल, स्वागत कक्ष आदि हैं। बायीं ओर किले की सीमा के साथ-साथ पत्थर पर कारीगरी से सजा एक लंबा बरामदा है, जो हवा महल तक जाता है। रानी महल और हवा महल के बीचोबीच एक और डाइनिंग हॉल है, जिसकी छत से चारों ओर का दृश्य दिखाई देता है। इन सब भागों को जोड़ते हैं विभिन्न स्तर पर बने सुंदर सीढ़ीदार लॉन्स। ऊंची पहाड़ी के पठार पर जैसे टिका हुआ यह किला और महल ऐसा लगता है कि चारों दिशाओं को आज फिर अपने नए रूप में गर्व से निहार रहा है। यहां आने से पहले एक बात ध्यान में रखें कि पहले ही अपना कक्ष बुक करवा लें।सप्ताहांत के लिए अपना कक्ष बुक करवाइए और निकल पड़िए एक अविस्मरणीय अनुभव के लिए।
एस.एस.शर्मा
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