जीवन को पूर्णता प्रदान करता है योग, आसन और प्राणायाम के आध्यात्मिक महत्व को जानना जरूरी

भारत में योग के ऊपर अध्ययन-अनुसंधान लगभग एक सदी से हो रहे हैं। पश्चिमी देशों में योग की लोकप्रियता बढ़ने के साथ मनोचिकित्सा के रूप में इसके वैज्ञानिक शोध का तेजी से प्रचलन हुआ है। अब अनेक मानसिक सांवेगिक और शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं जैसे अवसाद पाचन क्रिया से जुड़े रोग हृदय रोग अस्थमा मधुमेह और कैंसर आदि पर योग-अभ्यास के प्रभाव जांचे समझे जा रहे हैं।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Thu, 20 Jun 2024 11:45 PM (IST) Updated:Thu, 20 Jun 2024 11:45 PM (IST)
जीवन को पूर्णता प्रदान करता है योग, आसन और प्राणायाम के आध्यात्मिक महत्व को जानना जरूरी
जीवन को पूर्णता प्रदान करता है योग (File Photo)

गिरीश्वर मिश्र। यदि योग को गंभीरता से अपना लिया जाए तो वह व्यक्ति का सबसे अच्छा और भरोसेमंद सहायक साबित होता है। यह अपने साधकों को दुख और क्लेश से मुक्त करता है और सुखपूर्वक समग्रता या पूर्णता में जीने का मार्ग प्रशस्त करता है। वेदों से निकला हुआ ‘योग’ शाब्दिक रूप से ‘जुड़ने’ के अर्थ को व्यक्त करता है। अनुमानतः लगभग 200 वर्ष ईसा पूर्व महर्षि पतंजलि ने ‘योग सूत्र’ में प्राचीन ज्ञान को वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित कर लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत किया। इसका उद्देश्य था मन में उठने वाली उथल-पुथल को रोकने, दैनिक जीवन में शांति स्थापित करने और अंतत: आत्मा और ब्रह्म का संयोग कराने के लिए मार्ग दिखाना। एक अध्ययन-विषय के रूप में योग भारतीय दर्शनों में से एक है।

प्रायः सभी भारतीय दर्शन उस सर्वव्यापी परम तत्व को स्वीकार करते हैं, जो सभी विद्यमान वस्तुओं में उपस्थित है। व्यक्ति और उस परम सत्ता में एकात्मता होती है। योग मार्ग वह पाठ है, जो व्यक्ति-चैतन्य को विकसित और समृद्ध करता है, ताकि जीवन में अधिक सामंजस्य का अनुभव शामिल हो सके और अंतत: परम तत्व के साथ एकता का अनुभव हो सके। जैसा कि उपनिषदों में वर्णित है, हमारा अस्तित्व पांच तत्वों से बनी रचना है। इस रचना में शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और आनंद के पांच क्रमिक स्तर पहचाने गए हैं। योग का अभ्यास इन तत्वों के बीच पारस्परिक संतुलन और चैतन्य लाता है और अस्तित्व के केंद्र परम तत्व की ओर अग्रसर करता है। योग बाह्य से आंतरिक बुद्धि और आंतरिक से बाह्य बुद्धि की यात्रा है।

योग-सूत्र अष्टांग योग के नाम से प्रसिद्ध है। इसके आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। साधक को इन पर साथ-साथ समानांतर रूप से चलना चाहिए। योगाभ्यास का उद्देश्य साधक को आत्मावलोकन-अपने विचारों और व्यवहारों और उनके परिणामों को देखना-समझना भी होता है। यम और नियम नामक पहले दो चरण नैतिकता और सदाचारपूर्वक जीवन जीने के लिए निर्देश देते हैं। जहां यम बाहरी दुनिया के साथ संबंध पर केंद्रित हैं, वहीं नियम निजी आध्यात्मिक विकास और आत्मानुशासन की आदतों को बताते हैं।

