निरंतरता के साथ बदलाव भी जरूरी: मोदी सरकार और भाजपा की रीति-नीति में कुछ परिवर्तन अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक भी

भाजपा को जिन चार प्रमुख राज्यों में जोर का झटका लगा उनमें उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र बंगाल और राजस्थान हैं। महाराष्ट्र में झटके का एक कारण एनसीपी और शिवसेना में तोड़-फोड़ को भी माना जा रहा है। प्रश्न यह है कि क्या एनसीपी और शिवसेना से टूटकर निकले दल बिना शीर्ष नेतृत्व की सहमति और समर्थन से भाजपा के पाले में आए और महाराष्ट्र सरकार की सत्ता में साझीदार बने?

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya
Updated: Wed, 12 Jun 2024 12:04 AM (IST)
निरंतरता के साथ बदलाव भी जरूरी: मोदी सरकार और भाजपा की रीति-नीति में कुछ परिवर्तन अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक भी
निरंतरता के साथ बदलाव भी जरूरी (File Photo)

राजीव सचान। मोदी सरकार की तीसरी पारी शुरू हो गई। केंद्रीय मंत्रिरिषद का गठन होने के साथ ही मंत्रियों के विभागों का बंटवारा भी हो गया। इसी के साथ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के स्थायित्व को लेकर जो सवाल उठे थे अथवा उठाए जा रहे थे, वे सहयोगी दलों और विशेष रूप से एनसीपी और शिवसेना की ओर से मंत्री पदों को लेकर शिकवा-शिकायत के बाद भी खास अहमियत नहीं पा रहे हैं। इसी तरह यह जो कयास लगाए जा रहे थे कि प्रधानमंत्री मोदी को अपने मंत्रियों के चयन और उनके विभागों के बंटवारे में सहयोगी दलों और विशेष रूप से टीडीपी और जेडीयू के दबाव का सामना करना पड़ेगा, वे हवा-हवाई ही अधिक साबित हुए, क्योंकि अधिकांश महत्वपूर्ण विभाग भाजपा नेताओं के पास ही गए। इसी तरह अनेक प्रमुख केंद्रीय मंत्रियों को उनके पुराने विभाग भी फिर से मिल गए।

इससे यही संदेश निकला कि मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में पहले की तरह कार्य करेगी और एक तरह की निरंतरता बनी रहेगी। यह एक हद तक ठीक भी है, लेकिन कुछ बदलाव भी होने चाहिए। जैसे कि जिन मंत्रियों का कामकाज आशा के अनुरूप नहीं रहा, उनके विभाग बदले जाने चाहिए थे। किसी मंत्रालय का उदाहरण देना हो तो शिक्षा मंत्रालय। मोदी सरकार शिक्षा के मोर्चे पर कुछ खास नहीं कर सकी है।

देर-बहुत देर से आई नई शिक्षा नीति पर अमल धीमी रफ्तार से हो रहा है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों तक में कुलपतियों और शिक्षकों के पद रिक्त हैं। इसके अतिरिक्त जो नियुक्तियां हो रही हैं, उन्हें लेकर सवाल उठते रहे हैं। एक निराशाजनक तथ्य यह भी है कि दस साल बाद भी पाठ्यक्रम परिवर्तन का काम न के बराबर हुआ है और वह भी तब, जब सरकार के लोग ही यह शिकायत करते रहे कि भावी पीढ़ी को गलत इतिहास पढ़ाया जा रहा है। जब सत्ता में आप ही हैं तो फिर शिकायत किससे और क्यों?

बदलाव की आवश्यकता केवल सरकार के रंग-ढंग और रीति-नीति में ही नहीं, बल्कि संगठन में भी है। इसलिए है, क्योंकि यदि भाजपा ने सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद भी 2019 के मुकाबले 2024 में 63 सीटें गंवा दीं तो उसके पीछे सरकार की कार्यशैली भी जिम्मेदार है और संगठन अर्थात भाजपा के तौर-तरीके भी। चुनाव परिणाम सामने आने के बाद इन नतीजों पर पहुंचने के पर्याप्त कारण हैं कि यदि इस बार भाजपा सिमट गई तो इसीलिए कि प्रत्याशियों का चयन सही तरीके से नहीं किया गया। बाहरी या दूसरे दलों के नेताओं को प्रत्याशी तो बनाया ही गया, उन सांसदों को फिर से चुनाव मैदान में उतार दिया गया, जिनके कामकाज से जनता नाखुश थी। इसमें भी संशय नहीं कि भाजपा वैसी सोशल इंजीनियरिंग नहीं कर सकी, जैसी उसके विरोधी दलों ने की।