यम पांच हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (इंद्रियसुख का नियंत्रण) और अपरिग्रह (वस्तुओं का अतिसंचय/संग्रह)। यम वस्तुतः प्रतिबंध हैं, जो सिर्फ कर्म के स्तर पर ही नहीं, बल्कि विचार और शब्द के स्तर पर भी लागू होते हैं। इन्हें अपनाने पर योगाभ्यासी व्यक्ति को स्वतंत्रता मिलती है और खुली सांस लेने का अवसर मिलता है। इनके अतिरिक्त पांच नियम हैं, जो वस्तुतः सदाचार के पालन पर बल देते हैं। ये हैं-शौच (पवित्रता), संतोष, तप (इच्छाओं का शमन), स्वाध्याय (आध्यात्मिक ग्रंथों तथा स्वयं का अध्ययन) और ईश्वर-प्रणिधान (परमेश्वर को आत्मार्पण)। इस तरह यम और नियम योग पथ के राही के लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्याख्या करते हैं। ये आत्म शोधन का भी काम करते हैं और अच्छे तथा सुखी जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ये नींव रखने का काम करते हैं।

आसन और प्राणायाम शारीरिक अभ्यास हैं, पर इनका आध्यात्मिक महत्व भी है। आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख जीवन के लिए औजार भी ठीक होना चाहिए। राह मालूम हो, लक्ष्य भी ज्ञात हो, पर चालक ठीक है या नहीं, यह भी देखना होता है। सोद्देश्य जीवन के लिए शरीर ठीक रखना जरूरी है। यह पवित्र कर्तव्य बनता है कि शरीर को स्वस्थ रखा जाए। प्राणायाम से प्राण ऊर्जा का संचरण शरीर में स्वेच्छा से होता है, सिद्धियां भी आती हैं और मन की स्थिरता भी। वस्तुतः प्राणायाम और प्रत्याहार, दोनों ही आंतरिक दुनिया की ओर उन्मुख होते है और इस अर्थ में पहले के तीन चरणों-यम, नियम और आसान से भिन्न होते हैं।

प्राणायाम का अभ्यास लयात्मक श्वास द्वारा इंद्रियों के अंदर की ओर खोजने की दिशा में चेतना को ले चलना, अंदर के अध्यात्म के गहन अनुभव की ओर अग्रसर करना संभव हो पाता है। पहले के पांच चरण बाद के तीन चरणों के लिए उर्वर आधार भूमि का निर्माण करते हैं। धारणा योग का छठा चरण है। इसके अंतर्गत साधक अपने अवधान की एकाग्रता एक दिशा में और लंबे समय तक बनाए रखता है। यह परम तत्व पर ध्यान केंद्रित करने की तैयारी है। बिना किसी व्यवधान के निर्बाध ध्यान करना साधक को सहकार का अवसर देता है। साधक का समग्र अस्तित्व-शरीर, श्वास, इंद्रियां, मन, बुद्धि और अहंकार, ध्यान की वस्तु-सभी परम तत्व के साथ एकीकृत हो जाते हैं। इस यात्रा का अंतिम पड़ाव समाधि है, जिसमें परम तत्व के साथ एकाकार होना होता है। तब अलगाव का भ्रम दूर हो जाता है और आनंद के साथ परम चेतना के साथ एकत्व का अनुभव होता है।

भारत में योग के ऊपर अध्ययन-अनुसंधान लगभग एक सदी से हो रहे हैं। पश्चिमी देशों में योग की लोकप्रियता बढ़ने के साथ मनोचिकित्सा के रूप में इसके वैज्ञानिक शोध का तेजी से प्रचलन हुआ है। अब अनेक मानसिक, सांवेगिक और शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं जैसे अवसाद, पाचन क्रिया से जुड़े रोग, हृदय रोग, अस्थमा, मधुमेह और कैंसर आदि पर योग-अभ्यास के प्रभाव जांचे समझे जा रहे हैं।

योगाभ्यास करने वाले प्रायः शरीर में विश्राम, मन में एकाग्रता और हृदय में शांति का अनुभव करते हैं, जो उन्हें स्वास्थ्य और खुशहाली प्रदान करती है। मनुष्य स्वभाव से अपूर्ण होता है, परंतु योग उसे पूर्ण बनाता है। फिर वह स्वयं को खोज लेता है। स्वयं अपने भीतर और सारे जगत में दिव्यता का दर्शन करने लगता है। यही योग का अभीष्ट है। योग की लोकप्रियता बढ़ रही है तो इसीलिए कि वह विश्व को भारत की ओर से दी जाने वाली एक अनूठी सौगात है।

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति हैं)

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