इसके अतिरिक्त मोदी सरकार ऐसा कोई विमर्श नहीं खड़ा कर पाई, जो देश की जनता के बीच अपना व्यापक प्रभाव छोड़ता। सरकार और संगठन उस विमर्श की काट भी नहीं कर पाए,जो विपक्षी दलों ने उसके खिलाफ खड़ा किया। रही-सही कसर भाजपा कार्यकर्ताओं की बेरुखी ने पूरी कर दी। इस बेरुखी के कई कारण थे और इनमें से प्रमुख था प्रत्याशियों का चयन ठोक-बजाकर न किया जाना।

भाजपा ने कैसे-कैसे नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा, इसका एक उदाहरण हैं उत्तर प्रदेश में जौनपुर से चुनाव लड़े कृपाशंकर सिंह। वही कृपाशंकर सिंह, जिन्होंने दिग्विजय सिंह और महेश भट्ट संग उस पुस्तक का लोकार्पण किया था, जिसका शीर्षक था ‘मुंबई हमला-आरएसएस की साजिश।’

जिन भोजपुरी गायक पवन सिंह को भाजपा का प्रतिबद्ध सिपाही मानकर बंगाल में आसनसोल से चुनाव मैदान में उतारा गया, उन्हें अपने विवादित गानों के लिए चुनाव लड़ने से मना करना पड़ा। इसके बाद जब उन्हें अन्य कहीं से प्रत्याशी नहीं बनाया गया तो वह बिहार में काराकाट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में उतर गए। वहां उन्होंने राजग के प्रत्याशी को हराने का काम किया। इसके अलावा उन्होंने कुछ अन्य सीटों पर भी भाजपा को नुकसान पहुंचाया। आखिर ऐसे प्रत्याशियों के चयन के लिए कौन जिम्मेदार है? यह वह प्रश्न है, जिसका कोई उत्तर देने वाला दिखाई नहीं दे रहा है। क्या इसलिए कि उत्तर प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के अलावा अन्य किसी के पास नहीं है।

भाजपा को जिन चार प्रमुख राज्यों में जोर का झटका लगा, उनमें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल और राजस्थान हैं। महाराष्ट्र में झटके का एक कारण एनसीपी और शिवसेना में तोड़-फोड़ को भी माना जा रहा है। प्रश्न यह है कि क्या एनसीपी और शिवसेना से टूटकर निकले दल बिना शीर्ष नेतृत्व की सहमति और समर्थन से भाजपा के पाले में आए और महाराष्ट्र सरकार की सत्ता में साझीदार बने? वास्तव में ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न हैं और उनके उत्तर शीर्ष नेतृत्व अर्थात नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को तलाशने होंगे, क्योंकि सरकार और संगठन में उनकी मर्जी के बगैर कोई बड़े फैसले संभव नहीं थे।

भाजपा के कमजोर प्रदर्शन का एक कारण यह भी रहा कि इस बार भी यह मान लिया गया कि मोदी नाम के सहारे सबका बेड़ा पार हो जाएगा, लेकिन जनता अक्षम और अपेक्षाओं पर खरे न उतरने वाले सांसदों से आजिज आ गई थी। उसे लगा कि उसे हल्के में लिया जा रहा है और उसने अपनी नाराजगी जता दी। माना कि कांग्रेस ऐसे व्यवहार कर रही है जैसे 99 सीटें 240 से ज्यादा हैं और वह इस पर विचार करने का संकेत भी नहीं दे रही कि उसे करीब एक दर्जन राज्यों में एक भी सीट क्यों नहीं मिली, लेकिन भाजपा को तो अपनी 63 सीटें कम हो जाने पर गहन मंथन करना ही चाहिए।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)